जन्तु बिल केसे बनाते हैं?

[, अपने रहने या शिशु उत्पन्न करने के लिए जन्तुओं हि द्वारा विविध प्रकार के बिल बनाने का वर्णन]...

जगपति चतुर्वेदी, सहा० सम्पादक विज्ञान

प्रथम संस्करण, १९५५

सरल विज्ञान की उत्कृष्ट पुस्तकें. प्रत्येक का मूल्य २) रुपया...

ले०--जगपति चतुर्वेदी, सहा० संपादक विज्ञान

- बिलुप्त जन्तु क्‍ _ श्षिक्कारी पक्षी

बिजली की लीला .. ज़ल्चर पक्षी... .._ समुद्री जीव-जन्तु | बन-वाटिका के पक्षी ...... वनस्पति की कहानी. वन-उपवन के पत्षी |... जीने केलिए..: उथल्ले जल के पक्षी | .. ब्वालामुखी...... . हिंसक जन्‍्तु _ भूगभ विज्ञान ....॑ _ खुर वाले जानवर पेनिसिलिन की कहानी. स्तनपोषी जन्तु... वैज्ञानिक आविष्कार भाग १, जन्‍्तु बिल कैसे बनाते परमाणु के चमत्कार. जन्तुओं की बुड़ि

.... कोयले की कहानी जनन्‍्तुओं का गृह-निर्माण .... बिलुप्र॑वनस्यति . .. पत्तियों के घोंसले .. तत्वों की खाज में . विचित्र चींटे « : .. कोटागुओं की कहानी तारा-मंडल की कहानी _

.... शल्य-विज्ञान की कहानी ... कीढों की कहानी ..... अदुभुत जन्तु ...._ सरीस्पों का कहानी ..... विलक्षण जस्तु . मछलियों की कहानी . -. आबविष्कारकों की कद्दानी क्‍

] पा पु |

:अक या,

ख्छ्हः

+ . सह: ऑड्टहिबके डक 5- 5 है

ब्क यू -क्छय अजलडचढ_.

कस -फप करा उलत अंट-टमट:

2० जबकि पीनयन जहर 262 27

कर ...._ प्रकाशक--कितांब महू, ५६-ए, जीरो रोड, इलाहाबाद क्‍ मुद्रक--अनुपम प्रेस, १७, जीरो रोड, इलाहाबाद

ब्बलत

दो शब्द

आज से लगभग ३० वर्षों पूर्व संबत्‌ श्६्यो१ (१६२४ ३०), विज्ञान परिषद प्रयाग से प्रकाशित मासिक “विज्ञान! के लिए विख्यात जन्तु- शास्त्री वूड की पुस्तक “होम्स विदाउट हैंडस” के आधार पर कुछ लेख जंतुओं द्वारा बिल बनाने के संबंध में लिखने का अवसर मिला था। वह . हमारा ग्रथम साहित्यिक प्रयास ही था जिसके लिए मैं भूतपूर्व विज्ञन!

.. सम्पादक ग्रो० गोपाल स्वरूप जी मागव का अत्यन्त आमारी हूँ।आज . इतनी अवधि के पश्चात्‌ जब मैंने किताब महल के अध्यक्ष श्री० श्री

. निवास जी अग्रवाल से जानवरों कें बिल, घोंसले या अन्य रूप के ग्रंह- निर्माण पर पुस्तक लिखकर अपनी इस “सरल विज्ञान-पुस्तकमाला” में.

_.. प्रकाशित कराने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने बड़ी ही प्रसन्नता से इस /. प्रस्ताव को स्वीकार किया तथा यह भी उद्गार प्रकट किया कि जंतुओं के

घर बनाने के संबंध में हिन्दी में अभी कुछ भी नहीं लिखा गया है। इस

. लिए इस. विषय पर पुस्तके छपनी चाहिए। फलतः तीन पुस्तकें छप

.. रही हैं। ... प्रखुत पुस्तक के कई शीर्षक, जैसे लोमड़ी, दिवांधिका या गंघमुखी . तथा नियामक पिपीलिका “विज्ञान! में १६२४ में छपे थे | उन्हें इस पुस्तक

... में सन्निविष्ट कर पुस्तक रूप में छुपा देखकर मुझे बड़ी ही प्रसन्नता का.

अनुभव हो रहा है ; अँग्रेजी में तो इस तरह का साहित्य यथेष्ट. सुलम है

.. परन्तु हिन्दी में कदाचित ये पुस्तकें इस विषय की पहली ही हैं। हम .. आशा करते हैं कि भविष्य में हमारे वैज्ञनिक मौलिक पर्यवेक्षण कर इन

.... विषयों पर हिन्दी तथा अन्य मारतीय भाषाओं में प्रचुर साहित्य पाठकों तक.

...पहुँचाकर उनके ज्ञान वर्द्धक तथा मनोरंजक होंगे

जगपति चतुर्बेदी

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल

श्वान-शशक ( प्ररी डाग )

विवर बनाकर रहने वाले जन्तुओं में अमेरिका के शशक

समान एक जन्तु की भी गिनती है जिसे श्वान-शशक कह सकते हैं। यह प्रेरी या घास के मैदानों में पाया जाता है. तथा शिशु कुत्ते . . की तरह भोंक॑ता है। इसलिए अमेरिका में इसे प्रेरी डाग नाम से . पुकारा जाता है इस जाति के समान ही उत्तरी योरप और साइ

: बेरिया के स्टेपी प्रदेश में जन्तु पाये जाते हैं उन्हें 'छखुसलिक' नाम... ... दिया गया है। प्रेरी डाग और सुसल्लिक दोनों ही जाति के जन्तु _ ,..... उपनिवेश रूप में भारी संख्या में एक क्षेत्र में विवर बनाकर रहते | हैं। ये दोनों बहुत शीघ्र तथा भल्नीभाँति बिल खोद सकते. हैं इनका आहार घास है इनके बिवर के पास नीचे से खोदकर फेंकी हुई «मिट्टी से छोटा भींदा-सां बना होता है। बिल के बाहर आकर इस -

. भींटे पर वे गिलहरो की भाँति सीधे खड़े हो जाते मिलते हैं। चारों ह... ओर दृष्टि डालकर कदाचित्‌ शत्र के आगमन की टोह लेते रहते हैं।. |... कोई आगंतुक आते ही शीघ्र अपनी विवर में घुस जाते हैं। वहाँ... .. पर उन्हें चैन से एक क्षण भी चुप नहीं बैठा जाता | अपनी चपतल . वृत्ति के कारण तुरन्त ही विवर के छिद्र से मुख निकाल कर मॉकने ... और. ठीक परिस्थिति सममने का श्रयत्न करने लगते हैं।इस .... '... चपलता के कारण शिकारी उनझो गोली से मारकर सहज शिकार :.. बना सकते हैं।

रू जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ? औरी डाग और सुसलिक एक-सी वृत्ति के होते हैं। इनका रंग जाको होता है। बलुद्दी भूमि पसंद करते हैं जिससे उससें सहज बिल बना सकें। हिमपात का अवसर होने पर ऐसी भूमि बहुत डर 2 का के सप्य शिशु श्वान की तरह भौंकता भी .... है प्रतिदिन वह शयन के लिए बिद्याई घास को बिल से बाहर .. फेंक आता है तथा नई घास छोटे-छोटे ढुकड़ों में काट-काटकर बिल के अन्द्र सोने के लिए बिस्तर बनाने के लिए पहुँचाता है। यह अपने उपनिवेश के बिवरों के मध्य-स्थानों से घास लेकर खाता है ।बिवर से कभी भी बहुत दूर नहीं जाता | जब कुछ काम हो. सोम्रेरीडाग था तो बिल ही खोदते रहने में संलषम्म रहता है या घास, या अन्य सुलभ वस्तुएँ ही बिस्तर बनाने के लिए छोटे खंडों _ .. में काठता रहता है अल्पायु श्रेरी डाग चूहे से बड़ा नहीं होता। * पेरी डाग छोटे कान, छोटी पूछ तथा गोल मुँह का जन्तु है : यह अमेरिका में मोंटाना से एरिजोना तथा उत्तरी डकोटा से टैक्सा हे पक पाया जाता है। एक श्रकार का प्रेरी डाग उजली जोरयुक्त पूंछ... . का मैदानी जन्तु है किन्तु दूसरी अ्रकार का प्रेरी डाग पहाड़ी होता है... ... जिसके झुख पर गहरे रंग के चिन्ह होते हैं और पूछ की छोर का .. अधिक भाग काला होता है। 35 मे ... प्रेरी डाग समाजप्रिय जन्तु है। इनके भींटों से प्रगट होनेवाले .._ बिवर सपाठ मैदान में मीलों तक दिखाई पड़ते हैं। परन्ठु ऐसे .. .._ उपनिवेश था जन्‍्तु-नगरों का प्रसार २४००० वर्ग मील तक के ज्षेत्र . |... में असारित भी उल्लिखित मित्रता है जिसमें करोड़ों श्रेरी डाग रहते .. | हा हों। मईं मास में एक बार में आठ शिशु तक उत्पन्न होते हैं।.. का |. _ प्रेरी डाग किसी अगगंतुक के आने पर बन्य अवस्था में जिस. .._श्रकार शिशु श्वान-सा भौंक कर दल के अन्य सदस्यों को बिल में.

+ आया क्यालएन- 226 अं कल

नह उडडककबन इक पक

कस अकेपरकसक कप न्‍ ला 5 कक उकन्‍८८ “पल कह ८3...

हैक टन सतत घर चाप | ८2०0४

|| 0 ७४2: ६७ * (८५ | ०.0 //00

&., ५०५४/८८ ढह 0

| ल्‍

्ललनजि जज तञ्प ह। ञख्सपं््फ्ध्सससलणे पिन लक 5 ध४ौीा८--- 5. कु + *-बन्‍न्‍ककनननञअ?-जीननजकनमीयान-- +3०-7“““/%०--० रु आग टर प् स्ड 22 हे कप 2 75.8 >> ध्ड है

व््््स््ज्थ

्ज््वच्न्श-र ब्ल्ल्श्ज््यञथ +->+

ल्ल्््स्ड >> 5 >> भ्यस्स्म्न्च््च्ः

22,5५० आय कक ऑखिपा: .स< हू ६५६ 77 उत्-+ ४5:55 डे. 2“+ स्पा की मकिर् बी आर, > 2 > पं के लए न्‍< को 2. ' 5 है कक ८2 2: पर ०5 पे ष् 3: अधिक का “-+++कह पद 8 अब 2 आच्कककद 7 7 दा 5५ 2१४३ २52 ] ््स््स्स््््य पक कि हर १2 निम्न >-> वर है स्व हम ०2300» हट पे

जा

|

प्रेरी डाग के बिल और भींद

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल...

|

2 जाता है|

|. ./.७/ है किन्तु भनमनिया सा भी प्रवेश कर इन दोनों को हड़प कर...

छः हि . जन्‍्तु बिल कैसे बनाते हैं क्‍ क्ठघरे की छड़ के निकट दर्शक के हाथ ले जाने पर उत्तेजित होकर भोंकने लगता है क्‍ क्‍

ओ्रेरी डाग का विवर यथेष्ट बड़ा होता है | एक जगह बस जाने पर उसकी सन्तान तो बेग से बढ़ती जाती है और अपने-अपने बिल के मुख के पास खोदी मिट्टी के ढूहे से बनाकर ये विस्तृत मैदानों को अधिक्षत कर लेते हैं, किसी घोड़े को उस क्षेत्र की पोली भूमि में चलना असंभव हो सकता है। बिलों की गहराई भी बहुत होती... दे। एक बिल में पाँच बड़े पीपों का पानी गिराने पर भी कुछ पता... नहीं चल सकता | छुछ भूमि सोख ले सकती है, कुछ बिलों की गहराई लुप्त कर लेती होगी ये विवर भूतल से नीचे तिरछी गहराई में धरातल से अद्ध॑ं समकोण बनाते हुए खुदे होते हैं। पॉच-छ: फुट गहराई तक जाने के बाद वे अकर्मात मुड़ते हैं ओर धीरे-धीरे ऊपर की ओर जाने लगते हैं। एक-दूसरे के निकट ऐसे हजारों विवर खुदे होते हैं, परन्तु एक-दूसरे से सम्मिलित नहीं होते पर

परी डाग के उपनिवेश या नगर में जाकर उसको माँकी लेना . मनोहर दृश्य होता है। हूहे पर से तो वह बहुसंख्यक रूप में दूर तक देखता ही है, बिल में घुसकर भी विवर-ढ्वार से मोॉंकता द्शंकः के कौतूहल का कारण होता है। विवर-द्वार से कोॉंकने पर गोली का शिकार होने पर भी यह अपने प्राण उस स्थिति तक नहीं छोड़ता. ...._ जब तक किं उसका मुख पूर्णतः भग्न हो चुका हो कुछ ही अंश ... भग्न होने पर तो वह बिल में अवश्य ही बेगपूर्वक घुस ही .___ एक दुखद घटना होती है। प्रेरी डाग के परिश्रम से बनाये बिबर में एक विवरवासी उलूक प्रवेश कर कभी-कभी रहने लगता

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल... श्‌ः

जाता है। इस साँप के पेट से प्रेरी डाग का समूचा शरीर जीवित रूप में प्राप्त किया जा सकता है

.. प्रेरी डाग के बिवर में प्रविष्ट कनमनियाँ साँप को तुरन्त चीर. कर जब जीवित रूप में ही ग्रेरी डाग प्राप्त किया जा सका तो उसका

... स्पष्ट अर्थ यह होता है कि यह साँप उसे विषदंश नहीं करता, .. बल्कि निगल जाया करता है। ऐसे भयानक अतिथि को पाकर

प्रेरे डाग अपना सवनाश होने का अबसर प्राप्त करता है। जब

कमी मनमभानियाँ साँप उसके बिल में प्रवेश करता है, प्रेरी डागों को

4 कप ले ख्स्स्य्य्ब्न््सक 5 लिलनााकलपक

ल्फाल्क जा आय सवक्ान विकार लेकरियकर - कक पल नकन- ५- “जे "तन मा पाल 7 पयााओ

. अवश्य निगल जाता है। इसीलिए उसका उद्र चीरने पर उनके .. शव बराबर पाए जाते हैं

मनमनियाँ साँप एक तरह का ऐसा साँप होता है जिसकी पछ

. में छल्ले बने होते हैं। उनके हारा कनकन का शब्द होता है। यह | .. ठीक पता नहीं कि वे छल्ले किस उपयोग के हैं या क्‍यों उत्पन्न .. होते हैं। जनश्रति ऐसी है कि जब कभी यह किसी व्यक्ति को काट ._ खाता है, एक नया छल्ला उत्पन्न हो आता है। दूसरी धारणा यह ... भी हो सकती है कि प्रतिवर्ष आयुवृद्धि के साथ एक-एक छल्ला अधिक

उत्पन्न होता जाता है परन्तु ये दोनों ही मन्तव्य प्रयोगों द्वारा मिथ्या...

... सिद्ध हुए। जन्तुशाला में बन्दी बनाए एक मनमानियोँ साँप को _

एक वे में तीन-तीन छल्ले उत्पन्न करते देखा गया परन्तु किसी

... दूसरे कनभनियाँ को तीन वर्षो में केवल्न एक छुल्ला बनाते देखा

गया यह उनकी व्यक्तिगत बृत्ति तथा सामथ्य की बात होगी | ... प्रेरी डाग के बिवर में विवरबासी उल्लू के पहुँचने के कारण . को बता सकना कठिन ही है। हो सकता है कि वह उसके अन्डों- बच्चों को अवसर पाकर खा जाता है परन्तु कोई प्रमाण सुलस .. नहीं ज्ञात होता | मनमनियों साँप उल्लू को भी खा जाने में कुछ... | ..._ हिचक नहीं दिखा सकता। अतएवब वह प्रेरी डाग का बल्ात्‌ अतिथि...

बनने पर इस प्रवल्लतर अतिथि कनभनियाँ साँप द्वारा निगल लिया

निकट 2 ५>.०-+-०7० 77 कं ०>+ज

स्का व्न्नक य््््य्य्््न््ं््ल्च्य्स्स्ल्ल्््ल 7 ल्च्ज््ि ड्ं्लल्च्््न्स्स्स्न्च्ण च्यस्ल्च्स्स च््््् शअशन्‍ लि" किए: हाय 5 हर

डागों के बिल्ों में नहीं पाए

जाते है बिल पर अधिकार

विव रवासी उल्ल में अड्डा जमा लेता है।

्द्ट

/5 जि कर्क बक 20 ;_

छः

6 ड़ 73 कब मक ५०६ धफ छिः के ट्रिक कि ५० कट लिए छि छि &

(रबिद) 5 हल मैदानों में रहती हैं। छिपने के

के अतिरिक्त लोमड़ियों के खाली बिल भी उसे

ों | संघ कक

5

याँ

शों की भारतीय जाति

खरगो | त्त्म्बी चघा

बिलस्थ शशक कर वह ऊपर से ही जान सकता है कि बिच्न

खर

ज्ञात रहते हैं.

पा ्इुक 77. 7८४

92 आय प्यास ता या न््ज्ज्ट 55 छा अंक अ्दअंदरकेइडड 5८ पर कप + कल किन नस नरनमभ+न. िलसलक+_+-+>+ नल तलल+ रद

. स्तनपोषी जन्तुओं के बिल

में उसका स्वामी जन्तु रहता है या नहीं। कान लम्बे होने से लम्ब-- क्‍ . कण नाम ही पड़ा है। पिछले पैर बड़े होने पर सारी खरगोश

(शश) जाति ही उचक-डचक ही कर भागती है। एक भारतीय

.. जाति के शश को सिर से निश्चितपृवक छोटे आकार के कानों युत्त पाया जाता है जो हिमालय की तराई में दक्षिण में ढाका तक ... मिलता है.। इसकी बृत्ति विवर बनाने की पाई जाती है किन्तु यह . समाज या भंड में उपनिषेश स्थापित कर नहीं रहता | इस जाति के - शश को उन पाश्चात्य जातियों के जन्तु का समकक्ष मानाजा ... सकता है जिन्हें रैबिटं नाम दिया जाता है। यथाथत: इन्हें विशेष .. रूप से बिल में रहनेवाला या विलेशय शशक कह सकते हैं। साधा- _ . _ रण रूप के मेदानी भाग में रहने वाले खरगोशों के पैर बड़े होते हैं

अतणएव उन्हें लम्बपदी शश कह सकते हैं। विलेशय शश (रैबिट)

... के पैर साधारण खरगोशों (या हेअर) से छोटे भी होते हैं अतएव ... उन्‍हें प्रथक रूप में आकार तथा स्वभाव के कारण पहचाना जा . सकता है।

योरोपीय या पाश्चात्य शशकों की विवरवासिनी जातियों

(रैबिट) की अनेक नस्‍्लें होती हें। ये जन्तु बिवरों में रहते हैं

इनमें समाजप्रियता होती है | बहुसंख्यक विवर एक स्थान पर बने . मिलते है। उस स्थान को शशक्र-उपनिवेश (बैरेन) कहते हैं। जहाँ कहीं भी ये विज्ञेशय या विवर-वासी जन्तु उपयुक्त स्थज्ञ पाते है...

.. जहाँ बिल खोद सकने योग्य बलुही भूसि हो तथा निकट के स्थानों...

. में भोजन की भी प्रचुरता हो, वहाँ ये अपने विवर बनाते है जिस. .. बलुही या कड्डूड़ीली भूमि में केटीली क्राड़ियाँ उगी होती है, वहाँ ही. |

ये शशक अपने बिवर बहुसंख्यक खोदते है

52553 2250:25%%5453%535533&&3&388533&333&3433545538553455&95%3<&58465<65###॥25665%222620:5752:09475%2:7::::

ऐसे स्थानों में बिल खोदने में सुविधा होती है। मिट्टी सहज हि "

.._ खुद जाती है, केंटीली भाड़ी के किशलय भोजन के काम आते हैं।

पा लो जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

उसकी भाँखड़ी जड़ें बिल्॒ की रक्षा में सहायक होती हैं, ऊपर की कटीली डालें विवर का द्वार अदृश्य रख कर अपने कोंटों से उसको दुगगंम बनाए रखती है .. एक बार बस जाने पर विवरवासी शशक अपनी तीज्र सन्तान- . बृद्धि से चूहे-चूहियों की संख्या-वृद्धि से होड़ ले सकते हैं। सारी _निकटवर्ती भूमि बिलों की सुरंगों से बहुछिद्वित-सी बन जाती है। कुशल यही होती है इसका मांस सुस्वाद होता है जिससे मनुष्यों द्वारा इनका शिकार होता है। खाल भी बिकती है। बाज (श्येन), . बीजेल तथा स्टोट भी इन्हें खाते रहते हैं। अतएवं इनकी संख्यातीत वृद्धि अवरुद्ध होती रहती है। क्‍ . अनेक बाधाओं के होने पर भी अपनी संख्या वृद्धि के अवसर रैबिटों को प्राप्त होते हैं तो वे बढ़े कष्ट के कारण हो सकते हैं। कहीं-कहीं ये विवरवासी शशक इतने बढ़ जाते हैं कि भूमि में इनके | _ बिलों का जाल बिछ जाने से वहाँ स्थित भवनों की नीव दिल उठने ..._ की आशंका पैदा होती है। नीव के अंदर इनके विवर पहुँच गए रा होते है। कहीं पर मारने का भी प्रयत्न किया जाय तो दो-तीन-चार बच-खुच कर भी भाग निकलने वालों में यदि नर ओर मादा का . एक जोड़ा भी हो तो फिर देखिए कि ये कितनी शीघ्रता से बढ़ कर पुनः थोड़े समय में ही बहुसंख्यक बन जाते हैं। इनकी संतान ..._ इतनी शीघ्र उत्पन्न होकर विकसित होती है कि एक वर्ष के अंदर .. ही एक मूल्ञ जोड़े की तीसरी पीढ़ी जन्म धारण कर चुकी होती है ..... अधिकांश विल्ेशय (बिल में रहने वाले) जन्तओं में यह देखा . - जाता है कि वे रहने के लिए जो विवर बनाए होते हैं उससे भिन्न .. उनकी शिशुशात्षा (जन्म-विवर) का प्रबंध होता है। विलेशय शशक .. में भी ऐसी ही वृत्ति देखी जाती है। वह छोटे जनन-ग़ह के लिए एक एकान्त शान्त स्थल्न देढ़ता है | जिन बिवरों में विल्ेशय शशकों

0 [0 | रड्‌ हा. कप 0] 8 ॥/0% (| छा | पु

| ]

ह्ज्जरतल जा: सुर."

अन्‍ममनलय८ससब>+१२०+ राज २८ मल ५-> अल तक मन्‍न्‍्ड 5 ८ए_माष+-पतदुलयक-- "ता का क्बलिपट 77 उघचथ 5 सुहाग ह:2२० 2१७३८ दा कक पवन तयचतम सरल न: कं

नतनक2-१ 2१ पकलउलत सन

$ |] |] री ' ] हि | हर ]

| | है! ] | रे

घर तो

स्तनपोषी जन्तुओं के विल...|..

के उपनिवेश का निवास होता है उनमें वह जनन कार्य नहीं करता

बल्कि एक असम्बद्ध प्रथक विवर ही बनाता है जिसके अंत में

मादा शिशु उत्पन्न करती है |

जनन-ग्रृह घोंसले सा सज्जित किया जाता है। उसकी सतह

पर सुन्दर कोमल और उत्तम रोस की तह बिछी होती है। वह ने

रोम उसके शरीर के ऊपरी बालों के नीचे छोटे तथा कोमलतर रूप... में उत्पन्न उपरोम या आंतरिक रोम ( डाउनी ) होता है। ऐसे दोहरे रूप के रोम या बाल अनेक पशु पक्षियों के शरीर में उत्पन्न पाए

जाते हैं। माता शशक अपने वक्षस्थल पर से आन्तरिक कोमल 'शोमों को ,नोच-नोचकर अपनी नवजात संतान के लिए बिछौना बनाए होती है ये रोम यथेष्ट बड़े गुच्छे रूपों में होते हैं। कोई

भी विजल्नेशय शशक को पालने वाला व्यक्ति: उसको अपने शिशु

के लिए कोमल पालना बनाने के लिए अध्यवसायपूर्बेक वक्षस्थल्न

के कोमल आंतरिक रोमों को नोचते देख सकता है। संसार में

माता का अपनी संतान के लिए ऐसा ही अपार स्नेह होता है...

जिसके लिए वह कुछ भी त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहती है।.... विलेशय शशक की मादा को संतान के लिए शेमीय पालना

बनाने के लिए वक्षस्थल्न के कोमल रोम नोचने की क्रिया पर्यवेक्षकों

के अत्यन्त प्रशंसा का कारण हो सकती है दर्शाक या पाठक उसके

अपूर्व त्याग की भूरि-भूरि प्रशंसा कर सकते हैं | यथार्थ में अनेक... | . ल्षेखकों ने उसके त्याग की महिमा का बहुत ही बखान भी किया . | है किन्तु जंतुशांत्री हमें इस पहलू पर दूसरे रूप में अपना...

_ मन्तव्य सुनाते है। माता शशक ही नहीं, अनेक अन्य जन्तुओं को _ ;..... ऐसी क्रिया करते पाया जाता है। पक्षियों में तो ऐसा अनेक उदा- . _-. | #* . हरण देखा जाता है| कुछ पशुओं में भी कदाचित ऐसी बृत्ति हो। .., .._ इन सब में माता के अपार स्नेह के संबंध में तो किसी को कुछ

| ९७... सु विल कैसे बना हैं.

कहना ही नहीं हो सकता परन्तु शिशु के पालन-पोषण के लिए . अपने अंग को ध्वस्त करने के सम्बन्ध में अवश्य मतभेद हो .. सकते हैं रा .... पत्षियों में प्रति वर्ष पुरातन पतत्र (पर) गिरा कर नए पतत्र ... उत्पन्न करने की क्रिया पुनरावृत्त, होती है यह पर माड़ना कहलाता ..._ है | जीवन-संघर्ष में शरीर के क्षत-विक्षत होने के अनेक अवसर . होते हैं। पक्षी के पर या पतत्र भी ध्वस्त हो सकते हैं। पंख के बड़े ... पत्तत्र भी भप्न हो सकते हैं। बिश्न-बाधाएँ तो प्रतिदिन पड़ती हों . और उनके अंगों के विक्रत होने के आए दिन अवसर आते हों परन्तु उनकी रचना जीवन के आरंभ काल में एक बार ही होने की जे . व्यवस्था हो तो बेचारे पक्षियों को अपना सारा जीवन पंगुल्ञ सा ही व्यतीत करना पड़े, परन्तु प्रकृति की ऐसी दिव्य व्यवस्था रहती .. ब् है कि प्रति वर्ष उनको नवजीवन सा प्राप्त हो। अतएव पुराने पंख. ...._ भाड़ कर नए उग झाते हैं। साँप के केचुल उतारने की क्रिया भी |. कुछ ऐसी ही व्यवस्था है। क्‍ ....._ जिस तरह पत्षियों का आंतरिक रोम प्रति वर्ष गिर कर फि्रि . उतन्न होता रहता है उसी तरह बहुत से जस्तुओं में शीत की ... थातना शमन करने के लिए विशेष रूप से प्रति वर्ष जो रोम-राशि अधिक बृद्धि पाए होती है, वह ऋतु-परिवर्तन होते ही गिर जाती... .. है। यह पत्तियों के पर माड़ने की भाँति ही क्रिया समझी -.. जा सकती है जो अ्रति वर्ष विषम ऋतु के रक्षार्थ उधपन्न रोम-राशि .. के गिराने की पुनराबृत्ति कर दिखाती है। ज्ञो पर या पत्तत्र झड़

.. दी जते हैं उन्हें कुछ चोंच के झटके से प्थक कर पक्षी ने अपने... .._ शिशु-जन्न-नीड़ में सब्जित किया तो उसे त्याग की क्रिया कहना...

.. डजास नहीं तो दूसरा क्या हो सकता है। इसी तरह किसी जंतु. .. कै जो परिवद्धित रोम वार्षिक परिवतेन रूप में गिर हीजाते हैं...

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल... हू. उन्हें भेड़ के ऊूनों की भाँति यदि काट कर रख लिया जाय तो उस

जंतु को कुछ असुविधा नहीं हो सकती अतएब विलेशय शशक की मादा भी अपने गिर जाने वाले कोमल रोमों को नोच कर

: अपने जनन-कक्ष में बिछाने का कत्य करती है तोकोई भारी

त्याग या विस्मय की बात नहीं कही जा सकती

कहा जाता है कि जैन यती अपने केश नोच-नोचकर बल्ात्‌ फेंकते हैं। उन्‍हें इस कृत्य में अवश्य ही वेदना होती होगी। परन्तु . वे किसी भाषना के वेग में ऐसा त्याग कर दिखाते हैं तथा उसके कष्ट को अनुभव करने का हठात्‌ प्रयत्न करते हैं हमारे शरीर के रोमों की ऐसी व्यवस्था है कि उनको उखाड़ फेंकना कष्ट

का काय है। जड़ों के उखड़ने से रक्तस्नाव ही सकता है, शोथ हो क्‍

सकता है। कुछ मांस-खंड भी नुच सकता है परन्तु जिन जंतुओं में रोम वार्षिक रूप सें गिरने का प्रबंध है उनकी जड़ खत: सूख

सी जाती होगी। पतभड़ के समय वृक्षों से पत्ते गिरने की अवस्था. -

में भी पत्तियों के वृ त्तया आधारदंड मुरमकका से गए होते है अतएव विलेशय शशक भी जब रोम नोचते हैं, उनकी जड़ें अधसुखी या मुरमाई होती होंगी अतएव उन्हें उनके नोचने से शारीरिक बेदना नहीं होती यह बात नहीं ऊद्दी जा सकती कि पशु-पक्ती जगत में शिशु के लिए त्याग की भावना का अभाव होता है | परन्तु इतना अवश्य है कि कुछ त्याग या सहज स्वाभाविक अध्यवसाय कर शिशु के

. लिए जो व्यवस्था करते हैं या अन्य भी जो काये करते हैं उसके लिए... . उन्‍हें बुद्धि का उपयोग नहीं करना आवश्यक होता उनमें तो केवल... अंतर्ग्रेरणा या अंत त्ति ही होती है जो उनसे सब कार्य एक व्यवू-...।

स्थित रूप में कराती है। प्रति वष . पक्षी घोंसले या विवर बनाते

हैं। जंतुओं में भी कितने विवरवासीहैं, परन्तु उनमें हम पक्षियों...

दे हर 5 जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

को यह विवेक रखते या सन में तक करते नहीं पा सकते कि उनका

क्या उद्देश्य है। वे घोंसले या बिवर इसलिए नहीं बनाते कि उनमें यह विचार उठता है कि उन्हें शिशु उत्पन्न करने के समय ऐसे आश्रय अपेक्षित हैं वे विवर या घोंसले केवल इसलिए बनाने में अबृत्त हो जाते हैं कि उनमें प्रकृतिदत्त भावना होती है। बे रोम या कोमल पत्तियों की गद्दी यह सोच कर नहीं बनाते कि शिशु या अंडे

हा को सुन्दर विश्राम-स्थत्ञ प्राप्त हो। बल्कि इसके लिए उनमें अंत- ' बृत्ति ही होती है शिशु को वे खिलाते तथा पोषित करते हैं, वह

काय भी किसी विवेक के कारण नहीं होता, बल्कि उनकी अंत-

. भाँवना या अंतबूत्ति के सहज गुण के कारण ही होता है। ऐसे... .. शुण उनमें जाति की देन है। विलेशय शशक में बिवर में अपने -

. शरौर का कोमल रोम नोच कर बिछाने की क्रिया भी उसकी बुद्धि... .. का ४8 नहीं है, बल्कि उसकी अंतर त्ति के द्वारा संपन्न ... कार्य है। 2

....... चिकचिकी गिलहरी ( चिपमंक ) .. चिकचिकी गरिलहरी को चिपमंक भी कहते हैं यह चिक-चिक

.. था चिप-चिप सा शब्द तनिक भी उत्तेजना होने पर सुनाने लगती. है। इसकी दर्जनों जातियाँ अमेरिका में पाई जाती हैं | इनः सब

की आय; एक सी पद्टियाँ होती हैं, परन्तु रोमों में विभिन्नता पाई

.. जाती है। हरा युक्त जैतूनी, धूसर, पीलापन युक्त या मटमैला भूरा ... -- रज्ञ होता है। अधोतल सदा धूमित्न होता है। वह श्वेत भी हो . .. सकता है। कटि प्रदेश तथा पाश्व भाग नारंगीया लाल से हो... .. सकते हैं। आँख एक गहरे रह्ढः की पट्टी में निमज्जित सी होती... . है जो नाक से कान तक फैली होती है उसके ऊपर और नीचे...“ . हलके रंग की पह्टियाँ होती हैं.। कान के पीछे एक हल्का धब्बा होता...

हा आल अभी हू 0 43 5 20४6 02230 80223 20% 3572 25 89% 3 टी 22 रह 5 022 मिनट 0 302

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल...“ १३

है। सिर के पीछे से पेंछ के आधार तंक पीठ पर एक काली पट्टी होती है उसके पाश्व में दोनों ओर उस्तके शरीर के स्वाभाविक रंग की पद्टियाँ होती हैं। उनके नीचे फिर एक-एक काली पट्टी होती

है। इसके नीचे श्वेत या धूमिल पीले रंग की पट्टी होती है। इसके

नीचे पुनः काली पढ्टी होती है। अंतिम तीन पढ्टियोँ स्कंध तथा कटि प्रदेश पर -धँधली हो जाती हैं। इस प्रकार चिकचिकी या चिपमंक गिलहरी की पीठ पर पाँच काली तथा दो श्वेत या हल्की पीली पट्टियाँ होती हैं क्‍ चिकचिकी या चिपमंक गितलहरी का विवर एक पेचीदी रचना होती है। वह सदा किसी दीवात़, वृक्ष या कगारे के नीचे बना _ होता है। विवर लगभग एक. गज तक धरातल के नीचे लम्बबत्‌

चिपमंक गिलहरी

बना होता है। फिर कुछ ऊचाई की दिशा में अनेक टेढ़े-मैढ़े मार्गों रूप में बना होता है। मुख्य विवर से संलग्न अनेक उपविवर होते हैं, अतएब उनमें से किसी से यह शत्र से बचकर भाग सकती है। केवल्न एक जन्तु स्टोट ही ऐसा होता है जो इसके विवर की पेचीदगी में नहीं भूलता और अपना लचीला शरीर उनके टेढ़ेपेन के अनुरूप ..॥ घुमा-फिराकर भीतर प्रवेश पा ही जाता है। वद्द जितने चिपसंकों.. |

१7. उदास बसों है।

को बिवर में पा सकता है उन्हें मार डालता है। एक भीषणतम स्टोट को एक बार एक चिपमंक के विबर में थोड़ी देर के लिए अवेश करते देखा गया और कुछ मिनटों में ही वह बाहर निकल हु आया किन्तु इतने ही समय में वह आधे दर्जन चिपमंकों का बध . कर चुका था जिनमें एक मादा के साथ पाँच शिशु थे। उनका

निष्थाण शरीर शिशु-पोषण बिबर में पाया गया | इतनी सावधानी . से रज्ञा का साधन बनाने पर एक प्रबल शत्रु उन्हें मिल ही जाता है क्‍ जो अपने आक्रमण-कौशल से उनके रक्षा-साधन को व्यर्थ बना देता है श्र . चिपमंक के शिशु-जनन-कक्ष का निर्माण विवर के अन्दर अनेक अ्रकार की सूखी पत्तियों द्वारा हुआ रहता है। यह माता तथा उसके शिशुओं के लिए साधारण रूप के सभी शत्रुओं से रक्षा. का स्थज्ष होता है। विवर की विभिन्न बक़ता के कारण उसके अनेक मोड़ों का पता पाना बड़ी ही कुशलता का काम हो सकता

है। सब को खुले रूप में खोद कर पता लगाना विशेष श्रमसाध्य

के कार्य होता है।

..._ चिपमंक गिलहरी अपने बिवर में एक बड़ा खाद्य: भंडार संचित करती है। यथार्थ में यह बड़ी कंजूस होती है। जितना यह खा .. सकती है उससे बहुत अधिक खाद्य अपने विवर में संचित्त करने . का प्रयत्न करती. रहती है। उस भंडार की कुछ बराबर बुद्धि किये

. बिना उसे चैन ही नहीं पड़ती है इसका मुख्य आहार एक केंटीला .._

.. होता है। उसको अपने गाल की थैली में रख कर ले भागने...

... गाल में यदेष्ट बड़ी बैल होती है जिससे यह उसमें अधिक बखुएँ..

.._ एक साथ रख कर अपने विवर में ले जा सकती है। उसके भरे... |... रहने पर इसका बड़ा फूला हुआ गाल विचित्र रूप प्रकट करता .. |

स्वनपोषी जन्तुओं के बिल...

((//४ 2 टन ५" की ४! 0068 रे री] है पर | 3 (076 ; ब््र््‌

किक ७७ | | (77 ३५

>च्रू ५)

(6! [[॥ & बे भें ५७४८६ प्0... 25:

ह्प जी (//८£ अफज/7 0 |

. 0ा॥ाएएतए॥।एएएंएए॥ ( | ! 7"

|

॥/॥

॥| ॥|

१६ .. जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

है। इसका खाद्य-भंडार आड़े उपविवरों में रहता है जिसमें अनेक प्रकार का खाद्य-पदाथ संचित रहता है चिपर्मंक एक छोटा किंतु सुन्दर जन्तु होता है। उसमें सजी-

बता कूट-कूट कर भरी रहती है। सदा गतिशीलता पाई जाती है। ५... पघनी हरियाली के मध्य से वेगपू्वक आते-जाते इसे आनन्द का 6 . अनुभव होता है

एकाकी बिलस्थ कलंदक (वृडचक)

गिलहरी से मिलते-जुलते रूप के कुतरने वाले जन्तुओं (अन्तक) में एक अकार के जन्तुओं को मारमोट (विल्स्थ कलन्दक) कहा जाता है। मोटे जानवर का आकार खरगोश के बराबर भी. हो सकता है। कान और ढुम का आकार छोटा होता है। इन्हीं की. एक जाति वूडचक कहलाती है। यह उत्तरी अमेरिका का जन्तु है। पर्वेतमालाओं में दक्षिणी कनाडा से पूर्वी संयुक्त राष्ट्र तक इसका... अ्रसार पाया जाता है। अन्य मारमोट जातियों से इसमें यह विशेषता होती है कि इसकी एकाकी रहने की वृत्ति है वूडचक बिल में रहने वाला जन्तु है। इसका बेडौल रूप होने . से कितने लोग इसे भूवाराह ( प्राउंड हाग ) कहते हैं। यह सीटी की तरह ध्वनि उत्पन्न कर सकता है। ....._ वूडंचक का विवर अधिक लम्बा होता है। वह बीस से तीस. .. फुट तक लम्बा गया होता है। बह प्राय: विशेषतः किसी बाहर _ .._ उभड़ी हुई चट्टान या पहाड़ी के अशद्ल में बना होता है। यह कुछ -. . फी्टों तक तिरछे रूप में नीचे गया होता है, फिर धीरे-धीरे ऊपर .. की ओर उठने लगता है और धरातल की ओर जाता है | विवर .. केझंत में घोंसलाया जनन-गृह होता है। वह गोल आकार का ..॑_ बड़ा कक्ष होता है। शिशु यहाँ जन्म धारण करते हैं। पाँच मास

5. स्तनपोषी जन्तुओं केविल........ ९७

... की आयु तक के होने पर बे वहीं पड़े रहते हैं. इतनी आयु के हो - जाने पर बे पृथक-पृथक हो जाते हैं और स्वतन्त्र जीवन व्यतीत

करते है उनमें से प्रत्येक एक गड़ढा एक गज गहरा बना लेता है

2

ऐसे अनेक विवर खाली ही पड़े मिल सकते हैं |

कपि-कपोलीय मृषक (पाकेट-गोफर) मुख में बन्दर की तरह गालों के भीतर थैल्ली (गलगरैल्ी) रखने . की व्यवस्था रखने वाला एक जन्तु कन्तकों (कुतरने वाले जन्तुओं) - में चूहे समान होता है। उसे गलथेल्ली युक्त चूहा कह सकते हैं किन्तु इसका एक पृथक वंश ही होता है। ये ही जन्तु पाकेट गोफर नाम से प्रसिद्ध है। यह बिल में रहने वाला जन्तु है। यह . अमेरिका में पाया जाता है | यह अपनी दोनों गलथैलियों में खाद्य- .. पदाथे हूँसे रहता है। भूख लगते ही अगले पंजों से तनिक-सा . मटका देते ही गलथेली से गल्ले में आहार पहुँच जाता है और . उसकी भूख मिट सकती है

पाकेट गोफर या गलथेली युक्त चूहे का आकार नौ से बारह _ इच्ब तक लम्बा होता है जिसमें ढाई या तीन इच्ब दुम ही लम्बी होती है। आँख, कान का आकार छोटा होता है। शरीर कुछ पोपला सा ही होता है। पैर छोटे किंतु भयानक रूप से विकसित होते है। अगले पैर बड़े ही शक्तिशाली होते हैं। उनमें भूमि खोद सकने योग्य बलिष्ठ चहुलल होते है। पूछ प्राय: नग्न (रोमहीन) ही होती है, परन्तु इतने छोटे जन्तु के लिए बहुत बड़ी कही जा सकती है | अतएवं यह सिक्ुड़ सकती है और ऊपर-नीचे फेंकी जा . सकती है। सिर विशाल और चपटा होता है ठुड्डी विचित्र ढ़ से . .... पीछे खिसकी सी होती है। अतएव सम्मुखीय विशाल दाँत (कर्त-

_नक) विशेषत: निचले बढ़े जोड़े, मुख से बाहर ही दिखाई पढ़ते

(८. जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

रहते है इस पर तुर्रा यह कि ऊपरी जबड़ा आगे की ओर ग्रलंबित

4“ ॥///९

॥॥॥ ॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥| कह

| | ॥॥ ॥॥

असपपथनतपरपकंलककदायकाउधथउसह पवार कररबवाएतंपल्षततन सजीव हाउस परी: ५3 बनते कल नल

ज़्ँ

शो हक. २१, ॥। //#' १९३ ६६ ! (८ ///7 5५ औधप शे८ययय ये

पाप ३९८6 हर ५३७४५ ॥॥॥॥ | | | | | /॥ ॥॥॥ ॥॥ 0 ॥॥॥0 शशि

॥॥॥

02229: >- मच लि कर जम -++ ल्ल्न्स्ल्ः_-््-य

कपिकपोलीय' (पाउच्ड रैट) मृषक का बिल

.._ होता है। उसमें ऊपरी कर्तनक आगे बढ़े होते हैं और गलथेली .. थुक्त रोमाच्छादित कपोल की त्वचा उन दाँतों के पीछे स्थित होती

है। इस प्रकार मुख का रूप एक गोल छोटे छेद समान हो जाता

है जो पीछे से जीम द्वारा बन्द किया जा सकता है। इन विचित्र

_ स्तनपोषी जन्तओं के बिल... १६

हा के कारण इस जन्‍्तु के पहचानने में भूल हो सकना कठिन |... पाकेट गोफर के अनेक रह्ग हो सकते हैं। आदर. तथा शीत .. श्थानों में इनका रद्भ लगभग काला सा होता है। उष्ण मरुस्थल्तीय . ग्रदेशों में इसका रह्न बलुहा पीला होता है ये -उन स्थानों में पाये ज्ञाते हैं जहाँ की भूमि सहज खोदी जा सकती हो और खाद्य-पदार्थ सुलभ हो। शीत स्थानों में इसके रोम मोटे होते हैं, उन्तका रूप रेशम या ऊन-सा होता है किन्तु उष्ण प्रदेशों में उसके रोम भददें और कड़े होते हैं क्‍ पाकेट गोफर विषर-निवासी जन्‍्तु हैं। छछूंदरों समान जीवन : व्यतीत करते हैं। केवल घास-पात नोच भागने के लिए ही विवर . के बाहर कुछ देर के लिए निकटवर्ती भूमि में जाने के अतिरिक्त . ये कभी विवर के बाहर नहीं निकलते .. पाकेट गोफर बहुत बड़ा बिज्न बनाता है। जहाँ कहीं भी वह .. जगह पा जाता है, बड़ी हानि पहुँचाता है | उपर्वनों में विवर बनाने . का अवसर होने पर यह पोधों की जड़ें काठ डालता है। बिवर में होकर जो. भी जड़ जाती है, उसे यह खा जाता है।

» ऐसे विनाशकार्य से केवल छोटे पौधों या फूलदार बनस्पतियों का

ही नाश नहीं होता बल्कि बड़े फलदार वृक्ष भी कई वर्ष पुराने होने _

. पर इसके संहार-कार्ये द्वारागिर पड़ते और सूखते देखे गए हैं।

.._ ऐसी अवस्था में इसके विवर की छोर किसी बृक्ष की जड़ के नीचे. . ही सदा पाई जा सकती है। विवर-द्वार की रज्चा के लिए इसे

,.. वृक्ष की जड़ों का आश्रय प्राप्त करना पड़ता है परन्तु उन.जड़ों .. के ही मूल वृक्ष को यह नष्ट कर कृतष्नता का परिचय सा देता है।

छुछंद्र के ढहूहे की भाँति पाकेट गोफर भीविवर खोदकर क्‍

कप उसकी मिट्टी को बाहर फेक्कर दूृहाबन जाने का अवसर देता

_फूटे होते हैं | इन चहुधा प्रसारित सुरंगों का उद्देश्य दुहरा होता . है जिसमें एक तो बाहर भाग सकने का सुगम सांग पाना

.. पर दढूहे बने मिलते हैं। इनकी विवर खोदने की विधि विचित्र .. होती है। अपने दीघेकाय कतेनक (सामने के) दाँतों द्वारा ऐसी .. खुदाई करे हैं जैसे हम कुल्हाड़ी द्वारा लकड़ी काट सकते हैं। .. फिर बे उस खुदी मिट्टी को अपनी ठुड्डी के नीचे से अगले पैरों के ...॑ चंगुलों द्वारा पीछे फेंकते हैं जब यथेष्ट मिट्टी एकत्र हो जाती है .. तोवे उस ढेरी पर चढ़ जाते हैं और बिल में शरीर घुमा लेते हैं।

२० गो जन्तु बिल कैसे बनाते हे

: है। छोटे-छोटे ढूढ्े कुछ-कुछ दूर बन जाते हैं। कमी-कभी वे २० | या ३० फुट के अन्तर पर होते हैं और कभी-कभी निकट-निकट

ही सटे से होते है | इसका जनन-कक्ष या घोंसला उस काये के लिए विशेष रूप से बने बिवर में होता है। वह आठ इश्् व्यास के एक गोल कक्ष रूप में होता है। नीचे का तल सूखे घास-पात और मादा के नोखे हुए रोम से आच्छादित होता है जिस पर मादा और शिशु विश्राम करते हैं। यह कक्ष एक केन्द्र- स्थल की भाँति होता है जहाँ से चारों ओर विवर-माग्ग (सुरंगें)

है, दूसरे अनेक सुरंगों में जाकर आहार प्राप्त करना है

पाक्ेट गोफरों के विवर को खोदकर पता ज्ञगाया गया कि. जिस बाटिका में वह बने थे. उसके अधिकांश भाग की सुरंगों या बिवरों के जाल का निर्माण एक या डेढ़ फुट गहराई के स्थान में हुआ था, परन्तु जहाँ मार्ग थे वहाँ से अधिक गहराई पर स्थित थे

पाकेट गोफर आहार की खोज में निरन्तर विवर खोदता रहता है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर बे बगल में भी सुरंगें बनाते जाते हैं क्‍योंकि उन पार्श्वीय बिबरों (सुरंगों) के द्वारा बे विवर की मिट्टी बाहर फेंकते हैं| इसीलिए घरातल पर उनसे थोड़ी-थोड़ी दूर _

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल... २५१

फिर अपने अगले पंजों को एकत्र कर सामने की ओर मिट्टी को वैसे ही ढकेलते हैं जैसे बुलडोजर मिट्टी खिसकाता है।..: . पाकेट गोफर पीछे की ओर भी उतनी ही सुविधा हे या वेग से

. जा सकते हैं जैसे आगे की ओर चल या भाग सकते हैं। पीछे की ओर चलने के लिए वे अपनी पूछ के स्पर्श द्वारा मार्ग टटोल लेते

: हैं। इनका आहार सभी प्रकार की जड़े, कंद आंद हैं। जिसे वे खा नहीं पाते हैं, उसे काट डालते हैं, और कटे ठुकड़े को अगले

- घुमा-घुमाकर इस प्रकार गोल बना लेते हैं जैसे . हम किसी खराद ..पर कोई वस्तु गोल करते हैं। फिर उस चिकने बने टुकड़े को अपने गालों की थेल्ली में भर लेते हैं ओर अपने विवर के खाद्य-संडार . में ले जाकर संचित करते हैं।... हु ... पाकेट गोफरों के जननकक्ष सदा चट्टानों या हूहों के नीचे बने. .. बिवर में होते हैं जिसके चारों ओर विचित्र गोल अंधी सुरंगें होती _ .. हैं। जननकक्ष में केवल मादा ही रहती है। एक बार में चार से . आठ तक शिशु उस जननकक्ष में दिए जाते हैं | .... ऐसा विश्वास किया जाता था कि पाकेट गोफरों के गाल्ों, » की थेल्ी बिल खोदने से निकली मिट्टी को बाहर ढोकर ले जाने में .._ उपयोग की जाती होगी, परन्तु यह बात निराधार सिद्ध हुई है ............. गंधममुखी या दिवांधिका क्‍ हे भूमि खोदकर रहने वालों में छछ्लू दर सबसे विचित्र जन्तु है। यह केवल बिल बनाकर उसके अंतिम सिरे पर बैठी नहीं रहती ... बल्कि अपने लिए अनेक कक्षों और द्यलानों से सुसज्जित एक भूमि- ;.. गर्भस्‍्थ दुरूह भवन निर्माण कर उसमें आनन्द पूर्वक रहती है। . भोजन-क्षेत्र तक जाने के लिए उसमें नियमित मार्ग होते हैं। आने-

पंजों में दबाकर अपने रुखानी समान पैने दाँतों के सम्पर्क में...

श्र जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

जाने के मार्गे आधुनिक काल की रेलवे लाइन अथबा म्युनिसपैलिटी के नल-जाल की भाँति सुव्यवस्थित होते हैं। हा .. छक्कूदर वेग से दौड़ सकती है, और शिक्रारी कुत्तों की भाँति युद्ध भी कर सकती है। अपना शिकार प्रथ्त्री के अच्दर और ऊपर पकड़ सकती है और निर्भय होकर पानी में तैर भी सकती है.। प्यास बुझाने के लिए कुएँ बना लेना इसके लिए कठिन नहीं है।. इतना ही नहीं इसमें बहुत सी विचित्रताएँ हैं जिनका अभी तक _ पता नहीं लग सका है कक कह यदि किसी छछ्लूं दर को उसके निवास स्थान से हटा कर दूसरे स्थान पर रखा जाय तो वह नितांत उपहास योग्य और भद्दी मालूम पड़ेगी। फिर उसको उसके परिचित स्थान सें रख दिया ._ . जाय तो उसका रूप बिल्कुत्ञ दूसरां होगा वहाँ पर वह सजीब _ जान पड़ेगी और उसमें अद्भुत शक्ति जायेगी। उसके भद्दे... ओर आलसी रूंप में घोर परिवर्तेन दिखलाई पढड़ेगा। द्खिावटी .. नेत्र-विहीनता से इसके रूप में अद्भुत भद्दापन प्रकट होता है। इसके शरीर के अग्रभाग की रचना चलने-फिरने की कठिनाई का. दोतक प्रतीत होती है। छू दर जब तक बिल में घुस जाय अपनी भ्रकृृति का प्रभाव नहीं दिखा सकती, पर बिल्ल में प्रवेश कर लेने पर जब वह अपनी करामात दिखाती है तब हम उसे देख ही नहीं सकते बहुत से सामुद्रिक जन्तुओं के स्वभाव और प्रकृति को .. परीक्षा तो कृत्रिम जलाशयों में कर ली जाती है किन्तु जो जम्तु पृथ्वी खोद कर रहते हैं और अपना सभी कार्य बिल में ही करते हैं

- उनके स्वभाव की परीक्षा किस प्रकार की जा सकती है ? | ._._ जीती-जागती गंधसुखी (छद्देंदर) को बिना किसी प्रकार की

५2 नक्षत्ति पहुँचाये पकड़ लेना बहुत कठिन है। यदि कभी किसी कौशल | ... से पकड़ भी ली गयी तो उसके लिए भोजन की पर्याप्त सामग्री.

आओ कमटाराशबमछुलआ-ू5_ लय

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल

जुटाते नाक में दम हो जाता है। उसकी चिन्ता में बिना प्रातः:काल ही उठे कोई व्यक्ति उसका पालन नहीं कर सकता अतएव बिना... . अत्यन्त साहसी और अध्यवसायी हुए सफलता प्राप्त करना अत्यंत...

कठिन हो जाता. है

छछूंदर जितनी आलसी और दीन दीख पड़ती है उतनी ही...

... उसमें दुद्धषता होती है। यह अत्यन्त भयंकर और अत्यन्त उद्यमी... *.. “होती है। उपर्यक्त दोनों गुण उसमें ऐसे हैं जिनके कारण बड़े-बड़े .. जन्तु भी इसकी बराबरों नहीं कर सकते यह देखने में दीन जान

पड़ती है; इसी कारण इसे असहाय सममः लेना चाहिये | वह

: पृथ्वी के अन्दर ही सुखी रहती है और वहीं पर अपना पराक्रम

द्खि >रक है। यद्यपि अबाबील को. वायु में तीत्र गति से मक्खियों का शिकार करते देख हम लोगों की डाह होता है और

. दिवांधिका (छछू दर) को कीड़े-मकोड़ों के शिकार के लिए अंधकार- ..... सय मार में घूमते देख हमें दया आती है तथापि दोनों जन्तु .. अपना जीवन-निाह करने में एक ही प्रकार के आनन्द का अनु-

भव करते हैं एक क्षद्र छछ्कू दर को पथ्वी के अन्दर शिकार पकड़ते- उसी प्रकार आनन्द होता है जैसे एक अबाबील को आकाश में बेग

.. से दौड़ लगा कर पतिगों को पकड़ने में प्राप्त होता है इस प्रकार

का नतीजा उसके शिकार पकड़ने के ढंग से ही निकाला जा सकता

.. है | वह शिकार पर प॒थ्वी के अन्दर ही एक बारगी टूट पड़ती है | . और उसके पकड़ने में बड़ा आनन्द प्राप्त करती है

हम सभी लोग जानते हैं कि छल्देंदर भूमि के अन्द्र बिल .

. खोद कर रहती है; खेतों में प्राय: इन बिलों से निकत्ती हुई मिट्टी के . ढेर दिखाई पड़ते हैं हम लोग इस बात को नहीं जानते कि उसके. _बिवर के मार्ग किस-किस श्रकार के होते है यह किस प्रकार सीधे . बिल खोद लेती है; इसका पता नहीं चलता | वहाँ पर सदा अंघ- रा

स्छः .. जन्तु बिल कैसे बनांते हैं ?

कार रहता है; वहाँ हम देख भी नहीं सकते हम लोगों के लिए या किसी नेत्रयुक्त प्राणी के लिए आँख मूँद कर सीधे मार्ग से चल . सकना कितना कठिन है; यह हम जानते ही हैं। पानी में तैरने वाला भी ज्ञान सकता है कि पानी के अन्दर आँख खोल कर भी सीधे पथ से चल्नना असम्भव-सा है खेतों में जहाँ इसके बिल की मिट्टी इकट्ठी रहती है वहाँ वर्षा ऋतु में उसके बह जाने पर बित्र का एक द्वार मात्र दिखाई पड़ता है। इसी मागे से प्रारम्भ करके अन्य मार्गो' का पता लगाना चाहिये, जिससे इसके निवास स्थान का पूरा हाल मालूम हो जाय। ' यु ... इसका स्थायी वास-स्थान प्राय: छोटे टीलों के ही नीचे होता है| टीले का आकार यशेष्ट बड़ा होता है; किन्तु प्रत्यक्ष वह दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि यह सदा किसी पेड़ या झाड़ी की ओट में

डक के हि |

(९ ॥| | ॥॥॥ ॥॥ ॥॥॥॥ “|, रो] |

90/2 ॥/ // 4 है)

रह (758 5. ४22. : दम

०५५. # रॉ 20... पद

थ'

(//(

080... 00%

॥/ 0०५४2 ॥(॥ ॥॥ !4 ॥] 8! ॥' ्‌ हे

#॥... 0 /8मकमज्क>»० करता

के (00

| गम

| न्कमाप मो बा 2: | | || हि) है बुत,

| ॥] (2 ्िय - 2 हु 5 2 | दीलीलमनना से 4८ है, जज 2 |

/)7<4

५॥॥ ॥//. ॥00 गाए

थक छछदर की गढ़ी _ % आर, ...._ रहता है। इसी कारण सबका ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं होता।

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल अप कहाए एक वृहद्‌ विवर का वर्णन यहाँ पर किया जाता है। विवर के मध्य

में एक विशद्‌ कक्ष है उसके चारों ओर दो बरांडे ऊपर-नीचे बने

हैं| बरांडे वृत्ताकार हैं क्‍योंकि कक्ष का आकार भी वैसा ही है।.

ऊपर का बरांडा नीचे वाले से अधिक छोटा है | नीचे का बरांडा._ कक्ष की छत के समतल है और ऊपर वाला इससे कुछ ऊँचे पर.

. है मध्यवर्ती कक्ष गोल है और उसकी छत टीले के आस-पास की .. घरती के समतल है, अतएव पहाड़ी के ऊपरी भाग से बहुत नीचे

यह स्थित है। एक बरांडे में से दूसरे में आने-जाने के लिए पाँच .

गे बने हैं किन्तु सध्य वाले विशद कक्ष में उतरने के लिए केवल ऊपर के बरांडे में प्रवेश द्वार है। ऊपर वाले बरांडे से तीन सागे कक्ष की छत्त को गये हैं। इस प्रकार जब छद्घं दर को भीतर घुसना होता है तो बिल से प्रवेश कर नीचे वाले बरांडे में जाना होता है ओर वहाँ से ऊपर के बरांडे में होकर मध्यवर्ती कमरे में पहुँचना 'होता है। विवर से निकलने के लिए एक दूसरा मार्ग भी है; वह बीच के कमरे के नीचे होकर जाता है। वह मार्ग उस कमरे के मध्य में नीचे को कुछ दूर तक जाकर फिर ऊपर को घूम जाता है और तब बाहर के बड़े मार्ग में जा मिलता है। यह बड़ी विचित्र बात है कि बाहर से आने के जो भिन्न-भिन्न दिशाओं में स्थित या मागे हैं उनमें से कोई भी नीचे के बरांडे में ऐसे स्थान पर नहीं मिलता जहाँ ऊपर के बरांडे में जाने का मार्गे ठीक सामने पड़ता हो; अतएवं जब गन्धमुखी नीचे के बरांडे में पहुँच जाती है तो उसे दायें वा बायें हट कर ऊपर के बरांडे में जाने के लिए मार्ग मिलता है गन्धमुखी के कोमल रोमों की रगड़ से सभो सार्गो' को दीवालें और छत बिल्कुल चिकनी, कड़ी और पालिश की हुई जान पड़ती हैं। इस कारण अधिक बार्ग होने पर विवर के बैठ जाने का भय _

रद... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

नहीं रहता | इस प्रकार के मार्गों) और अनेक कमरों को प्रयोग:

में लाना सन्देहजनक जान पड़ता है। इस विषय में हम बहुत कम जानते हैं, इसीलिए इस विषय में भविष्य में भली श्रकार अनुसंधान करना चाहिये यह अनुमान किया जा सकता है कि जिसके अधि- कर में इतना. विशद ओर दुरूह भवन है वह सचमुच अजीब जन्तु

होगा; वह आनन्द॒पूर्वक मध्यवर्ती कमरे में विश्राम करता होगा.

ओरं जब कोई खटका होता होगा तो उसकी सूचना पाकर सुविधा- पूवक किसी मार्ग से निकल भागता होगा - छछ्कू दर अधिक समय तक विश्राम नहीं करती है। विशद्‌

कमरों के स्थान पर भवन के मार्गो' में ही उसके जीवन का अधिक ।' . अंश व्यतीत होता है नटों से इस बात का पता लगता है कि यह... प्रत्येक तीन घंटे परिश्रम करने के पश्चात्‌ नियमित रूप से दिन- -

. रात एक-सा विश्राम करती और दौड़-धूप लगाती है

.. ज्येष्ठ और आषादु मास में नर और मादाओं में प्रेम उत्पन्न होने लगता है। इन दिनों प्रेमासक्त होने के कारण इनकी प्रकृति और प्रचण्ड हो जाती है। जब कभी दो नर मित्र जाते हैं, उनमें है षारिन भड़क उठती है और तुमुल्ञ युद्ध मच जाता है। एक-दूसरे को नोचने-खसोटने लगते हैं। उस दशा में उनको अपने शरीर की. रक्षा का तनिक भी ध्यान नहीं रह जाता केवल युद्ध का ही ध्यान

दा रहता है। विवर में युद्ध से सन्तुष्ट होकर कभी-कभी वह ऊपर... भी आकर युद्ध करने लगते हैं. उस समय इनको पकड़ लेना बड़ा...

आसान होता है

.__, सचसुच छछून्दर का सम्पूर्ण जीवन क्रोधोन्माद-सय है। जब

कोई शिकार मिल जाता है तो उसे चंगुल से दवाकर नोच फाड़कर

भूखे सिंह की भाँति वह शीघ्रता से भक्षण कर जाती है पक 5 ......_ लोग कहते हैं कि जब कोई नया शिकार मिल जाता है तो उसे...

स्तनपोषी जन्तुश्ों के बिल जा शक

खाने के पूषे उसका ऊपरी. चमड़ा यह जतार डालती है, किन्तु हि

इसकी सत्यता पर विश्वास नहीं किया जा सकता जिस कार्य का. _ बारीक यन्त्रों से होना भी सरल नहीं है वह नाखूनों द्वारा आसानी...

... से किस प्रकार हो सकता है

छाए 5 कण आप की पउमान है. सकना भी कठिन है किवह्‌ कीड़े- ...] . मकोड़ों को किस प्रकार खाती है। पीठ को टेढ़ी. कर, सिर को...

रा ... दोनों कन्धों के बीच सिकोड़कर विकट रूप से शिकार को सुख में... क्‍ " ... ठूस लेती है। इसकी तुलना भयंकर खखवार पशुओं से ही हो... -:

सकती है।

इस प्रकार का कोई शक्तिशाली जन्तु होगा, जो ठोस प्रथ्वी में छेद कर सरलता से घुस जाने में समर्थ हो। जब इस प्रकार के दो नरों का सामना हो जाता है तो बड़ी विकट समस्या उपस्थित . हो जाती है। जो सवेदा जन्तुओं की ही खोज में रहते हैं. उनके

लिए तो यह युद्ध साधारण जान पड़ेगा किन्तु जो पशुओं की श्रकृति.... |

का पर्यवेक्षण करने में व्यस्त हैं. वे इसकी भयंकरता समभते हैं। . उनके सामने वही तुच्छुता भयंकरता में परिवर्तित हो जाती है। युद्ध का स्वरूप जानने के लिए उनके आकार का भी ध्यान रखना आवश्यक है वास्तव में दो छछून्दरों का युद्ध दो सिंहों के तुमुल युद्ध से अधिक भयंकर नहीं तो उसकी बराबरी का अवश्य है। क्‍यों .. कि इन्में सिंह से भी अधिक साहस होता है और आकार के विचार . से सिंह से अधिक शक्तिशाली द्वोती हैं

..... कल्पना कर लीजिये कि कोई छछ्यून्दर सिंह के आकार की है। . -॥ ... यह काल्पनिक जन्तु ऐसा भयंकर और विकट होगा जैसा संसार ने. | . _ कभी देखा होगा | यद्यपि यह पशु नितान्त अन्धया होगा और

शिकार पर दूर से दोड़कर आक्रमण कर सकने में असमर्थ होगा तथापि अनुमान से भी अधिक कम्म-पढु और उद्योगी होगा।

्द 'जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

शीघ्रता से इधर-उधर कूद फॉदकर अधिक स्थान घेरेगा और विद्युत्‌ के तुल्य वेग से शिकार पर आक्रमण कर झट से उसके शरीर के

. डकड़े कर डालेगा और भक्षण कर लेने के पश्चात्‌ भी अधिक मांस . की भूख रह ही जावेगी इस प्रकार का दुद्धंष जन्तु २० फुट लम्बे हल . सपे को बिना किसी प्रतिबन्ध के सरत्तया निगल जायेगा और ... उसकी भूख इतनी तीत्र होगी कि दिन भर में ऐसे २० या तीस सर्पों ४. को उद्रस्थ कर डाले। एक बार दाँत लगाकर पंजे की एक ही ||. चचोट से बैल जैसे बढ़े पशुओं को चीर फाड़ सकने में समर्थ हो |. सकेगा। यदि किसी भेड़ के ऊुण्ड में या पशुशात्रा में इसका .._ अवेश हुआ तो रक्त-पिपासा वा केवल अपनी इच्छा पूति के लिए .. उसका संहार कर डालेगा और सभी पशुओं को शीघ्रता से सहज मैं ही मार डालेगा | इस श्रकार के दो दुद्धंष जन्तुओं का यदि:

. कहीं सामना हो गया तब तो दुर्घेटना की भयंकरता देखते ही बनेगी। नर छछ्लून्दर तो इस छुद्र रूप में भी भीषण आक्रामक का सामना करते समय उन्पत्त हो जाता है और आक्रामक को ध्वंस

. करने का प्रचरड प्रयत्न करता है, इसमें उसके शरीर की चाहे जो ... दशा हो ज्ञाय उसके पराक्रम का परिचय इसी.से कुछ मिल जाता है।

रु -०- ८: “7 7+5:८++7- ००-२० ०चन्थय-+८ ८-८ <5२८०%:: शा: रथ-च “77 <+- कक -:--- 5-7 पतक-६- ८८-27: हरा आण:८-कत- कक

.. विवर के निर्माण में छछून्दर सचमुच अपने कौशल का परि- | . चय देती है। इसके मध्यवर्ती विशद- कमरे, भिन्न-भिन्न मार्ग, और कर . बरांडे बड़ी चतुराई से बने होते हैं अकेली होकर भी अपने भवन...

.. के लिए बहुत सा भिन्न-भिन्न स्थान घेर लेती है। अपना शिकार ._ ढूंढने के लिए वह अनेक दिशाओं में भिन्न-भिन्न गहराई की सुरंगें

_ चनाती चल्ली जाती हैं, कभी-कभी जैसे गरमी के मौसिम में उसे

. अधिक गहराई तक जाना पड़ता है, तब कहीं उसको कोई शिकार.

._. मिलता है। और कभी इतनी गहरी नाली या खाईं' खोदती है कि...

. उसकी पीठ दिखाई देती रहती है।

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल छः उसकी मांस पेशियों में असीम शक्ति भरी होती है, जिससे इतना छोटा शरीर होने पर भी अधिक परिश्रम कर पाती है | जिन्हें कभी कुआँ यम गड़्ढा खोदना पड़ा है. वह अनुमान कर सकते हैं. कि जमीन खोदकर मिट्टी फेंकने में कितने परिश्रम की आवश्यकता होती हे | कुदाल और फावड़े की सहायता से एक घनफुट जमीन खोदने पर इस परिश्रम का अनुमान किया जा सकता है। इसीसे . छछूनदर के पराक्रम का भी अनुसान किया जा सकता है | वह ठोस _ : प्रथ्वी को थोड़े ही समय में खोदकर तैयार कर लेती है। उसे इसमें जितना परिश्रम करना पड़ता है उतना ही परिश्रम एक मनुष्य को १२॥ फुट गहरे और २० फुट व्यास के गडढे के खोदने में करना पड़ेंगा ... बिल बनाकर रहने वाले सभी जानवरों में देखा जाता है कि बिल्न में से जब निकलते हैं तो उनके बालों में मिट्टी नहीं लगी होती | किन्तु इस जानवर में यह बात और भी विशेष ध्यान देने योग्य है . यह प्रायः नये बिल तैयार करने में व्यस्त रहती है, एक बार बने हुए

बिल से ही आने-जाने में संतोष नहीं करती। इसके शरीर की. 2३१५

रगड़ से विशद सार्गो' की दीवारें चिकनी हो जाती हैं, इस कारण इसके बालों में धून्न नहीं लगती, किन्तु आश्चय यह है कि छछून्दर सब तरह की मिट्टी में से साफ निकल आती है, उसकी खाल या बाल्न

मैले नहीं होते इसका मुख्य कारण उसके बालों की निराली बनावट.

है | छछून्‍्दर के बाल मखमली होते हैं, किसी एक ओर को मुड़े

नहीं होते, दायें-बायें सब ओर क्कक सकते हैं। सूक्ष्मद्शेक यन्त्र से...

... इसका कारण भी जान लिया गया है बाल का मूल भाग बिलकुल...

.. पतला होता है धीरे-धीरे यह मोटा होता जाता है और फिर पतला इस प्रकार उसका व्यास ओर से छोर तक कई बार घटढता-

....._ बढ़ता है। इसी कारण बालों को जिस ओर चाहें आसानी से घुमा .

३०... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं?

सकते है बालों के पतले अंशों में कोई र्ड नहीं होता और इस रचना-वैचित्र्य के कारण ही इनका रघ्ढ कालापन लिए भूरा ज्ञान पड़ता है। जब छछून्दर के बाल बिल्कुल स्वच्छ करूनॉये जाति - हैं तब उनका रज्ञ इन्द्रधनुष के रह्म का सा रिखाई पड़ता है, उसमें . जाली लिये ताम्रवर्ण प्रधान होता है। बालों के स्वच्छ रहने का ..._ एक और कारण उसकी भिल्लीस्थित पेशियों का शक्तिशाली होना भी _ है। जब वह बिल खोदने में व्यस्त रहती है तब मिट्टी और धूल से

... उसके बाल. भर जाते हैं | जब पेशियों के बल से बह बालों को ... भकमोर देती है तो वह स्वच्छ हो जाते हैं फिर भी उनके मूल्न में भिट्टी रह ही जाती है। इसको पानी में रखने से मिट्टी तह में बैठ जाती है और बाल खच्छ हो जाते हैं। साबुन से स्वच्छ

करने पर अत्यन्त सुन्दर और सुलायम ज्ञान पड़ते हैं, जिन.

पर मुग्ध होकर लोग वस्र बनवाने का विचार करते हैं, किन्तु यह

मूखंता है | पहले तो वह गमे होते हैं, उनके बने वस्ध केवल कड़ी सर्दी में पहने जा सकते हैं, दूसरे टिकाऊ नहीं होते, व्यय बहुत

अधिक हो जाता है ३००० या ४४०० रुपये में एक कोट बन सकता है, बालों में बहुत बुरी दुर्गेन्ध होती है जो दस वर्ष तक

हे सुखाने पर भी दूर नहीं होती दुगन्‍्ध के कारण शिकारी कुत्ते भी...

_गन्धमुखी से दूर रहते हैं।

बहुत से जानवर ऐसे है जो बिल्रों में रहते हैं किन्तु अपना परा-

का क्रम बाहर ही दिखा सकते हैं। बित्न में तो केवल मुर्दे की तरह पड़े-

.. पड़े विश्राम करते हैं, किन्तु गन्धमुखी बिल में ही सब प्रकार कस ._ कोतुक दिखाती है उसका वास्तविक जीवन प्रृथ्वी के अन्द्र ही . व्यतीत होता है | भूमि के अन्दर सब प्रकार के कार्य वह इतनी ' _तीत्रता से सम्पादन करती है, जितनी तीत्रता से मछलियाँ जल में

_सखण८९ 23:“+ सन ८20०५ जहर- खत <्सपटाान- कमरा ब्य स्टर)- पलक वध पथ पथ पत०: 727 5 उ्यक 2+--८ ->य्दपसव०

रीना “के पक कल तीज के ]म अहम ओह अनिल री रहे जप हर सच जल ५. फल थम कक है -मकटाट- लीन. हक कट की 2 अर 3 जम रत जी की आदर इज कह टीक रक- +मीज अली

कि, कैतनप नपोषी जन्तुओं के बिल... ३१

शीत 0 शोर की बनावट पर ध्यान देना चाहिये। इसके की वन्नाब की इसमें इतनी तीत्रता होती है। विशाल पंखे

| बलशाली अस्थियाँ, चौड़ी और झ्ुुकी हुई हथेली और

जान हा हैं, जो शिकार को सहज ही विध्वंस कर सकने में समथथे होते

इसके आगे के अद्भ अधिक शक्तिशाली होते हैं। गदन

की मांस-पेशी बहुत मजबूत होती है जहाँ लिगामेंट (अस्थायी

अस्थि) कड़ा होकर अम्धि रूप में परिवर्तित हो ज्ञाता है। नाक में

. एक और सहायक हड्डी लगी होती है, जो उसके अन्त तक चत्नी

: चीरने-फाड़्ने में. बहुत तेजी दिखलाती है मृत्यु के पश्चात्‌ ही उसकी झुक जाती है, मानों रबड का टुकड़ा जुड़ा हुआ हो थोड़ी ही देर _ पश्चात्‌ फिर वह बहुत कड़ी हो जाती है। म्॒त्यु के पश्चात्‌ उसके का अनुमान नहीं किया जा सकता आगे के पछ्चों में बल लाने

छछून्दर के शरीर में बहुत सी ऐसी विचित्र बातें हैँ जो अन्य किसी भी जन्तु में नहीं पायी ज्ञातीं

लोमड़ी

तेज्ञ पंजे सचमुच किसी मशीन के पुर्जे के सहश काम करने वाले .

जाती है। इससे थूथनों में अपूरव बल जाता है जो शिकार को.

.._ शूथन बिलकुल नम हो जाती है और कुकाने पर आसानी से पीछे

अदड्ड ठीक जीवित अवस्था की भाँति किसी प्रकार भी रखे ज्ञा सकते . हैं इस कारण इसके सतत शरीर को देखकर इसकी ठीक-ठीक आकृति

....._ ज़िस प्रकार छछून्दर घरों में बहुतायत से पायी जाती है उसी ... ऑति गाँव में बाहर मैदान में ओर जज्ञलों में लोमड़ी अधिक

का |

के लिए हँसिया के आकार की एक अस्थि लगी होती है इस प्रकार -

. कभी-कभी दिन को भी इधर से उधर छू छू करे झो भी

श्र

को देखते हैं घर से बाहर सबेरे साँक जब घूमने निं*लैत कया खेतों को देखने जाते हैं तो खे खे करती हुई खेखरि मिल जाती है।

छू ओर खे खे के कारण इनका छुछून्‍्दर और खेखरि नाम बिल्कुल उपयुक्त है| हमारे देनिक ग्रृहस्थ जीवन से इनका बड़ा साथ है। दोनों जानवर लोगों में इतने प्रसिद्ध है कि यह एक कहावत सी बन

गई है कि (घर में छछून्दर और बन में खेखरि' | छछून्दर की भाँति...

लोमड़ी (खेखरि) भी बिल के अन्दर ही रहती है। हैं खेखरिं की कथा नहीं मालूम है उन्हें इसका विवर देखकर

बड़ा आश्चय होगा | छछूनन्‍्दर के आगे के दोनों पैर जमीन खोदने

के लिए बने ही हैं; उसके पंजे गड॒ढा खोदने में बड़े तेज होते हैं. |.

: उसकी हथेली खुरपे की भाँति काम करती है; मांस-पेशियों में सी... अपूर्व बल होता है। उसके शारीरिक अवयव बिल्न खोदने में विशेष

काम आते हैं; थोड़ी बहुत चलने फिरने में भी सहायता पहुँचाते हैं, किन्तु ल्ोमड़ी के पैर तीत्र गति के ही लिए बने हैं; इसीलिए वह बहुत तेज दौड़ सकती है। जैसे छछून्दर जमीन खोदने की शक्ति से

. चलन फिर भी सकती है वैसे ही लोमड़ी के दोड़ धूप में अदभुत शक्तिशाली पैरों को किसी प्रकार खोदने का भी काम करना पड़ता

हि]

प्रवीय शीत प्रदेशों में यह बिल तैयार करने में तेज होती है।

. मौसिस की कठिनाई से बचने के (लए बिल बहुत गहरा बनाना |... पड़ता है और एक स्थान में अलग-अलग २४, ३० लोमडियों के. बिल दिखलाई पड़ते है यदि इनके एक भींटे को खोदा जाय तो .... विचित्र बात दिखाई पड़ेगी। जमीन के अन्दर पचीस सुरंगें मिलेंगी

.. जिनमें प्रत्येक सर्वाज्ञपू्ं होंगी। उसके अन्त में. एक बढ़ा सा कमरा _

तनपीषी ज॑न्तुओं के बिल .. ३३

होगा ऐसे कमरों में भिन्न-भिन्न अनेक मारगं बने होते है और विश्राम करने का स्थान उनके निम्न भाग में होता है। कमरा काफी बड़ा होता है ओर वहाँ से किसी खटके से लोमड़ी का जल्दी से भाग निकलना बड़ा आसान होता है। यहाँ से एक सुरद्ग दूसरे कमरे तक जाती है जहाँ मादा बच्चे देती है ओर उनका पालन- पोषण होता है। यह कमरा बहुत बड़ा नहीं होता अब पता चला है कि ध्रवीय लोमड़ियों का विवर छछून्दर के विवर से बिलकुल . मिलता-जुलता है। दोनों के निवासस्थान ढुग होते है जिनके मध्य के बड़े कमरे से बहुत से मार्ग बाहर की आर जाते हैँ ओर बच्चों की रक्षा के लिए उसमें छोटा सा सुरक्षित स्थान होता है। पॉँच-पॉँच “छः बच्चों को यहाँ आश्रय मित्ता है। बाहर वाले कमरों में ओर इसमें खुलने वाली कई एक सुरज्ञों में बहुत सा भोजन का भण्डार रहता है; यहाँ पर प्रायः खरगोश, बतक जैसे छोटे जानबरों की हड्डियाँ पड़ी रहती हैं।... .. लोभमड़ी बड़ी चाज्ञाक होती है। भव प्रदेश में यात्रा करने वालों ने प्राय: इसको मूर्ख बतंलाया है; क्योंकि यह बड़ी आसानी

... से पकड़ी जा सकती थी | किसी साधारण जाल में भी यह फँस

जाती थी थोड़े ही समय में शिकारियों ने दस-दस पन्द्रह-पन्द्रह . ल्ोगड़ियों का शिकार किया था। यह उनको देखकर अपनी जान बचाने का यत्न कर सकती थी; किन्तु अब इनको पकड़ना कठिन हो गया है अब के यात्रियों को इसके शिकार की कठिनाई भली- भाँति ज्ञात है उनका कहना है कि इनमें बड़ी चालाकी होती है ओर इनका फनन्‍्दे में फँसना बिल्कुल असम्भव सा है | बात यह है. कि इसके सुन्दर बालों के लोभ से यूरोप से आ-आ कर शिकारियों ने इनका पीछा करना प्रारम्भ कर दिया है। शिकार करते समय

जो पकड़ ली जाती हैं उनका ।तो अन्त ही हो जाता; किन्तु जो

हे

: जन्तु बिल कैसे बनाते हैं?

चेत जातीं धीरे-धीरे बहुत सी... ओर इनको शिकारियों के जाल से

. बच निकलतीं वह सदा के लिए लोमडि्ियाँ बचकर निकल भागी

दा

च्य्यः-

जब ध््ज््् स्च््जः 55-८८ चब्स है “अल जय? शअ।/।9 >> सच ६. नच्स्स्ः

बज

कि 5

्झञझ ध््््ट न्न््््््

त॥॥॥0एश/

| के लिये छुट्टी मिल गई अब इनमें से प्रत्येक को मन में.

. हीता है और उसे खाने से मुँह में छाले पड़ जाते हैं|.

ईि के पूल, | ७6 [७5 38४ छः ॥< दे 0 हि मद्र्फ़ [7 /पऐी छः 4 कुन्ज- र्टढ नन्नन |+#| ंट्रम हि एक हि।। 5 50 तल 25 ६४ किक हक हि प्ि9 क्िकंस ईरि दि... फिंह छि 77 हि 40० /८ छठ &< कंस >ट (9: है हि कपिल एक क+- टि प्ि/ंद + ं+ कि 2 (ट है .. छि | ॥/ 6 गए एफ . | 82 | अछि डिक दि पिता 9 # टिह ७ए: ठि/ए 2?( पट ॥० कर [डर (7 कं #/52.... | कि पंट ७० दि 2 ८०५. हि मर > 6, हि. (- 6 - ,. हर 9७ 5 कि मत: पैर दि ही /हत हि है .५ कि च््रिर्क़क्षाणए पट्टी

पयशाताफ साला जहूछ सुडावन्ताथहहाातकन सतत कनकलव सूप <च सन वहन तरह लारा लपककन नल स5 बेड नल बरन++तस&>-८नललप कमल बनवा को टक-कल कस “पक

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल ३५

ध्र॒व प्रदेश की लोमड़ी का चमड़ा साधारण अबस्था में भी अच्छा होता है; किन्तु जब, वह जाड़े में स्वच्छ हो जाता है ओर

: बिल्कुल श्वेत रज्न का निकलता है तो इसका मूल्य बहुत अधिक . "होता है। ऐसे चमड़े का बना चोगा केवल लाखों में ही मोल लिया...

जा सकता है इतना ही नहीं इस जन्तु के रोयें भी बहुमूल्य होते हैं। वृद्धा लोमड़ी के महीन और सुन्दर रोयें अच्छी दशा में अपने

. कई गुने तोल के सोने के मूल्य के होते हैं

दूसरे देशों की लोमड़ी जहाँ तक होता है बिल खोदने से जी चुराती है और बनी बनाई भींटे को ह्ढृती है। किसी खरगोश के

. बिल को यह प्राय; अपना लेती है। यद्यपि लोमड़ी खरगोश से.

बहुत बड़ी होती है तथापि उस छोटे बिज्न को ही अधिक चौड़ा कर

अपना बिल बना लेती है, जिसमें अधिक परिश्रम से जमीन खोदनी . पड़े | जैसे बमें द्वारा लकड़ी में एक छोटे छेद के स्थान पर चोड़ा

छेद बना लेना सुगम होता है उसी -प्रकार ज्ञोमड़ी को भी छोटे बिल को चोड़ा कर लेना सरल होता है। जब कभी किसी अवसर

.. पर अभाग्य से ऐसा बिल .मिल् सका तो उसे स्वयं पूरा बिल ... खोदना पड़ता है | वहाँ पर वह अन्य बहुत से 'जन्तुओं की भाँति

दिन में सोया करती है और रात को बाहर निकल पड़ती है। यहीं. पर मादा बच्चे देती है। कभी-कभी सन्ध्या को सम्पूर्णो 'कुटुम्ब

का .. बिल के आस-पास घूमता दिखायी पडता है; बच्चे बिल से कभी . ... दूर नहीं जाते।

खब्यद्र-मषक

भारतीय मैदानी चूहा या छछून्दर-चूहा बिल खोदकर छछून्‍्दर क्‍ की भाँति ढूहे बना लेता है इसलिये उसे छछून्दर-मृषक नाम दिया.

ही जा सकता है इसके शरीर पर लम्बे बाल होते हैं. तथा पीठ पर

इ्द जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

कड्कड़ाते बाल होते हैं इसके शरीर का रह्ग गहरे घूसरपन युक्त

भूरा तथा हल्के पीले रह्ष के छींटे युक्त होता है। अधोतल कुच

धूमित्न होता है। यह भारत के सारे भागों में पाया जाता है।

आंद्र' उबर स्थलों में अधिक रहता है भारतीय छछ्ून्द्र-मूृषक श्राय: खेतों, फुलवाड़ियों और चरागाहों

में रहता है किन्तु पतमड़ वाले या सदाबहार वृक्ष के जद्धलों या घल्खर भूमि में भी रहता है | खोदी हुई मिट्टी के नए ढूहे से इसकी -

उपस्थिति ज्ञात होती है बिल खोदकर बाहर फेंकने से हृहा बना...

होता है बिल के द्वार से एक गोल कक्ष तक मार्ग गया होता है। कुछ दो फुट या इससे भी अधिक गहराई में होता है उसकी सुरह्ष २० गज या २० फुट या इससे कम ही लम्बी हो सकती है। बिल के स्थान पर ही उसकी लम्बाई निभर करती है। खेतों के मेड़ के... नीचे बना बिल छोटा ही होता है। खुले मैदान में बह अधिक

विस्तृत होतो है। जब वह अधिक विस्तृत होता है तो सुरक्ष के माय कि

में स्थान-स्थान पर कई जगह धरातल पर मिट्टी के ढृहे मिल सकते हैं किन्तु ऐसे मध्यवर्ती ढृहों तक कोई बाह्य मार्ग नहीं दिखाई पड़ सकता उनके अस्थायी द्वार बन्द कर दिए गए होते हैं ओर सुरक्ष अबाधघ रूप से आगे बढ़ी होती है छोटे गोल कक्ष सुरक्ष के मध्य या पाश्वं में बने होते हैं, जो शयन कक्ष से विशेष दूर नहीं होते। ये खाद्य भण्डार होते हैं। फसल पैदा होने के समय वे अन्न के दानों से भरं लिए जाते हैं। इन संचित अन्न-भरण्डारों को श्राप्त करने के लिए धनहीन लोग बिलों को खोद डालते हैं। शयन कक्ष... से कई मार्ग बाहर निकल भागने के होते हैं। उनके बाहरी द्वार प्रायः शिथिल मिट्टी से बन्द किए रहते हैं किन्तु भागने की आव- श्यकता होने पर छछून्दर-मूषक उस शिथिल मिट्टी को ढकेलकर : द्वार खुला बना लेता है। क्‍

स्तनपीषी जन्तुओं के बिल. ३७

. प्रत्येक बिवर में प्रायः एक ही छछून्‍्दर-मूषक रहता है या उसमें मादा और उसके शिशु रहते हैं। मादा अपने जनन या शिशु-कक्ष में पुआल तथा पत्तियाँ बिछा लेती है। उसके शिशु पूर्ण अंधे ही उत्पन्न होते हैं जिनकी संख्या १०, १२ तक हो सकती है। उनके शरीर नग्न भी होते हैं परन्तु कुछ समय मैं वे बाल और नेन्नों की . थ्योति से ही सम्पन्न नहीं होते, प्रत्युत स्वयं नए विवर बनाकर .. उसका स्वामी होने की क्षमता भी समय पर प्राप्त कर लेते हैं। रोस तथा नेत्र की ज्योति तो एक मास में ही प्राप्त हो जाती है किन्तु पूर्ण . ड़ होने में उन्हें तीन मास लगते हैं उस समय वे स्वयं संतान उत्पन्न कर सकते हैं गा 8 भ्रूकलनद॒क ..._ भूकलन्दक या भूवासिनी गिल्हरी की अफ्रिकीय तथा अमै- 'रिकीय जातियाँ होदी हैं। अफ्रिकीय भूबासिनी गिलहरी वृक्षचारी अफ्रिकीय गिलहरियों समान ही होती है किन्तु उसके बाल छोटे ओर कड़कड़ाते होते हैं | पूंछ की लम्बाई लगभग उतनी होती है जितनी उसके शरीर की लम्बाई होती है | उसके दोनों ओर बाल व्यवस्थित होते हैं यह भूमि पर ही विवर बनाकर रहती है यह गहरे विवर बनाती है | . अमेरिकीय शुद्ध भूकलन्दक की दो द्जेन जातियाँ पाई जाती हैं। ये हुडसन की खाड़ो और मिसीसिपी से लेकर अलास्का, मेक्सिको... तथा पैसिफिक तट आदि अमैरिका के समस्त पश्चिमी भूखंडों में... पाई जाती है। उनका शरीर भारी होता है। पैर छोटे होते है। पूंछ ..._ की लम्बाई सारे शरीर की लम्बाई का -तृतीयांश या चतुथोंश होती . है। ये मैदानों और खेतों में पाई जाती हैं। बिल खोदकर उसमें

इ्८ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

गों में उनमें शीतकालीन दीघ निद्रा की वृत्ति नहीं होती उत्तरी . भागों में छः मास से भी अधिक दीघकालीन निद्रा में भ्रस्त होती हैं बे बृुत्ष पर नहीं चढ़ सकतीं वृक्षहीन मैदानों में ही रहती है और प्रबल चडुलों से बिल खोद लेती हैं। ्रीष्म काल में शरीर में संचित चर्बी के बल् पर ही इनकी शीतकालीन दीघनिद्रा का काब निराहार व्यतीत हो जाता है।

श्वेत रीछ

हम विचित्र रूप के आवासों में कहीं शीशमहल की बात सुनते

हैं तो कहीं संगमरमर रचित ताजमहल का प्रत्यक्ष उदाहरण देखते हैं। भिन्न-भिन्न पदार्थों से निर्मित अनेक भवनों की चर्चा हंमें विशेष आश्चये में नहीं डाल सकती, परन्तु यदि हिम-महल या श्वेत महत्व... की बात कही जाय तो हमें अवश्य विस्मय का अवसर मिल सकता. | है | ऐसे भवन की दीवालें भी बफे की होती हैं। छत भी बफे की... होती है। वायु के प्रवेश के लिए खिड़की का भी प्रबंध होता है। ऐसा प्रबन्ध भर वीय प्रदेशों का बासी श्वेत रीछ या भ्र वीय रीड करता . है। शीतकाल के विषम वातावरण से रक्षा पाने के लिए शीतकालीन दीघ निद्रा में पड़े रहने की व्यवस्था करनी पड़ती है, परन्तु भर वीय रीछ बफे की गुफा या विवर सा बनाकर ही शीत से रक्षा पाता है। . प्रवीय रीछ दीघ आकार का श्वेत जन्तु है। इसके शरीरकी

: पूरी लम्बाई ७-६ फुट तक होती है जिसमें ३३--४३ इञ्च तकृपूछ

.._ ही लम्बी होती है इसके शरीर का भार मन से लेकर २० मन : तक होता है यह समुद्री जन्तुओं, सील से लेकर मछली तक का...

मिट्टी का बिवर होकर बफे का होता है इस कारण इसे विवर- का 'बासी जन्तुओं की गिनती में लिया जा सकता है क्‍

सतनपोषी जअंन्तंओं के बिल... ३६

हिम के अखंड राज्य में रक्षा के साधन हो सकते हैं, परन्तु उसके सूमने से प्राणी विनष्ट हो सकता है। जहाँ चारों ओर घोर शीत का साम्राज्य हो, बफीज्ञी आँधी बह रही है, चारों ओर .- हिम के फाहे गिर-गिरकर सारी दृश्य सृष्टि को अपने काल-पाश

में अभिभत कर रहे हों, वहाँ हिस के वातावरण में रहने वाला .. व्यक्ति अपनी रक्तों का एक अद्भुत साधन .निकाल सकता है। . उसको ऐसी किसी विकट सहन शक्ति की आवश्यकता नहीं डिसमें हिम के निम्न तांपमान से प्रत्यक्ष होड़ लेना सम्भव हो। वह तो

कुछ युक्ति का साहस लेकर ऐसे संकट का शमन ही करता है।

. अपनी युक्तिका बल पाकर वह हिम के प्रत्येक फाहे या खंड का ,

स्वागत करता है। उसकी श्वेत. काल भुंजा से ध्वस्त होने का भंय हृदय में नहीं उठता

हिम के चारों ओर साम्राज्य स्थापित होने के अवसर पर

. आपकद ग्रस्त व्यक्ति केबल किसी कगारे, वृक्ष या बड़े पत्थर की आड़

में एक गडढा खोद लेता है जिसमें वह लेट सके तथा बफीली

आँधी के प्रहार से बच सके। अपने वस्त्र पहने हुए वह इतनी . अधिक गहराई में भमि में आश्रय लेता है. जितनी गहराई तक वह

गड॒ढा बना सकता है इसके बाद. वह बर्फ गरने देता है। यह शयनकक्ष शीघ्र ही अपना प्रभाव दिखाने लगता है

.. ज़िस पदार्थ में ऐसे खोह बने होते हैं, वे पदार्थ ताप के बड़े

ही दुर्बेल चालक होते हैं, अतएव उसमें आश्रय लेने वाले यात्री. के शरीर से निकले श्वास का ताप आँधी द्वारा बहा नहीं लिया

जाता, बल्कि यात्री के चारों ओर ही रक्तित रहता है अतएव उससे यात्री के अंगों को ताप तथा संवेदना पुन: प्राप्त होती है। शरीर

जैसे-जैसे उष्ण होता है, बह गडढा भी धीरे-धीरे बड़ा होता जाता

है इससे हिम के अन्दर पड़ा यात्री बफ़े में अधिक .गहरे घँसता

४० ..._- जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

है | ऊपर से शीघ्र गिरती हुई बफे आच्छादित होती जाती है। इस तरह यात्री की उपस्थिति के चिन्ह मिटते जाते हैं ऐसी भयानक स्थिति में भी यात्री के दम घुटने का भय नहीं होता क्योंकि उसके श्वास की गर्मी से एक ऊध्वेचर्ती मार्ग सदा ही खुला रहता है। अतएवं बफे की एक सपाट मोटी तह बनने के क्‍ _ स्थान पर एक गोल छिद्र के चारों ओर भप्न रहती है। श्वास के निकलने के इस गोल द्वार के चारों ओर चमकते हिम 'के फाहे एकत्रित रहते हैं। इस रूप में हिम राशि के अन्दर बने कक्ष में घोर शीत के स्थान पर लगभग घोर उष्णता रहती है और यात्री उसमें . रक्षित रह जाता है | वहाँ यात्री इतनी उष्णता में ही विश्राम कर . सकता है जितना शीतकाल के सुरक्षित तथा कृत्रिम उष्णता से सज्जित भवन में विश्राम ऋरता है। आर | बफ की घनी राशि में प्राणियों के रक्षित रह जाने के दूसरे भी... उदाहरण पाए जा सकते है। शीत देशों में पहाड़ी स्थानों में शीत- काल में कहीं भेड़ों का फुएड अकस्मात बर्फ की आँधी के प्रकोप में पड़ जाता है गड़रिया कहीं सुरक्षित स्थान में रहने का उद्योग

अप करने के कारण भेड़ों के कुण्ड से दूर रह जाता है। उधर भेड़ें शीत

के उत्पात से कहीं कगारे या चट्टानों की आड़ में एक से एक सटकर खड़ी होने का उद्योग करती हैं किन्तु बफे की आँधी उन पर का . दृष्टि नहीं करती अन्य वस्तुओं के साथ वे भी विशाल हिमराशि .._ के अंतराल में दब जाती हैं। केवल उनकी श्वास क्रिया से ऊपरी ... वह में छिद्र हो जाता है। किन्तु उतना ही परिवर्तन उनकी . आण-रक्षा करने का मार्ग खोलता है। है हु हु हल जब तूफान का बेग कुछ कम होने पर चरवाहा अपने साथ है .. कुशल कुत्तों को लेकर भेड़ों के कुएड की खोज में जाता है तो उसकी... .. दृष्टि अनेक पूर्वपरिचित स्थानों में से किसी को भी. नहीं देख

| | रू पु है|

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल ...

पाती सारे ऊँचे-नीचे स्थान, खड्ड, कगारे, पर्वेत-झंग आदि हिम- आच्छादित होने के एक रूप हो गए होते हैं। इस भीषण स्थिति में सहयोगी कुत्ते ही सहायक होते हैं वे दुर्गम स्थलों में भी जाकर सूघ-सू घकर अखंड हिमतल पर कहीं छिंद्र होने का पता लगा

लेते हैं जो नीचे दबी भेड़ों के श्वास लेने के कारण ऊपर तक बना

रहता है | उतने ही संकेत से कुत्ते भोंकने लगते हैं | गड़रिया इस संकेत को समझ जाता है ओर लग से हिमराशि तोड़ता है। भेड़ों का दुल्ल इस प्रकार पुन: प्राप्त हो जाता है के

हिम के प्रकोप के समय भेड़ों का दत्त स्वतः बे के अन्दर 'सुरज्ञ नहीं बनाता। वह बर्फ की समाधि में जीवन का एक बड़ा भाग व्यत्तीत करना नहीं चाहता उनका दल्ल तो हिमतले के नीचे देव

: ओग से ही दब जाता है थे बफे के तृफान सें भयग्रस्त होकर कहीं

किसी वस्तु की आड़ में अपने भेड़िया-धसान का रूप प्रदर्शित सा करने के लिए जुटे पड़े भर रहते हैं, परन्तु उनके सामृहिक श्वास लेने की गर्मी से ही बफे की तह में ऊपरी तल्न तक वायु का मागें बन गया होता है श्वास लेने की व्यवस्था तो इस तरह हो जाती है परन्तु भोजन की व्यवस्था नहीं होती बेचारी भखी भेड़े' एक दूसरे की पीठ से ऊन ही नोच-नोचकर खाने लगती हैं। यदि

अधिक समय तक उनका पता लग सके तो एक दूसरे की पीठ से सब ऊन नोच खाने के पश्चात्‌ वे भूखों मर जाती हैं।.्ः . किन्तु भ्र वीय भालू ऐसी ही परिस्थिति में सवेच्छा से अपने को रखने के लिये दिसम्बर के महीने में किसी चट्टान के बगल में... बैठता है और खुरच-खुरचकर गड्ढा बना लेता है। ऊपर से अफे गिरनी प्रारम्भ होती है | धीरे-धीरे एक कक्ष बन जाता है।उस्ती में मादा भालू का शीतकाज्न कट जाता है। इसी विचित्र कक्ष में...

उसकी सन्तान भी उसन्न होती है ओर शिशुओं का. पोषण भी...

धर. जन्तु बिल॑ कैसे बनाते हैं: !

: होता है। मादा अपने स्तन से उन शिशुओं को दूध पिला-पिलाकर ' सारे शीत ऋतु भर जीवित रखती है। मार्चे तक इस समाधि में ही रीछ माता और सन्‍्तानों का निवास रहता है | बाहर से खाद्य नहीं मित्रता

मार्च में जब बफे पिघलने लगती है, मादा रीछ के कक्ष की दीवालें भी हिल उठती हैं उसका हिम-कक्ष केवल चार मासों की ही आयु रखता है | उसके टूटने पर मादा शिशुओं के '.साथ ... बाहर निकल आती है। उस समय तक शिशुओं का आकार.

खरगोश के बराबर ही हुआ रहता है। इस हिम-समाधि में रहते समय शिकुओं के उत्पन्न होने पर इस परिवार के सदस्यों के शरीर की गर्मी तथा श्वास की उष्ण॒ता के कारण हिम-कक्ष का विस्तार बढ़ता

है और उनके लिए स्थान की नन्‍्यूनता नहीं रह जाती | भेड़ के.

. ऋ्ुण्डों की भाँति ध्र बीय रीछु का पता भी हिमतल के ऊपर छोटे छिद्र से लग सकता है | उस छिद्र के निकट बफे के फाहे उठते रहने से स्थान ओर भी स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। हिस-कक्ष की सुविधा सभी ध्रवीय रीछ नहीं प्राप्त करते .. नर भ्र वीय रीछ तो एकाकी भ्रमण करता ही समय व्यतीत कर लेता है, अतएब उसे हिमतल के नीचे ऐसी कॉठरी में आश्रय प्राप्त

. करने की आवश्यकता नहीं होती परन्तु सादा के सामने दूसरा

. प्रश्न रहता है। उसे शिशु जनन करना होता है। अतएवं इस

*.._- विशेष व्यवस्था का आश्रय लेती है | गर्भधारण करने वाली मादाएँ.

0 कक: हे की भाँति ऊपर ही घूम-फिर कर शीतकाल व्यतीत कर

शीतकालीन दीघ निद्रा की यह आंशिक वृत्ति ध्रव क्षेत्र के श्वेत

भालुओं, योरप के भूरे भालुओं तथा अमेरिका के काले भालुओं में

हा पाई जाती -है। शीतकालीन विश्रामकक्ष में श्रविष्ट होंने के पूर्व वे

-२००२७०८८- सकल: लत तप सेप बन ;9 <लडप मर

तसइकहाजहड-डरोललमर३८०सललर

|

तपस्या सिकलाएलोवंसासासपसाासथालथआावमरकर्थाधस्ावाेकमपलेध्चपलवज सता री चअ पीता 2 तह वसा का से कपलीक_र

स्तनपोंषी जन्तुओं के बिल

अससससममा>-+5ह

ज्स्न्य्स््स्न्न्स्न्प्स्न ््य्््््ल्जज..........._--" 5 मलिक कल 5 है & क.यय प्>अमकककपिनतननननन>--4ग आय कक 0००० मी भा ९०272 की | हु ख्क्न अ्फ्ि््््िसस८ नस -प्स्सस्त वन्य | 3 सै रे टच ््ज्् ७--जमक+क मु -+-ामुरिन#»+ पक. स्‍न्‍3०+७+ मनन कप फ/0 +0०००००-०००-२ा नल वनमकाार न्न्‍बक, हम फरस34कारप्काप शो 4 रे 3 35 शा

-०- -_. _. * अमामक्राधक हि दर

्टि नि “(09 कह 35 लि. ५: ध्ज्ू एक हप्ट ली छठ ४४ (हर प्र कि ! ;- बीए हि टि| 7. ही [१३ दि हि +ः छः [5 कि.

४४... जनन्‍्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

हो कर सब से पुष्टिकर खाद्य ग्रहण करते हैं। फलत: उनके शरीर में प्रचुर बसा संचित हो जाती है |

तीन मास के एकान्त जीवन के समय प्रवीय मादा सालू को कहीं से भी आहार प्राप्त नहीं होता यह अपने शरोर में संचित चर्बी के भन्‍्डार पर ही जीवन-कार्य के लिए अवलंबित रहती है।

: थही नहीं, गर्भ के अन्दर शिशुओं को भी पोषित कर जन्म के बाद

उन्हें दूध भी पिलाना पड़ता है। यह बात अवश्य है कि यथेष्ट आहार प्राप्त करने के लिए वे शिशु आश्चयजनक छोटे आकार के ही होते हैं। तीन मास तक एक ग्रास आहार भी खाए बिना ही

.. उनको दूध पिला कर पोषण कर सकना और अपना शरीर भी .. रक्षित रखना मादा रीछ को प्रति शीत ऋतु में व्यवहाये सिद्ध

करना पड़ता है।

पूर्वी तथा पश्चिमी दोनों ही गोलाड़ों के रीछों में एक विशेष बात देखी जाती है। एक कठोर ठोस पदार्थ द्वारा उनकी आँत का

मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। यह क्रिया इस जन्तु को जीवित रखने

क्‍ में सहायक होती है | स्केडिनेबिया में तो नर और मादा दोनों ही

पाँच मास तक गुप्त विश्रामगृह में पढ़े रहते हैं। वहाँ से बाहर निकलने के पूर्व कदाचित ही आंत्र-अवरोध टूटता हो। यदि कभी आंत्र-अवरोध टूट जाने का अवसर होता है तो भालू बड़ा ऋश- काय हो जाता है।

.... श्वेतपुच्छ काप्ट-मषक कोटंरवासी या श्वेतपुच्छ काष्ठ-मूषक ६-७ इश्ब लम्बा होता

पड है इसकी पंछ कुछ लम्बी होती है। इसकी पंछ का तीन चोथाई

._ भाग भूरा होता है तथा शेष भाग लम्बे श्वेत बालोंयुक्त होता है

... शरीर का कोमल रोम ऊपरी तल पर धूसर भूरा तथा अधोतल पर

५. उकानयाथा+वनभकालपासाटउममाल पमपादमफालमनेवविदिनलाएललियादाकपलापकाा तन 7. बटाल 5

स्तनपोषी जन्‍्तुओों के बिल .. धुए

श्वेत होता है यह दक्षिणी, मध्य तथा पूर्वी भारत के पतझड़ तथा

कीटरवासी मृषक 0 हे. हे सदांबहार के जंगलों में रहता है। कहीं पर विरल वृक्षों के जंगल तथा नंगी पहाड़ियों पर भी रहता है जंगलों में रहने पर यह बृक्ष- चारी ही होता है। यह किसी वृक्ष के कोटर या खोखल्ले में ही प्राय:

अपना घोंसला बनाता है। मेदानों या खुले स्थानों में चट्टानों तथा भाड़ियों के नीचे ही गृह बनाता है ॥॒

अमेरिकीय मेदानी चूहा | अन्य जन्‍्तु भी ऐसे होते हैं जो बर्फ के अन्दर सुरंग बना ते हैं।. रे

धर जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

किन्तु उनका प्रयोजन बफीली सुरंग में .रहना नहीं होता, बल्कि आहार ढढ़ना होता है | उत्तरी अमेरिका के कुछ मैदानी चूहे ऐसे जन्तु हैं उनमें बफे के अन्दर लम्बी सुरंग बना कर आहार ढंढ़ने की वृत्ति पाई जाती है। इस कार्य में इतने कुशल होते है कि शीत- काल में वे प्रायः अधिक पुष्ट हो जाते हैं। उन दिलों ब्रृक्तों की सभी हरी पत्तियाँ गिर चुकी होती है, प्रत्येक बनरपति बफे की घनी चादर

से ढक गई होती है। प्रकृति द्वारा भूखों मारने का सब कुछ प्रबन्ध.

दिखाई पड़ता है, परन्तु मैदानी चहे अपने कोशल से बफ के नीचे से आहार प्राप्त कर अपनी जीवन-रक्षा करते है

स्ुद्रतम आर्माडिलो (फेयरी आर्माडिलो या पिचिसियागो)

पिचिसियागो या फेयरी आमाडिलो सत्र -से छोटे आकार का आमोडिलो है। इसके सिर ओर घड़ की लम्बाई इच्ध और पंंछ - की लम्बाई डेढ़ इश्च होती है यह छछ्ून्दर की तरह पूर्णतः भूगर्भे- . वासी होता है। आँख और कान बहुत छोटे होते है और बालों से छिपे होते ह। पैर छोटे होते है, परन्तु पंजे बड़े और बलिष्ठ होते

हैं जिनसे खोदने का काये लिया जा सकता है। इसका शरीर-रक्षक कबच अस्थि-फलकों द्वारा बना होता है जिसमें लगभग बीस आड़ी पद्टियाँ होती है अन्त में पुच्छीय आधार के खड़ा अस्थीय फल्षक होता है जो कटि प्रदेश को एक खंडित रूप प्रदान करता है। इस

कटिप्रदेशीय अस्थिफल्षक में एक (छिद्र से पूंछ बाहर की ओर

निकली होती है हड्डियों के फल्नक के छोरों पर नर्म रेशमी बाल 'डगे होते हैं जुद्रतम अर्मांडिलो या पिचिसियागो के शरीर का आकार ही

. उसे बिलस्थ जीवनक्रम के सर्वथा योग्य प्रकट करता है। इसका

हे . कछ्लाल भी.इस कार्य के योग्य होता है। अगले पैर की हड्डियाँ छोटी

ञ्क पु रू हर कक पु सर नक कि 0 83.23, 3+ 53032:

दर विमान की नामक हि

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल... ४8७.

मोटी और मेहराबदार होती हैं, जो उसकी हृढ़ मांसल शक्ति को... प्रकट करती हैं। पिछले पैर की हृड्डियाँ भी उसके शरीर के अनुपात

" #० ६5 ६७४ है ््् णककड नर हर ( (टू मे पा पा सा « ७३४ जो है का, (८ 2.6 444 * आय हे हि कं ०६ ५४ - >3222₹ हे ( [॥ ५33 पे ग्‌ १६४३१) *॥,.. /7 0॥// ,0५॥

लुद्गरतम आर्माडिलों (पिचिसियागो) तथा उसका बिल.

में विशेष दृढ़ होती हैं। अगले पंजे अत्यधिक बढ़े, हथेली की

आक्षति के होते हैं उनमें पाँच दृढ़, वक्रित तथा दबे हुए चज्लुल ऐसे ...]

रूप के होते हें जो खोदने के लिए आश्चरयेजनक उपकरण बनें। . थूथन छछून्दर के समान लम्बा और नोकीला होता है। इसकी एक

जाति पश्चिमी अर्जेंटाइन में और दूसरी बोलबिया में पाई जाती गे

है| यह छुछून्दर की भांति विबर में ही रहता है। मिट्टी में लम्बी

हम जन्तु बिल्ल कैसे बनाते हैं ?

सुरंग बनाता है और कदाचित चींटी और इल्लियों का आहार करता है। ज्षुद्रतम आर्माडिलो में मुख्य विचित्रता यह है कि इसका शरीर हड़ी की दौकोर शलाका था फल्रक द्वारा रज्षित होता है। वे चौकोर टुकड़े एक दूसरे से मिलकर सिले जान पड़ते हैं | ये हड्डियों की पटरियाँ (फत्नक) सारे शरीर पर सढ़ी नहीं होतीं, बल्कि रीढ़ से ही आबद्ध होती है सिर के ऊपर भी वें फैज्ञी होती है इससे . केवल्न पीठ की रक्षा ही नहीं होती, कटि प्रदेश तथा सिर की भी रक्षा होती है जब यह जन्तु बिल खोदता रहता है तो उसके कहि प्रदेश का कबच पूण रक्षा प्रद!॒न करता है। किसी भी शत्र के आक्- मण को यह व्यर्थ कर सकता है इस प्रृष्ठीय कबच का रूप खण्ड- खण्ड के जुटने से लचीला होता है अतएवं उससे इसकी प्रत्येक... गति में सहायता प्राप्त होती है क्‍ दीघे आमांडिलो दीघे आमाडिलो यथेष्ट बेगगामी जन्तु है। कहा जाता है कि. यह दौड़ कर आदमी 'से आगे जा सकता है। शरीर की सहज लचकदार तथा गतिशीलता से उनके चलने में विशेष सहायता प्राप्त होती है। ये मुख्यतः रात्रिचारी जन्तु हैं। दिन को बिल में छिपे पड़े रहते है रात को आहार की खोज में बाहर निकलते हैं। वे जिन बिलों में रहते हैं उनकी लम्बाई प्रायः तेरह-चौद॒ह फुट . ... होती है। यह अकस्मात तीन-चार फुट की गहराई तक उतरी होती. . है, उसके बाद फिर ऊपर की ओर धीरे-धीरे उठी होती है। इन. बिलों में ही मादा चार शिशुओं को उत्पन्न कर उनका पोषण करती

हे

आर्माडिलो नई दुनिया (पाश्चात्य गोलादें) के जन्तु हैं।

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल ४६

थे दक्षिणी, और मध्य अमेरिक्रा में पाये जाते हैं। उत्तरी अमेरिका मैं

एक जाति के अआर्माडिलों टेक्सा प्रदेश के दक्षिणी भाग में ही पहले पाये जाते थे, किन्तु अब सिसिसीपी नदी पार कर पूर्व और उत्तर में पहुँच चुके हैं। फ्तोरिडा सें भी इनका प्रसार हो चुका है। इसकी कई ज्ञातियाँ हं।ती है | कुछ जातियों में पोठ पर को अस्थीय पटरियाँ (फन्नक) सात से दस तक की संख्या में होती हैं। नो अस्थिफक्षकों के कबचयुक्त जाति भी होती है। कुछ जातियाँ ऐसी

: होती हैं जिनमें प्रत्येक अस्थिफलक के चारों ओर एक दूसरा बहुत

छोटा अस्थीय छल्ला आधिष्ठित होता है। इनमें तीन या छः अस्थि- फलकोां के भो आर्माडिलो होते है। नौफलकीय आर्माडिलञों लगभग तीन फुट लम्बा होता है।

उसमें आधो पूछ को ही लम्बाई होती है पू लम्बी गावदुम-सी

पीछे की ओर पतलो होती जाती है। यह नीचे कद का जन्तु है।.

: पैर छोटे और पुष्ट होते हैं। चारों पैरों में बलिष्ठ, खुदाई कर सकने योग्य चंगुल होते हैं साय शरीर कछुए की अस्थीय पीठ के समान

बुजनुमा कवच से आच्छादित रहता है। चारखाने समान अस्थि- खरडों के त्वचा के अन्दर परस्पर जुट जाने से बने अनेक फलकों या पटरियों के द्वारा प्रष्ठीय कबच. बना होता है | यह कवच दोनों

पाश्वे में फूल की भाँति लटका रहता है। सिर पर प्रथक कवच _ होता है। पूछ पर छल्ला द्वारा शंखलित कबच होता है। वे छल्ले

ठोस होते है और छोटे होते पीछे गए होते हैं

. शरीर के कबच के मुख्य तीन भाग होते हैं। आगे और पीछे... 5४ के एक-एक भांग स्कंध तथा कटिप्रदेश के रक्षक होते हैं।बेठोस कबचीय बुजे होते हैं | मध्यवर्ती कबच नौ फलकों या आड़ी पट्टियों हारा बना होता है वे अं खलित होकर मध्यभाग का आवरण | दे बनती हैं। क्‍ जा

छु

मम 0७७७७

हा क्‍ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

आर्माडिलो बिल में रहता है | वह अपना बिल चट्टानों, जड़ों या घनी, एक दूसरे से जकड़ी वनसरपतियों की ओट में बनाता है यह दिन को बाहर निकलता है किन्तु रात को ही अधिक निकलता है क्रियाशीज्ञ रहता है। अपने बिल से चारों ओर फैल्ली सुरंगें बनाता है। उनमें कटक-मकटक कर कुदान-सा कर चलता है। यह मुख्यत: कीट और उसमें भी विशेषकर बहुसंख्यक दीमक खाता है अतणएव इसके मल्न से चिकनी श्वेत मिट्टी का छोटा दहूहा-सा बन जाता है | इनकी इन्द्रियाँ बड़ी सुस्त-सी होती हैं अतएव पीछा करने... पर इनको कुछ पता नहीं चल्लता दिन्तु एकबार सावधान होते हं। बड़ी तीत्रता से घासों में भाग निऋलते हैं। यदि कभी शत्रु से. सामना हो ही जाय तो अपना सिर पैरों के मध्य कर सारा शरीर मोड़ डालते हैं| इस तरह एक गेंद-सा आकार बन जाता है जिसमें केवल पू ही बाहर लटकाने की रस्सी समान रह जाती है सभी जातियों के आर्माडित्ो प्रबल बिल्लस्थ होते है वे अपना आहार अधिकांशतः भूमि के नीचे से ही प्राप्त करते हैं। दीघे आर्माडिलो एक जाति होती है जो इतनी प्रबल मांसाहारी होती है कि गड़े मुर्दे डखाड़ कर भी खा जाती है। ये सभी जन्‍्तु जान्तव .. पदार्थों के ही इच्छुक होते हैं | दक्षिणी अमेरिका में खाल्न की भ्राप्ति .. के लिए बहुसंख्यक ढोर मारे जाते हैं। उनके शव मैदानों में फेंक दिए जाते हैं उन शवों को दीघे आर्माडिलो बड़ी जत्सुकता-पू्वक खा जाते हैं कि ०2 आर्माडिलो को बिज्ष खोद कर निकाल लेना कठिन हो सकता. ... है। ये अपने उपनिवेशों के बिल्लों में बिलसर्थ शशक (रैबिट) की ... भाँति रहते हैं। पहली बात तो यह जान लेना आवश्यक होता है .. कि जन्तु अपने विवर में उपस्थित है या नहीं | इसकी एक सुगम . विधि होती है | विवर के अन्दर एक छड़ी डालकर यह देखा जाता _

स्‍्तनपोषी जन्तुओं के बिल... ४१

है कि उसमें मच्छड़ हैं या नहीं। यदि कोई मच्छड़ विवर से बाहर निकले तो वह इस बात का श्रमाण होता है कि विवर में आर्मा- . डिलो मौजूद है। यदि बिबवर में आर्माडिलो जहीं रहता तो उसमें मच्छुड़ नहीं रह सकता। एक बार आर्माडिल्लो की उपस्थिति का निश्चय कर बिवर में एक लम्बा डंडा डालकर उसकी दिशा झाक्त- कर खुदाई की जाती है। एकबार खुदाई कर बड़े गडढे से फिर बिवर में लम्बा डण्डा डाल्कर उसकी दिशा ज्ञाव की जाती है और .. खुदाई होती है कई बार ऐसा करने पर अन्त में जन्तु का पता ज्ञग सकता है विवर की दिशा ज्ञात करते जाने और खुदाई करते ही जाने . से आर्माडिलो को सहज प्राप्त नहीं किया जा सकता है। एक ओर ..._ जहाँ मनुष्य उसका पीछा करने के लिए बिक्ष की खुदाई करता जाता है, वहाँ दूसरी ओर आर्माडिलो छिपने के प्रयत्न में भीतर निरन्तर .... बिल खोदता जाता है। दुर्भाग्य यही होता है कि मनुष्य जितनी जल्दी अपने फाबड़ों से खुदाई करता है उतनी जढ़दी आर्माडिल्ो अपनी बिल की नई खुदाई नहीं कर सकता इस कारण अन्त मैं उसे पराजित होना पड़ता है। झिर भी ऐसा उदाहरण देखा गया

... है जिसमें दिन के तीन पहर तक खुदाई करने और आधे दर्जन

गडढ़े खोदने के पश्चात्‌ आमौडिलो पकड़ा जा सका। ...

दीघ आमोडिलो की भाँति अन्य कई जातियों के आर्माडित्ो एक बार में एक शिशु उत्पन्न करते हैं, परन्तु बहुपट्टित या नौपट्टित आर्माडिलो में एक विशेष बात यह देखी गई है कि वे एकबार में चार शिशु उत्पन्न करते हैं। वे चारों शिशु किसी एक लिंग के होते है अर्थात चारों नर ही होते है या मादा ही होते हैं। एक और विल्नक्षण

के बात यह होती है कि इन चारों का र्ुजन एक ही गर्भान्वित अंड

या जननकण से हुआ रहता है

४५... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

बज्रदेही (पेंगोलिन)

पेंगोलिन को बजदेही या शल्कीय कीटभक्षक कहा जाता है। इस

जंतु का शरीर छिछड़े या शल्क समान छोटे-छोटे श्वक्कीय खंडों द्वारा आच्छादित रहता है ये शल्क-चपटे और कठोर होते हैं। खपरैज्ञ की भाँति दूसरे के ऊपर छोर की ओर चढ़े होते है इस कारण शल्कीय नाम दिया जाता है। चीटियों, दीमकों आदि को खाने के कारण कीटभक्षुक कहलाते हैं| इनका ऊपरी तल हृढ़ शल्कों की ढाल या , कवच से ढकी होने के कारण चीड़ के फल सहश शल्कीय (छिछड्ेदार) .- प्रकट होता है मानों चीड़ का ही बहुत बड़े आकार का चल्ञता-

फिरता फन्न हो | केवज्न सिर के पाश्वे, उदर तथा पैर के भीतरी तल्न में ही बाल उगे होते हैं | पूंछ लम्बी और प्रबल होती है

शरीर का रह्ञ भूरा या पीज्ञापन युक्त भूरा होता है। मुख दंतहीन होता हैं। जीभ तागे समान तथा कोई वस्तु अपनी लपेट से पकड़.

सकने योग्य (अहणशील) होती है। ये अपने को लपेटकर एक... हे गेंद रूप में कर सकते है ये रात्रिचारी वृत्ति रखने वाले जन्तु है। चींटी और दीमक इनका मुख्य आहार है ये जंगलों या मैदानों में...

का रहते हैं ये अफ्रीका और दक्षिणी एशिया में पाए जाते हैं। लम्ब-

पुच्छु पंगोलिन, चीन पंगोतल्िन, मत्नाया पंगोलिन, दीघे पंगोलिन और भारतीय पंगोलिन आदि इनकी कई जातियों होंती है. क्‍ .._' भारतीय शल्कीय कीटभक्षक या पंगोलिन को मानी प्रजाति का कहा जाता है ये विचित्र स्तनपायी जंतु अन्य स्तपोषी जंतुओं से विभिन्न रूप रखते है | इनकी बाहरी आक्ृति सरीस्प सीही ज्ञात होती है। ये प्राय: कानहीन होते हैं | पूँछ लम्बी होती है

जो आधार-स्थज्ञ पर बहुत मोटी होती है। उस पर शल्कीय,.ढाल / बनती होती है जो ऊपर ओर नीचे दोनों ही तल्ों पर होती है। ४!

सिर छोटा होता है | उसमें पतला थूथन तथा छोटा मुख होता ५0)

स्तनपोषी जन्‍्तुओं के बिल शव

. है। जीभ केचुए समान लम्बी और प्रहशशील होती हैं इसके . सभी पैरों में पाँच उँगलियाँ होती हैं जिनमें प्रत्येक में बलिष्ठ चंगुल

होते हैं अगले पैरों के चंगुल पिछले पैरों के चंगुल्नों से बड़े होते हैं। सभी पैरों की मध्यवर्ती ऐँँगली का चंशुल्ल सबसे बढ़ा होता है। अगले पैरों के चंगुल विशेष कर खुदाई करने के ही डपयुक्त . होते हैं। उनकी नोक सुरक्षित रखने के लिए पेंगोलिन के चलने

का ढंग विचित्र होता है। चंगुल भीतर की ओर झुक होते हैं ओर यह जंतु .बाहरी उँगलियों की पीठ तथा बाहरी तत्न के बल

पैर रख कर चलता है। पिछले परे में प्रायः पैर का तलबा उँग-

..लियों के साथ भूमि स्पशं करता है। चलने के समय डसकी पीठ .._ छुबड़ी बन गई होती है।

किसी शत्र के आक्रमण करने पर पेंगोलिन अपने शरीर को

ऊपर निकलते पैने किनारे ड्स् समय रचा के साथ ही आक्रमण का भी कार्य कर सकंते हैं। पेंगोलिन बढ़े ही बलिष्ठ तथा कुशल्न -विषर खोदने वाले जंतु है, किन्त सुस्त होते है। अपने चंगुल से

ये चींटियों तथा दीमकों की बांबी (बल्मीक) खोद डालते है और उन्हें अन्दर से निकाल कर खा जाते है अपनी ल्षम्बी जीभ से

ये दीमकों को पतले बिल से भी चाट खाते है। लसिका-अंथियों के खाव (थूक) से इनकी जीभ भत्नी-भोँति सिंचित रहती है अतणव . उसमें दीसमझ चिपट कर उनके मुख में पहुँचती है। कभी-की

पत्थर भी निगल जाने का उदाहरण मिलता है। आमाशय में

ग्रायः पस्थर के टुकड़े मिलते हैं। पता नहीं वे कीटों के आहार के

.. साथ अनजाने पहुँचते हैं या पत्तियों की भाँति उनके द्वारा खाल.

मैं कोई वस्तु घोंटने के संमान खाद्य द्रव्य को आमाशय में पीसने के साधन होते हैं।

४8 जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

पेंगोलिन रात्रिचारी जंतु हैं दिन में ये चट्टानों के नीचे या. अपने बताये बिल्ल में छिपे रहते हैं। इनके सिर तथा घड़ की : लम्बाई फुट तथा पूछ की लम्बाई डेढ़ फुट होतो है इनके शरीर के चारों ओर शक्कों की प्राय: एक दजन पंक्तियाँ होती है।

भारतीय पेंगोलिन भूमि में १२ फुट गहराई तक बिल बनाता है उतनी गहराई में बह एक बड़ा कक्ष बनाता है। कभी-कभी उस भूगर्भीय कक्ष की परिधि फुट होती है। यह जोड़े बनाकर रहता. है तथा एक बार में एक या दो शिशु उत्पन्न होते हैं जब यह, बिल में रहता है तो उसका मुंह मिट्टी से बन्द कर लेता है। अतएव- उसका पता पाना कठिन ही हो सकता है। परन्तु एक पहचान होती है। इसके चलने से विचित्र पगचिह्न बंने होते ह। वे इसकी गतिविधि व्यक्त कर देते हैं। यह पालतू भी बनाया जा सकता है। अपने पिछले पैरों पर खड़े होने की बृत्ति इसमें पाई जाती है

एक भारतीय पंगोलिन की विचित्र कथा है। एडविन आरनेल्ड

नाम के एक विद्वान के पास एक पंगोत्निन जीवित रूप सें था।

वह यथेष्ट समय तक उनके पास था। भारत छोड़कर इंगलेंड लौटते समय उन्होंने जीवित ले जाना असम्भव जानकर इसकी खाल ही ले जाने का विचार किया। पिस्तोल की तीन गोलियाँ लगने पर यह मरा | एक गोली तो शल्कों से उछलकर उलट भी गई | किसी प्रकार शल्कों के मध्य भाला भोंक-भोंक कर उसे मारा

.._ गया, परन्तु उसकी खाल निकालने पर कहीं भी गोली के चिह्न तक. मिले | यह उसकी शल्कीय ढाल की पुष्टता का -विकट उदा-

दर्णु था।

विपीलिका-आअक्ष या शूकरमुखी ( आठ वाक ) पिपीलिका-ऋ"्त या शूकरमुखी एक विचित्र रूप का जन्तु है जी

स्तनपोंषी जन्तुओं के बिल यह.

अफ्रीका का निवासी है। इसे खुरवाले जानवरों का दूर सम्बन्धी

कह सकते है परन्तु यह प्रथक श्रेणी ही बनाता है। शरीर भारी-.

भरकम होता है। उसका आकार शूकर के बराबर होता है थूथन शूकर से भी अधिक लम्बोतरा होता है। कान खड़े और खरगोश

के कानों की आकृति के होते है | जीभ केचुआ के आकार की होती है। वह बाहर बड़ी दूर तक निकाली जा सकती है। जीम की छोर

. एक विशेष चिपकन पदार्थ से सिंचित होती है। सिर पर थोड़े से

कड़े बाल होते है। अगले पैरों में चार-चार और पिछले पैरों में

पाँच-पॉंच पादांगुलियाँ होती हैं। अगले पैर की पादांगुलियों में

भूमि खोद सकने वाले बलिष्ठ चंगुल आवेष्ठित होते हैं पूं लम्बी होती है | इसके चबेणक दाँत मूलहीन होते हे और सतत बढ़ते ही.

रहते है अन्य दाँत होते ही नहीं। इन दाँतों पर भी दन्तवेष्ठन . ( इनेमल ) आवेष्ठित नहीं होता है। इसका आहार चींटी और

दीमक है यह अफ्रीका में उत्तमाशा अंतरीप ( केप) से लेकर

अबीसीनिया, सूडान और सेनेगल तक पाया जाता है

.. गआइड्वाक या शूकरमुखी बिलस्थ जन्तु है यह अधिकांश समय अपने खोदे हुए बड़े गर्त्तों में रहकर व्यतीत करता है। सूअर की भाँति भूमि खोद सकने की प्रबल शक्ति ओर उसी के समान मुंह

होने के कारण इसे शूकरमुखी कहते है। कुछ लोग भू-शूकर भी कहते हैं। आडवबाक अफ्रीकीय शब्द है जिसका अर्थ भू-शूकर होता _

है इसके स्वभाव के अनुसार भूमि के खोद सकने के लिए प्रबत्न उपकरण रूप में बलिप्ठ चंगुल बने होते हैं | उन बलिछ्ठ चंगुलों का

निर्माण नर्म और बलुही मिट्टी खोदने के उद्देश्य से नहीं हुआ होता क्‍

किन्तु उसके लिए वे अधिक्रांशतः उपयुक्त अवश्य होते हैं। उन चंगुलों का ठीक कार्य तो कुछ अधिक कठोर होता है। इन चंगुल्नों की सद्दायता से शूकरमुखी ( आडेबाक ) दीमकों की बल्मीक (बांबी)

डक अपन +लन कप:

0 |

भव... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

जकपतात्दस-कतए८क्ााञववत 6५८५ सपपधत्रभकधपप+बकक + 2 सील भाइ कल." पट एपफ ५५ संपर्क

' हक | हि हक]

रु

हु ग् 22222 |

2 हे | का |

“३

/|0! 000 रा / | |! (0/ / ॥/७ ल्‍ ! | | | | ॥! | 2 4; ; ऐ) पी ||! #/ स. *भा।।/ हर! 0 7 पे | / ॥॒ कह ! - 5७४९५ !? 74 ८7 | 0७ ८० “4822 ; |! | ' ।] ) हि दाशशापकाक हि, 07700: ४४० ्् की! (7 (/ ))। )) 2 7 | ' | ॥॥॥/९ री रे] ५५४ [((/० ८22 227 22 22 %/

>्ड्रि &2“ 2९% 2८ पर] 0१४ ( ( ( |

॥| 00 ॥॥

0 रा पे | रॉ] | | |

का

_ स््न्.

्स्च्ल्च्य ?च??य्य्ड ््ज्-्न्स््संट्सअ्स स््ल्ल्स्स्ल्सस

्््स्ल्न्ललच्च्स बन जज के म-- ल्््स्स््स्ल्ल्ल्स््--5 चल्स्स्य््ि 2-22

नज+++> >> ्स्स्स्स --ज्+--ल्चे

_लक>>क >>

5 थे 0 |

| _भूशूकर का दीमकों के बांबी पर प्रहार (ऊपर) ; भूशूकरं का बिल (नीचे)... . को विशाल रचना को तोड़-फोड़ डालता है। अफ्रीका मेंदीमकों

स्तनपोषी जन्तुश्रों के बिल ४७

"के ऐसे दूहे पटे पड़े दिखाई पड़ते हैं ये इतने दृढ़ बने होते हैं कि मिट्टी की जगह पत्थर की रचना ही प्रतीत होते हैं। उनकी चोटी

पर कई आदमी खड़े होकर भी उन्हें ध्वस्त नहीं कर सकते | उन

'छूहों (बल्मीक) के अन्दर दीमकों की असीम संख्या निवास करती

. है। उनको भक्षण करना ही आड्वाक का लक्ष्य होता है. उसी _ लिए अपने बलिए्ठ चंगुल से वह इतनी पुष्ट रचना को ध्वस्त करने. का प्रयास करता है। जो वस्तु किसी जन्तु का आहार ही हो, उसे

प्राप्त करने के लिए तो वह कुछ प्रयत्न शेष नहीं छोड़ सकता

प्रकृति भी उसके लिए उपयुक्त उपकरण प्रदान ही कर देती है। _

सन्ध्या होते ही आडेवाक अपने विवर से बाहर निकलता है...

जहाँ उसका सारा द्नि विश्राम करते बीता होता है विवर से

बाहर होते ही वह मेदानों में जाकर दीमकों के हूहे ढू ढ़कर उन्हें

. ढहाने का उपक्रम करने लगता है अपने बलिष्ठ चंगुलों से खोद

कर वह एक बड़ा छिद्र बना लेता है | दीवाल को वह तोड़ डालता है। घर उज्जड़ते देखकर ढूहे के अन्दर दीसकों में हंगामा मच जाता है | वे घबड़ाकर इधर -उघर भागने ज्गते हैं | संख्या अधिक

होने पर भी उनमें सामूहिक रक्ताविधि का ज्ञान नहीं होता और

शरीर में कोई प्रबल उपकरण ही होता है। उनके भगदड़ मचाने के समथ ढूहे की दीवालें इस प्रकार गिरती हैं मानो किसी बड़े नगर में भारी भूडोज् ही गया हो इन आपत्तियों का उत्पादक आडेवाक चुपचाप अपने काये में तलल्‍्लीन होता है। वह अपनी लम्बी जीसम निकाल निकालकर दीमकों को उद्र्थ करने में... बिलम्ब नहीं करता। एक भार में सैकड़ों दीमकों को झूँह में

. पहुँचाता है।

आडंवाक के आगमन से दीमकों को कोई भारी देवी विपत्ति ही के

समझ पड़ती होगी जिस पर उनका कोई वश नहीं चलता यह.

धश्न जन्‍्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

. विपत्ति किसी अन्य लोक से आई ही उन्हें ज्ञात होती होगी। आडंवाक इन चिन्ताओं में नहीं पड़ता वह निरन्तर संहार-कार्य

करता जाता है। शीघ्र ही ढूहा प्राणी-शून्य हो जाता है |

.... जहाँ कुछ पल्ञों पूर्व असंख्य दीमकों का नगर सा बना था,

वहाँ सब दीमकें आडेवाक के मुख में चत्नी जाती हैं | केवल ढूहे की कुछ भग्न दीवालें ही उसकी स्मृति रूप में बची रहती हैं। आड्डवाक एक दूहे को भी गिराकर शान्त नहीं होता, वह एक. के बाद एक अनेक ढूहे गिराकर उनकी दीमकों से अपनी उद्र--

: पूर्ति करता है।

जिन ढूहों (बल्मीक) को आडडवार्क तोड़कर दीमकें खा जाता. है, उन हूहों का रूप गुफा समान शेष रह जाता है जिसमें गीदड़ ही आकर निवास कर सकते हैं | अन्य हिंसक पशु या साँप भी.

आकर वहाँ अपना डेरा डाल सकते है' अफ्रोका के मूलवासी

इस बने-बनाए गत्ते में अपने किसी सत सम्बन्धी का शव ही

गाड़ आने की सुविधा देखते है'

अपूर्ब खननशक्ति के कारण आडवार्क को जीवित पकड़ . सकना कठिन कार्य हो सकता है मनुष्य के फावड़े तथा आ्डवा्ो: के बलिष्ठ चंगुल में भूमि खोदने की होड़-सी लग जाती है। अपने

.. आण के लाले पड़ने और प्रबल खननशक्ति के उपयुक्त उपकरण . होने के कारण आड्डबार्क मानव प्रयत्न को व्यर्थ-सा कर उसकी

.. पकड़ में सकने में सफल भी हो जाता है। साधारणतया यह. . थोड़ी गहराई के बिवर में ही रहता है, किन्तु पी बा किये जाने पर... अधिकाधिक नीचे. बित्न खोदता जाता है इसके बिबरों क्‍ के कारण:

हा ऊपर की भूमि घुड़सवारों तथा गाड़ियों के लिए भयानक हो:

2४७ ४०४०४ ४७७७ ४५४८७ आज 9 322 2 पड: आम 2 कक 74776%2%7 0 90. 27500: कप >किस कर नीम कर कील. 3ीजक अल

संतनपोषी जन्तुओं के बिल

.. हंसकमुखी या बतचोंचा ( डक-बिल्ड हा हंसकमुखी या बत्तखमुखी ऐसा विचित्र जन्तु हैं जिसका मुख बत्तख की चोंच की तरह होता है, अतएव इसे बतचोंचा कहा जाता... है। किन्तु यह स्तनपोषी श्रेणी का जन्तु होटा है। यह दक्षिणी पूर्वी आस्ट्रे लिया तथा टस्मानिया में पाया जाता है। इसकी चोंच या . चॉोंचनुमा मुख की अस्थीय पट्टी जीवनकाल में एक नम त्वचा से आवेष्ठित रहती है। शरीर तथा चौड़ी पूँछ पर नर्म रोएँ उगे. रहते हैं। पैर छोटे होते हैं। उनमें डेंगलियों के मध्य त्वचाजाल ( अँगुलिजाल ) होता है जिससे बे बत्तल्ल के पैरों के समान ही दिखाई पड़ते हैं। एक विशेषता यह होती है कि थे अंगुलिजाल : हेंगलियों से आगे तक बढ़े होते हैं। नर हंसकमुखी में एड़ी की भीतरी दिशा में एक बड़ा एड़्ा या शल्य लगा होता है। उस शल्य ( कांटे ) में एक विशेष ग्रंथि द्वारा विष उतर आता है एक भारी आश्चये की बात यह है कि बतचोंचा या हंसकमुखी अंडे से उत्पन्न होता है। कोई भी अंडज जन्तु अपनी माता का दूध नहीं प्राप्त कर सकता परन्तु मादा हंसकमुखी दुध उत्पन्न कर अपने शिशुओं को पिज्नाती है। इसी कारण इन्हें स्तनपोषी या _दुग्धपायी जन्तुओं की श्रेणी में गिना जाता है। वैज्ञानिकों को यह देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ था कि यह जन्‍्तु शिशुओं को दूध तो पिल्ाता है, किंतु मादा हंसकमुखी के शरीर में कहीं भी स्तन का नाम

नहीं होता यह समस्या बहुत दिनों तक वैज्ञानिक खोजियों को... हे

चक्कर में डाले रही अन्त में बड़ी बुद्धिमत्ता पूर्वक वैज्ञानिकों ने ..

ज्ञात किया कि स्पष्ट स्तन कहीं पर होने पर भी यह जनन्‍्तु दुग्ध. 2 ;

ग्रन्थि युक्त होता है। उदर के विशेष भाग में रोम-कूपों द्वारा ही यह दूध खवित करता है शिशु उन रोमों में ही मुँह चिपकाए रख दुग्धपान करते हैं | यह्‌ खोज जन्तु-जगत में एक बड़े ही महृत्व

६० जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

की थी लोगों ने अनुमान किया कि पहले सारी सृष्टि अंडज ही रही उससे स्तनपोषी रूप में विकास का प्रारम्भ इस विधि से ही हुआ होगा

हंसकमुखी के सिर ओर धड़ की लम्बाई १८ इच्चध और पूछ की लम्बाई साढ़े पाँच इव्च होती है। यह नदियों, नालों, तालाबों आदि के किनारे रहता है। कगारे पर ही यह अपना विवर बनावा है | बिवर का एक मख अवश्य ही पानी के अन्दर होता है विवर के अन्तिम भाग में ऊपरी भाग में मादा अंडे देकर शिशुओं

को उत्पन्न करती और पोषण करती हैं। यह एकबार में दो अंडे

देती है तैरने ओर डुबकी लगाने में इन जन्तुओं को कुशलता प्त रहती है। छोटे जल्लजन्तु इनके आहार होते हैं। जलजीबी

: वृत्ति के कारण इस जन्तु को छुछ लोग जल-छछ्ून्दर भी कहते हैं।

आर्द्र लिया निवासी इसे मैलेंगांग, टैम्त्रीट या टोहुनबक कहते हंसकमुखी भूमि का कुशल खनक भी है ओर पानी में प्रवीण

तैराक भी है, उसके पैर की डेँगलियों का जो अंगुलिजाल चंगुल्ों

से आगे बढ़ा होता है, वह पानी में तैरने के समय उपयोगी होता

है। परन्तु खोदने का अवसर होने पर वह बढ़ा अंगुलिज्ञाल पीछे

. हट जाता है और चंशुल्न नम्न होकर खुदाई कर सकते हैं। खुदी हुई .. मिट्टी फेंकने में अंगुलिजञाल का आगे बढ़ा भाग पुनः उपयुक्त होता है।

हँसकमुखी का गोलाकार शरीर बिल्न में चल सकने के सबथा उपयुक्त होता है उसके शरीर से त्वचा शिथित्र मरोड़ों रूप में

न] लटकी होती है। भूमि पर इसके चलने पर विचित्र रूप दिखाई

पड़ता है इसकी विचित्र आकृति को देखकर तो कुत्ते भी चकरा . जाते हैं। इसकी विचित्ररूपता को देख वे भौंक भर देते हैं, परन्तु .. » आक्रमण करने का साहस नहीं होता बिल्लियाँ तो इसे देखते ही

५०004 ५०६7२४००७५:४७७७७३६

श्र

आँखें बड़ी और गोल होती है | विबर के अन्दर जीवनयापन करने... बात्ने जन्तु के लिए ऐसे नेत्र होना विस्मयथ की बात है उनपर. 5. त्वचा का एक लटकन होता है जिससे मिट्टी से रक्षा हो सके | यह - | ह्टकन जबड़े के मूलभाग को आवेष्ठित रखता है। कदाचित इस .. लटकन की यह भी उपयोगिता होती है कि कीचड़ से आहार प्राप्त...

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल कु .. ६१

दुम दबाकर खिसक जाती हैं इसके शरीर पर के घने रोम इसे क्‍

जल तथा विवर में चला सकने के सबेथा उपयुक्त होते हैं| इसकी

करते समय उसका मुख बहुत अधिक घसे

हंसकमुखी ( बतचोंचा ) अपने विवर ऐसे स्थान में बनाता है जहाँ नदी का पाठ विशेष चोड़ा और जल्न अपेक्षाकृत स्थिर रहकर जलाशय या बुहद्‌ कंड-सा रूप धारण किये हो। उसके तट पर अपने विवर बनाकर उसके सदा दो मुँह रखता है| एक विवर-मुख पानी के अन्द्र ही होता है | परन्तु दूसरा विवरमुख पानी के ऊपर सूखे तट में होता है जिससे बह पानी में रहने या सूखी भूमि में चलने, दोनों ही अवस्थाओं में शीघ्र भीतर प्रवेश पा सके सूखी भूमि का विवर-मुख सदा छिपे स्थल में होता है जहाँ जल्लीय वनस्पति, या लम्बे वनस्पतियों के लटकने से उसे देख सकना कठिन हो घास हटाने पर एक बड़ा छेद दिखाई पड़ सकता है जिसके आस-पास बत्तखमुखी के पग-चिह् पहचाने जा सकते हैं

- भूमि नम होने से पैर की छाप स्पष्ट बनी होती है।जो पगचिह | - कुछ विशेष आद्र ओर ऊपर की ओर निर्देशित हो वह बत्तचमुखी .

के अपने विवर से बाहर जाने का होता है। परन्तु जो अपेकज्षाकत :

सूखा ओर नीचे की ओर निर्देशित हो वह यह प्रकट करता है कि

यह जन्तु बिवर में बाहर से लौटा है. इसलिए वह विवर में मौजूद होगा कक विवर की थोड़ी मिद॒टी खोद लेने पर उसकी दिशा ऊधष्यवर्ती

जज 4 ०० ०7 पा जज शी: 00 हि कु रण रई.-९७ पटना! हब है > हल

६२ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

८८८: £22222

७७३३७:

७2७७७ ७७5०० ५४३७४

निजी मर >> 805७;

५0११६ | ||

रा

बैं

के

कब

हर जब: ्च््य 8-5 ्स्स्तट हद प्स ००5 प्र ण्ध्स््स्न्ट ५५६ 5 ्ख्य्य

चर कक ८. >->ह्फ #र

| रे पर |

का 72 | | 02222

एच

प*न्य्द्ध ७३०२ ६०६-

्््स्टट डा

-घ३ से *५- नर पड: असर

ध्प ्््ट ] पु प्र

हर जो जप ४६ ्् £ रच रा 6 सम चर बस ३2 5 53554 थ८ >्न्प्छ ल्‍-

धर 3० >> आआ... डर घ् की कन्स ४५०. रा 58८ नल 9 धः 2222

जा हू. + न्भ्प्े शि््््ध्ट्ड ००५ चमक 5-०२

थ््््ल 4८2०४ हद टन

कक

7772 वा ब्रश हिरेआ../2॥/ आई नल रिकममकं»ञ»»ममम3५भ9५०८ १... "००५५,

#न्‍्य+०भक१:::-८६०००००८नमंधआ

422 20००० +क

हु रे | ५2 ०] रे ' | /' 7१ (2८; ; १८ 2००८ हैँ // /(, ४०० 222 2222 2%/ #। /॥ ! स्स््३ :- | 7 हे 9! | १22. एक (00 जज . “जो १४/? प्ष्ह्र | | हम

हसक मृखी (बत्तखमुखी) का बिल

.. मिलती है जहाँ से वह टेढ़े-मेढ़े मार्गों पे बड़ी दूर तक गया होता

ख्नपोषी जल्तुओं के बिल... ह३ई.....

है। बीस से तीस फुट तक औसत लम्बाई होती है परन्तु पूरे पचास

फुट लम्बे विवर भी मिल सके हैं। उसकी भयानक वक्ता देखकर...

खनक भी खोदने को साहस छोड़ बैठते हैं गज

विवर की विकद वक्रता का कोई नपा-तुला रूप नहीं कहा जा सकता है किसी भी दो विवर की बक्रता एक रूप की नहीं होती साग में जड़ें तथा पत्थर मिलने से भी बत्तखमुखी बिवर की दिशा टेढ़ी-मेढ़ी करता जाता होगा | बिवर की छोर पर जननकक्ष होता है जिसकी चौड़ाई विवर से अधिक होती है। उसका आकार दीघे- वृत्तीय या अंडाकार होता है। सूबे जल्लीय वनस्पति, घास आदि की यथेष्ट व्यवस्था होती है जिस पर नवजात शिशु विश्राम कर _ सके अपनी वृद्धि के अद्धाश काल प्राप्त करने तक शिशु विबर में ही रहते हैं

हंसकमुखी के विवर में पानी के ठीक ऊपर लंबवत भाग भी होता है | उसमें वह चढ़ जाने की शक्ति रखता है। अपने शरीर

को एक ओर की दीवाल से दबाकर दूसरी दीवाल से पैर दबाकर. है

. चह ऊपर की ओर चढ़ता है।

कंटकीय कीटभक्षक ( एचिडना )

विचित्र रूप के जन्तुओं में रोम के स्थान पर शल्य *या कांटे उत्पन्न करने .वाले जन्‍्तु भी हैं योरप में इंगलेंड से लेकर स्पेन, इटली, सिसली ओर प्रीस. ( युनान ) तक कंटकीय मूषक की उत्कष्टतम जाति मिलती है उसी की गहरे रंग की जाति हंगेरी

उत्तरी बोहेमिया, तथा पूर्वी जर्मनी में मिलती है। एशिया तथा जो 6

उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका में भी इसकी सम्बन्धी जातियाँ मित्नती

. हैं। इसके शरीर पर कड़े लम्बे बालों का ही रूप कांटे समान हो. ल्‍

गया होता है भयम्रस्त होने पर यह अपना शरीर समेट कर तुरन्त

क्‍ 8४ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं.?

कटीली गेंद-सा बन जाता है पश्चिमी पाकिस्तान के शुष्क भागों

में भी यह पाया जाता है।

दूसरा कंटकीय जन्तु शल्यकी या साही जगत्‌प्रसिद्ध है। रोम

के कड़े पन की पराकाष्ठा ही नहीं पहुँची होती, बल्कि इतना अधिक परिवर्तित, बृहद्‌ तथा नोकीला रूप हो गया होता है कि साधारण

व्यक्ति को साही का कांटा दिखाकर उसे रोमवत्‌ कोई बस्तु बताया

- जाय तो वह इसे निराघार, स्वेथा मिथ्या कल्पना ही घोषित कर उठेगा। फिर भी वैज्ञानिक तथ्य तो ऐसा ही है |

कंटकीय कोटभक्तषक शल्य की समान विकट कांटे तो नहीं.

उत्पन्न करता, परन्त कंटकीय समूषक से उसके कांटे अवश्य अधिक

बढ़े ओर तीखे होते हैं| यह आरस्ट्र लिया, न्यूगिनी तथा टस्मानिया

के विचित्र जन्तओं में से है

कंटकीय कीटभक्षक छोटे आकार के ही भारी भरकम शरोर तथा छोटे पैरों का कंटकीय जन्तु है। यह अन्‍्डे से उत्पन्न ठुग्ध- पायी जन्‍्तुओं में से हैं जिन्हें अण्डज़ स्तनपोषी कहते हैं। इसके शरीर की लम्बाई २० इच्ध तक होती है। थूथन लम्बोतरा बन कर रोमहीतन नली समान होता है बिल्कुज्ञ अन्त में छोटा मुख होता है। जीभ लम्बी, केचुए समान और अत्यधिक प्रसरणशील होती है। यह चीटियों तथा दीमकों को खाकर जीता है

कंटकीय कीटभक्षक विकट खनक होता है। छोटा शरीर होने

हे है पर भी कठोर भूमि में विबर खोद लेता है। यह किसी बड़े पत्थर .. के ढोंके के नीचे केवल अपना चहुल प्रविष्ट करने का स्थान पा

पं जाय तो उसे उठा फेंकता है। इसको बन्दी बंना सकना कठिन होता है। पक्की दीवाल भी खोद फेंकता है। मैदान में भी यह

2: . इतनी तीत्र गति से बिल्ल खोदता है कि इसे पा सकना कठिन हो ..._ सकता है। अपनी पीठ सिकोड़ कर यह कुबड़ी बनां लेता है

व्रतयालमालापसवा+

अल

स्तनपोषी जन्तुओं के बिल क्‍ - 2

. शरीर से चिपक्रा लेता है तथा पजे से भूमि खुरच कर भूमि में इस प्रकार धँसता जाता है मानो किसी पात्र के शीरा सें पत्थर का ढाका डूबता चला जा रहा हो कंटकीय कीटभक्षक के चड़ुल केवल खोदने में ही कुशल नहीं होते वे कोई वस्तु बलपूवेक पकड़ने में भी उपयुक्त होते हैं। इस गुण के कारण वह किसी चस्तु से जोर से चिपक .जाता है। ऐसी शा में उसे खोंच लेना कठिन होता है। एक [ओर तो उसके शरीर . के काँटे चुभते हैं, दूसरो ओर बह दृढ़ता से चिपका रहता है। पैर उसके शरीर से इस प्रकार सटे होते हैं कि. उन्हें पकड़ सकता अस- सभव होता है। किसी प्रकार इसके पिछले पेर को पकड़ कर ही हाथ में लिया जा सकता है। अन्यथा यह दुलत्ती भी इतने मटके - से मारता है कि वस्र तथा हाथ फट जायें।

विवरवासी पक्षी मीनरझ्कः (किंग फिशर)

मीनरक्क (कौंडिल्ल) ऐसा पक्षी है जो दूसरों के परिश्रम से बनाए गृह में ही डेरा डालने का सुभीता हूँ ढ़ता है। यह जलखंडों के निकट रहने वाला पक्षी है अतएव सन्तानोत्पादन काल में कहीं अन्यत्न जाने की इच्छा नहीं रखता | अतएवं जल-खंड के कगारों में ही इधर-उधर कोई छिद्र हँढ़ता है। विल्लस्थ शशक का विवर इसके लिए पसन्द पड़ता है, किसी जलमूषक का स्यक्त बिल भी उपयोग में ला सकता है। अपनी इच्छा के अनुसार कोई छिद्र मिल जाने पर उसे मुँह के निकट सँवारता है तथा भीतर का भाग नए सिरे से खोद कर ऐसा बनाता है कि वह ऊपर की ओर पीछे चढ़ा हो पानी का तल ऊँचा होने पर सड्डूंट उत्पन्न होने से बचत : पाने के लिए यह व्यवस्था करता है भीतरी भाग ऊँचा रहने से . उसमें विद्यमान हवा पानी का प्रवेश भीतर नहीं होने दे सकती | पानी की बाढ़ कितनी भी हो, उसके विवर के भीतरी भाग में पानी जाने से रुक सकता है। का

. मीनरछ्ू का बनाया घोंसला आकृति तथा उसके निर्माण में

... जययुक्त पदार्थ के कारण विचित्र होता है। पक्षी विज्ञान के अध्य-

यन-करत्ताओं के विचारानुसार पूर्ण घोंसला मछलियों की हड्डियों से

|... निर्मित होता है। अधिकांशत: छोटी मछलियों का कक्कलाल उपयुक्त... ... दौता है। जब यह पक्षी उन मछलियों को खाता है तो मांस खंड

विवरबासी पत्ती... ६७

पच जाने के पश्चात्‌ कक्लाल की हड्डियाँ सत्न रूप में विसजित हो के जाती हैं | उल्लू भी अपने विसर्जित मल के शज्ञाका समान खंडों

से अपने घोंसले को बनाता है जिस पर वह अंडे देता है। मीनरंक

मीनरंक (कौंडिल्ल) का बिल 205#89 के, घोंसले की दीबाल आधी इश्च मोटी होती है और बह बड़ा चपटा

होता है। गोल आकार तथा उसमें छिछला गडढा इस बात को

सिद्ध करता है कि पत्नी हड्डियों के जमघट को यथाथत: थोंः में बनाता है ओर वह मल के बिखरे पड़े खण्डों के ही ऊपर अण्डे. नहीं देता। मत्न का यह अस्थिभंडार सम्बित होकर घोंसला रुप. धारण करने में कुज्न तीन सप्ताह लगते हैं

बहुत थोड़े समय में ही सल्ल रूप में विसजित अश्थियों का भण्डार जुटाने और घोंसला बनाने में सूखने का अधिक समय

. नहीं रहता इसी कारण उसमें अधिक बदबू रहती है। बह एक . ऋतु में आठ-दस अंडे तक देता हे फन्तु उन्हें सावधानी - से हटा

दिया जाया करे तो वह मुगियों की भाँति वर्ष भर अंडा देता

चला जाय।

द्र्पः ... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

मीनरझ्ू अपने भुक्खड़पन के लिए प्रसिद्ध है। उसके पेटूपन के कारण प्राण के लाले पड़ने की पचीसों कहानियाँ सुनी जाती हैं। एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक का कथन है कि एक बार एक मीनरछू (कोंडिल्ल) ने एक बड़े सिर की मछली को पकड़ा और उसे निगल्नने का प्रयत्न करने लगा किन्तु मछल्ली के बड़े सिर के कारण वह चक्कर में पड़

गया। मछल्ली का सिर उसके गले से उतर ही नहीं सकता था।..

इस कारण उसका गला अवरुद्ध हो गया। बड़ी भूख लगने पर उसने ऐसे बड़ सिर की मछल्ली को निगलना प्रारम्भ किया होगा। इतना बढ़ा ग्रास तो उसके आमाशय में अंट भी नहीं सकता था। इसी तरह के कितने अन्य उदाहरण मिलते है

एक दूसरे वैज्ञानिक ने लिखा है कि एक मीनरड् ने एक शिशु मुर्गाबी को ही निगलने का भ्रयत्न किया, परन्तु इसमें उसे पूर्ण असफल होना पड़ा | एक अन्य व्यक्ति का कथन है कि उसने एक नदी के तट पंर अवलोकन करते हुए कोई नीली वस्तु बहते और पानी में जोर से छुटपटाते देखा निकट आने पर ज्ञात हुआ कि एक मीनरछ्ड के गले में मछली अऑँटकी थी, मछली की पूछ और घड़ का कुछ अंश मीनरक्कु के मुख से बाहर लटका था। मछली तो अपने प्राण बचाने के लिए तड़फड़ा रही थी और मीनरहछूु उसे जउद्रस्थ करने के प्रयत्न में था। किसी प्रकार मीनरड्ू की जीत होती जान पड़ी, मछली की तड़फड़ाहट अधिकाधिक शान्त होने लगी

5 बह मुर्दा ही हो गई किन्तु इसी ससय एक हिंसक जलजनन्‍्तु न्ते

. पानी से ऊपर मुख कर इन दोनों को पकड़ लिया और निगल

.. गया मीनरझू का इस प्रकार अन्त हुआ

..... साधारण मीनरकछ्छ (कीडिल्ल) नीले हरे मिश्रित रक् का पक्षी .. है। किन्तु अधोतल मोर्चे के रद्ठ का मटमैला लाल या ताम्रवर्ण - होता है। पूँछ बॉडी ( अधकटी ) सी,होती है। चोंच लम्बी और

.. विवरबासी पक्षी ... ६६

_ नोकीली होती है यह घरेलू गोरैया (गृह कुलिंग) के आकार का ही पत्ती है। यह हमारे देश में सर्वत्र पाया जाता है। कहीं नदी तालाब के तट पर या पानी के ऊपर लटकी किसी डाज्न पर एकांकी बैठे मिल सकता है। अचानक पानी के तत्न पर बेगपूर्वक उड़ते भी पाया जाता है। यह जंगलों तथा बरसाती पहाड़ी नालों से दूर रहता है | किसी लट॒ठे या पानी के अन्दर खड़ी चट्टान या वृत्त की डाल पर मछली की ताक में बैठा रहता है। अचानक एक भार की त्तरह वह पानी के तल्न पर कूद कर पानी के भीतर भी चला. जाता है ओर शिकार पकड़ कर फिर तुरन्त उड़ जाता है। कहीं वृत्त की डाल पर बैठ कर पकड़ी हुईं मछली केकड़े आदि को खा जाता है | इसका प्रसारत्षेत्र योरप, उत्तरी अफ्रिका और एशिया है . भारत में साधारण मीनरक्कु का विवर कगारों में पाया जाता . है। वह दो इद्च व्यास का होता है। एक फुट से लेकर चार फुट तक उसकी गहराई होती है | अन्तिम भाग में घोंसले का चोड़ा कक्ष होता है जो ५,६ इच्ब् चौड़ा होता है श्वेत वक्ष का मीनरक्क आकार में मेना ओर कबूतर का

_भध्यवर्ती होता है। इसके सिर और गदन का रह्ल कत्थई होता है |

क्ष-स्थल्न श्वेत होता है उसके अतिरिक्त शेष अधोभाग भी कत्थई होता है | इसकी लम्बी, भारी नोकीली चोंच लाल रंग की होती है इसकी उड़ान के समय पह्छ में एक श्वेत पट्टी दिखाई पड़ती है ।. यह पानी से दूर के खेतों ओर विरलन वृक्षों के मैदान में भी पाया जाता है| बाँध तथा कगारों के पाश्व॑ में २३ इच्च व्यास का ह्या फुट लम्बा विवर खोदता है अन्त में ८, इन्च चौड़ा ज़नन-

. कक्ष या घोंसला होता है। इस पत्नी का प्रसार एशिया माश्नर से

. ज्ञेकर ईरान, भारत, बर्मा, मल्लाया और दक्षिणी चीन तक है। बश्रशीर्ष मीनरड कबूतर से कुछ छोटा होता है। इसकी

७० क्‍ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

विशाल, नोकीली लाल चोंच तथा मट्मैंला भूरा सिर पहचांन

_ है। इसका विवर इश्च व्यास तथा २, फुट लम्बाई का हांता |

द्व्यक ( पतेना )

दिव्यक या पतेना (यी-इंटर) की साधारण जाति हरित दिव्यक . या हरा पतेसा कहलाती है। गौरैया के बराबर ही इसका आकार होता है। यह कृशक्ाय पक्षी है जिसका करीर चटकीले हरे रद् का . होता है सिर तथा गदन पर लाल भूरापन रंग मिश्रित होता है। पूंछ का मध्यवर्ती पर (पतन्न) लम्बा, होकर कुन्द पिन या पतली सलाई की भाँति दिखाई पड़ता है चोंच पतली, लम्बी और कुछ थोड़ी कुकी होती है इसका प्रसार मिस्र से लेकर भारत, सिंहल, बर्मा, थाईलेंड और कोचीन चीन (हिन्द चीन) तक है। पूछ की लम्बाई सलाईनुमा पर मित्लाकर शरीर की कुल त्म्बाई इन्च होती है इसके कंठ में काज्नी घारी भी होती है। आँख के आगे-पीछे भी काली धारी होती है

साधारण दिव्यक सारे भारत में पाया जाता है। खेतों के निकट मैदानों में रहता है। समुद्र के तट पर बल्ुहे कंगारे के . निकट रहना इसे अधिक प्रिय होता है। यह बाँघों, सूखे नाले के

..कगारों, खड्डीं आदि की दीवाल में डेढ़ इञ्च व्यास का बिल एक फुट

से छः या दस फुट तक लम्बा बनाता है | बलुहे स्थल में यह चौरस . भूमि में भी तिरछा बिल खोद्‌ लेता है। अन्तिम भाग में चौड़ा घोंसला या जनन-कक्ष बना होता .है जिसमें कुछ बिछाया

..._ नहीं होता। दिव्यक का सारा विवर उसकी ही रचना होती है। . वह बड़े ही परिश्रम मे विवर खोदता है। नर और मादा दोनों

ही खोदने में जुटे रहते है “खुदाई कर चुकने पर इनकी चोंचें

* : विवरवासी पक्षी - हि

...._ इतनी घिस चुकी होती हैं कि पहले की अपेक्षा बे आधी बन गई

होती हैं

दिव्यक (पतेना) दुबल पैरों का पत्ती है। भूमि पर चल या उचक सकता दुष्कर होता है। अतएव वह वृक्ष पर से ही उड़-उड़ कर वायु में कीटों की पकड़ता और खा जाता है। डड़ान से लौट कर पुनः बृत्ष की डाली, तारया खम्भे के पूष स्थान पर लौट

.. आता है। केवज्न सनन्‍्तान-उत्पादन के लिए ही यह तट की कगारों.

वाली भूमि या बॉध आदि में विवर बनाता है। यह समाज प्रिय है। बहुसंख्यक द्व्यकों के बिबर उपनिवेश रूप में एक स्थात पर बने. मिलते हैं। वृक्ष पर भी सैकड़ों दिव्यक रात को साथ बसेरा लेते ..

पाए जाते हैं।

नीलपएच्छ दिव्यक

नीलपुच्छ दिव्यक या पतेना बुलबुल के बराबर होता है। इस

की पूंछ का रह्ञ नीला होता है उसमें से एक सुई या सलाईलुमा पर शेष परों से आगे दो इशच्न बढ़ा होता है। उस सल्ाई को मिला कर इसके पूर्ण शरीर की लम्बाई बारह इद्ब होगी | चोंच से लेकर आँखों पर होकर एक काली पट्टी होती है जिस पर नीचे ऊपर ही रज्ञ की कगर (मगजी) सी हं।ती है। कंठ पीला तथा अगला वक्त बादासी होता है। यह एशिया के भागों में पाया जाता है।.... ... नीलपुच्छ दिव्यक हरित दिव्यक समान स्थानों में ही रहता है, परन्तु यह अधिक हरियाली के स्थान तथा नदी मील आदि के. निकट की भूमि पसंद करता है। यह उपनिवेश रूप में विबर - बनाता है नदी नालों के बल्ुहे या मिट्टी के कगारों या ईंटों के खाली भट्ठों की दीवारों में दो इन्ब व्यास का बिल बनाता है ज़ो . से फुट तक लम्बे होते हैं बिवर बिल्कुल सीधा नहीं -होता।

रे. जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

अन्त में घोंसला या जनन-कक्ष गोल होता है। उसमें कभी-कभी विरत् रूप की घास या पर ब्रिछे होते हैं।

वश्नशीष दिव्यक भूरे रज्ञ का सिर होने से यह वश्न (भूरा) शीर्ष कहलाता है यह भी बुलबुल के ही बराबर होता है। यह हरित ;दिव्यक तथा नीलपुच्छ दिव्यक का मध्यवर्ती कहा जाता है। इसकी लम्बाई ८ई इंच होती है। परन्तु सलाईनुमा पूँछ का बढ़ा भाग नहीं . होता। सिर, गर्दन तथा अगली पीठ बादामी होती है ठुड्डी तथा. _कंठ पीला होता है | इसकी पूँ चौकोर होने से इसे सहज पहचाना . जा सकता है। यह हिमालय की तराई में कमांयू. की पहाड़ियों से लेकर आसाम, बर्मा तथा मल्ाया तक पाया जाता है। दक्षिण

भारत में भी पाया जाता है| क्‍ हरियाली के स्थानों में नदी-नाज्ञों के कगारों में इसके विवर - बनते हैं। कभी-कभी चौरस बलुहे मैदान में भी तिरछे बिवर बने .. .. मिलते हैं। वे कुछ इच्नों से लेकर कई फुट तक लम्पे होते है विवर॒ का व्यास दो इब्च होता है | ऋन्त में चौड़ा भाग घोंसत्ा या _ जननकत्ष होता है जिसमें किसी वस्तु का अस्तर नहीं होता। भूमि कै प्रकार परही विवर की लम्बाई निर्भर करती है | नर्म बालू में | १० ऊुंट तक लम्बे विवर पाए गए हैं| बाढ़ आने पर ये किसी |... दूसरे नाले के कगार में नया विबर बना लेते हैं ये कभी-कभी | उपनिवेश रूप में विबर बनाते हैं, परन्तु प्रायः थोड़ी-थोड़ी दूर पर _ . कईजोड़े दिव्यक विवर बनाते हैं।............र

-.._ त्रिकोणचंचु यान्सपमुद्रसारिक (पफिन)..... .. पफिन पन्षी यथार्थ विलस्थ होते हैं किन्तु आवश्यकता पड़ने

|. चरही विवर खोदते है। यह केवल एक अंडा देते हैं और उसे कहीं

ना

...

'करते हैं। अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए ये बिलस्थ शशक _(रैबिट) को स्थानच्युत करने का- उद्योग करते हैं। कोई अपना... || . 'घर-बार सहज ही परित्याग नहीं कर सकता | अतएव बिल्लस्थ शशक. अपने बिल पर अधिकार बनाये रखने के लिए संघर्ष करते हैं किन्तु 'ऐसे संघर्षो' में पफिन ही. विजयी होता है। पफिन के चलिंष्ठ 'चंचु तथा, अटूट साहस के कारण बिलस्थ शशुक्र संघर्ष में टिक

विवरवासी पक्ची.....

.._ हरे विचर में रखते हैं | यदि किसी बिलस्थ शशक या अन्य जनन्‍्तु 'का बना-बनाया विवर ही मित्न जाय तो उसे प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण

॥॥ ल्‍

पा ! | | | ॥॥॥| | |

(

|

(| |

दर

| ५३

सा अल

0

॥॥॥॥||॥|

. शशक के बिल पर त्रिकोणचंच (पफिन) का अधिकार

७४ ञञन्तु बिल कैसे बनाते हैं

नहीं सकता | यदि पफिन को कोई बना बनाया विवर मिलते तो बह स्वयं ही वृहद्‌ आकार का विवर खोद डालता है

पफिन विचित्र पत्ती है | इसके शरीर की लम्बाई लगभग एक फुट होती है | चोंच त्रिकोणीय होती है तथा तोते की चोंच समान आड़े गडढों या दरारों युक्त होती है। प्रीष्मकाल में चोंच का रह नीला, पीला झोर लाल होता है। शीतकाल में मूस और नारंगी होता है। शरीर का ऊपरी तल काला, मुख हल्का धूसर और अधो तत्न श्वेत होता है। पेर ओर डँगलियाँ ग्रीष्म में लाल और शीत-

काल में पीली हती हैं। मुख का भीतरी भाग पीला होता है ।प्रौद

पत्तियों में शीतकाल्न में ग्रीष्मीय चोंच के आधारस्थल्न का ऊपरी भाग मड़ जाया करता है। इसलिए इसे चंचुपाती भी कह सकते हैं यह पाना में पंख के बल तैर सकता है। पीछा किए जाने पर उड़ने की अपेक्षा पानी में डुबकी लगा लेता है। यह आधे मिनट या उससे भी अधिक तक डुबकी लगाए रह सकता है। मछली या पानी के पेटे में रहने वाले कोशस्थ जन्तुओं (घोंघों) और केकड़ों आदि को खाता है।

सेंट त्ञारेंस की खाड़ी, लेत्रडर, श्रीनलेंड, आइसलेंड, इंगलेंड, फेरो दीप, स्पिट्सबर्गेन, तथा नोवा-जेम्बिया आदि अन्य द्वीपों ओर नदियों के मुहाने में इसका जनननन्षेत्र है। जाड़े में भूमध्य सागर तक चलना आता है।

त्रिकोणचंचु या पफिन समाजप्रिय जन्‍्तु है। चट्टानों के ऊपर था नीचे घास डगे ढात्ञों या घास उगे पहाड़ी द्वीपों पर विशातज् उपनिवेश बनाकर रहता है। चट्टानों या ढाल के छेदों में अण्डे देता है या विवर स्वयं खोदता अथवा अन्य जन्तु का बनाया बिल्ल

... हड़प लेता है और उसमें अण्डे देता है।नर्म भमि के ह्ीपों में ..._. विवर खोदने की सुविधा होने पर खुदाई के लिए स्थान चुनता है ।,

नर पफिन मुख्य खनक होता है, परन्तु मादा भी खनन कार्य (खुदाई) में सहायता करती है। विवर खोदने में यह पक्षी इतना अधिक व्यस्त रहता है कि उसे विवर में हाथ डालकर पकड़ लिया

जा सकता है। विवर की औसत लम्बाई तीन फुट होती है |चह

प्राय: सीधी नहीं होती बक्र रूप में बनी होती है उसमें दुहरा . द्वार भी होता है। भीतर किसी प्रकार का घोंसला निर्मित नहीं - होता विवर के अन्त में नग्न तत्न पर ही अंडे देता है। इस

कारण अण्डा प्रारम्भ में श्वेत होने पर भी यह कुछ ही समय में

इतनी गहरी छीटों युक्त हो जाता है कि उसका पूर्व रूप अनुमान . करना कठिन हो सकता है

पफिन के विवर इतने गहरे द्वोते हैं कि यदि यात्री उस चट्टान

के छोर पर चलता है जिसके नीचे पफिन अरडे देता है तो यात्री अपने पैर के व्याघात के कारण पक्षियों के शब्द करने, गल्ते में श्वास गड़गड़ाने की ध्वनि को सुन सकता है। शिशु पफिन को - माता-पिता बिवर के अन्दर छः सप्ताह तक चारा चुगाते है शिशु

.. स्वयं एक सप्ताह तक विबर में पड़ा रहता है उसके बाद रात को समुद्र में चला जाया करता है वह उस समय उड़ने से विवश

रहता है | केवल तैर ही सकता है। उसके अनेक श्र होते हैं।

अभी उसकी चोंच पू्णों विकसित नहीं रहती। अतएव माता-पिता अपने शिशु की रक्षा का सब कुछ प्रयत्न करते हैं। यहाँ तक कहा.

जाता है कि शत्र से जीत सकने पर अन्तिम उपाय रूप में वे शत्र को चोंच में पकड़ऋर स्वयं भी उसी के सांथ समुद्र में कूद पड़ते है किन्तु पफिन बड़ा कुशल तैराक होता है समुद्र का लहरों में बह तैर और डुबकी लगाकर विजयी बन सकता है

शैलचटी ( सेंड-मार्टिन )

विवर खोदने वाले सर्वोत्तम पक्षियों में शैज्मवटी की गणना... है

विवरवासी पक्षी... ड्छ

+685438309 7 7४४:52/23७४ 09

जद . जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

की जाती है। यह जितना अधिक श्रम सुगमता से सम्पन्न करता है उसके लिए इस भव्य छुद्राकार पक्षी की शक्ति अत्यन्त असंतोषजनक जान पड़ती है। इसकी नन्‍्हीं सी चोंच देख कोई भी नहीं कह सकता कि यह यथेष्ट कठोर पाषाण में छिद्र कर सकने में समर्थ हो सकता है। किन्तु यथार्थ तथ्य यही है कि शैल्नचटी

धार बिल्कुल नष्ट हो जाय।

जाय जो नर्म हो और उसके पाश्य धँसने का भी भय हो, तो उस स्थज्न की सुविधा को अवश्य स्वीकार करेगा ऐसे अनेक उदाहरण देखे गए हैं जिनमें इस पक्षी ने कठोर पत्थर की तहों के मध्य कोमल स्तर को विवर बनाने के लिए चुना जिसमें केवल ख़ुरचकर शिथित्न मिट्टी बाहर फेक देने की ही आवश्यकता हो

... जब कभी शैज्नचटी को ऐसा सुविधाजनक स्थान नहीं मिलता जिसमें खुदाई का कार्य बहुत कठोर हो तो वह स्थान-स्थान पर चाँच मारकर स्तरों की कठोरता तथा कोमलता की परीक्षा करना प्रारम्भ करता है अन्त में कोई कोमल स्तर मिल जाता है। फिर वह गोलाऊं की दिशा में खुदाई प्रारम्भ करता है। इसके लिए यह अपने पैर को धुरी सी बनाकर चारों ओर शरीर घुमाने लगता है . घूमते समय चोंच से भूमि भी खुरचती जाती है। चोंच मार-मारकर .... चारों ओर खुदाई कर बह शीघ्र ही एक गोल बिल बना लेता है। कुछ

... दिनों बिल में रहने के बाद डसंके चारों ओर के भीतरी तल ऊन्‍्चे-

... रहती हैं. और बिवर बिल्कुल गोल नलिकाकार होता है। प्रत्येक

ऐसे पत्थर में भी बिबर खोद लेता है जिसे खुरचने में छुरी की तीत्र

शैल्नचटी पक्षी सुगमता के कार्य की अपेक्षा कठिनता के कार्य को कभी भी अच्छा नहीं समझता यदि उसे ऐसा कोई स्थल्न मिल _

_ से हो जाते है, परन्तु खुदाई होने के समय बड़ी चिकनी दीवालें

अवस्था में बिल छुछ ऊध्वेवर्ती होता है जिससे वर्षा का पानी...

0

हे

| |

|

| |

||

पा हा | |.

का

पे) ; का

'.

! रा |! हर 6

.. विवरवासी पक्षी 5७

_ उसमें जमे बिल की लम्बाई विभिन्न होती है। औसत ढाई फुट लम्बाई होती है

शेलचटी के बिवर की दिशा प्राय: सीधी होती है किन्तु कभी कभी वह टेढ़ी हो जाती है | यदि कोई जड़ या छोटा-मोटा पत्थर बीच में पड़ जाय तो कुछ मार्ग टेढ़ा कर शेज्नचटी विवर खोदने लगता है किन्तु मांग में बड़ा पत्थर जाय तो वह विवर को. धूरा ही छोड़कर कहीं अन्यत्र खुदाई कर विवर बनाने का प्रयत्न करने लगता है। इस प्रकार के अनेक अधूरे विवर पथरीले कगारों

... में देखने को मिल सकते हैं जो शैतज्नचटी के निष्फन्न प्रयास के

परिणाम ही होते हैं

विवर के अन्तिम छोर पर जननकक्ष या घोंसला होता है उसकी चोड़ाई विवर की चोड़ाई से अधिक होती है | बह बहुत ही साधारण रूप का होता है उसमें कुछ सुखी घास बिछी होती है.। कुछ नर्म पर (पतत्र) भी उसमें मिले होते हैं. जो पक्षी के शरीर के भार के कारण बैठने से कुछ दबा रहता है। इस मामूली घोंसले के ऊपर अंडे दिए जाते हैं। अण्डे बहुत ही छोटे और हल्के गुलाबी श्वेत रंग के होते हैं.।

अण्डा सेने के काये के समय शैलचटी को कोई श्र हानि. नहीं पहुँचा सकता नर्म बलुही मिट्टी को चूहे पकड़कर चढ़ नहीं सकते। वीजेल ( काष्ठनकुल ) भी बिवर में पहुँचने में कठिनाई अनुभव कर सकता है। जब शिशु शैज्चवटी जन्म धारण कर लेता है तो अनेक शत्र उसकी ताक में पड़ जाते हैं। कौए तथा दध्यक ( दहँगल ) विवर के द्वार पर प्रतीक्षा करने लगते हैं जिससे शिशुओं के उड़ने में अनभ्यस्त होने के कारण उन्‍हें पहली उड़ान के समय ही हड़प लें कुलिंग-श्येनक (स्पैरो हाक) तथा रंगणश्येन (केस्ट्रेल)

अत

ञ्ण ... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

भी बीच में ताक में रहकर कितने शेज्नचटी को विवर से बाहर होते ही ले भागते हैं क्‍ शेलचटी मक्खियों को उड़ते समय ही पकड़ खाता है, इस- लिए उसके इस कल्याण-कार्य के कारण डसके विवरों के उपनिवेश के निकट रहने वाले क्ञोग इनके बिलों में मनुष्य का हाथ लगने : दैने का प्रयत्न करते हैं | किसी प्रकार मनुष्य के कौतृहल् द्वारा ही इनका नाश होने से छटकारा मिलता है।

सम्ुद्रकाक ( स्टार्मी पेट्रेल )

... एक ओर तो समुद्र की भीषण लहरों के ऊपर कुछ उड़ान और कुछ दोड़ का संयुक्त प्रयत्न कर समुद्रकाक अपनी कुशलज्ञता. का परिचय देकर चलता है और दूसरी ओर यही उदधिगामी स्थल पर खुदाई कर विवर निर्मित कर दिखाता है। समुद्र-गमन में कितनी

भी कुशलता हो, परन्तु पत्ती विहंग ही है, समुद्र पर अपने जन्म

बारण करने के लिए आधारित होकर वह कुल-गोरव कल्नंकित नहीं

होने देता अपने विबर के लिए वह यदि कोई बना-बनाया गड्ढा प्राप्त कर सकता है तो उसे ही ग्रहण कर लेता है। इस उद्देश्य से

....._ वह तटीद् भूमि का पर्यवेक्षण करता रहता है। कोई उपयुक्त छिद्र .. पाकर उसी में अण्डे दे देता है।

.. कोई भी स्वाभाविक या अन्य प्राणी के बनाए छिद्र या विवर . को पाकर विवशता की दशा में वह विवर खोदने के लिए स्वयं...

... _तप्पर होता है। बलुही भूमि के ऊपर भी निधास बनाकर बह संतुष्ट:

..... हो सकता है। नोवास्कोटिया में बहुत से निम्नतत्लीय द्वीप है। ... उनके ऊपरी भाग बलुहे से हैं। निचले भाग पंकिल हैं। ऐसे स्थल

में किसी प्राकृतिक छिंद्र के होने की आशा नहीं की जा सकती फिर

... भी जन द्वीपों में हजारों को संख्या में संमुद्रकाके सन्‍्तानोत्पादन' के:

विवरवासी पत्ती... क्‍ ७६ आ। लिए पहुँचते हैं ये बड़े अध्यवसाय पूवक बलुही भूमि में विवर |

_अमाकमममानज र् | ऋरमिक नि, लक 4 दा | ? हि; बज का ८४, * जी च्य्णा हा ज्की आजा ध्यी "दी अदा. क्र अकाकओीी,

23: >> 'ऋजऑक्चव:: 0 जला बल मवं हम मन ५, वा है हा 0४ ;

] | मत] $्० | ढ' (८८०2. पा | |

>+>न्करपालक, | | रा ;; 8 (20 || अऋष्लकरस २. अ्म्मायाकओ री... ३, कमाव,, ॥॥ ॥! ! ॥॥ 2] ज++ ॥॥ | . के अं नतकन 202%+020 000; है, हे कलम यमन या 2 व्वकक, अजीत का अत २, बल नि ॥+ हू हे #/५ 7 ्रट्ट |] है किक | ! हर | ॥। जप (| ' 5. १८ बा छः 4 [/] थ्् हा "हि री

|

४५० 2] ! | |! | + | | 00 | ॥॥0॥ 0

क्‍ समुद्रकाक (स्टार्मी पेट्रेल) का बिल बनाते हैं। एक फुट से अधिक गहरा विवर कदाचित्‌ ही कभी खोदते हों यथार्थ में वे इतना ही गहरा गत या बिवर बनाते हैं जिसमें स्वयं तथा अणडे बच्चे को छिपा सकें मम ... अत्येक समुद्रकाक केवल एक अण्डे देता है। अण्डा छोटे ही आकार का ओर श्वेत होता है। नवजात शिशु विचित्र आकार के... होते हैं। नन्‍्हें शिशु के स्थान पर वे कोमल श्वेत रोम के फाहेसे .. | जान पड़ते हैं| माता-पिता दत्तचिच होकर उसका पोषण करते है। इन पक्षियों के पाचक अंगों में एक तैल ख्रवित होता है। वे

८०. क्‍ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

शिशुओं को उसी का पान कराते हैं। यह तैल इतना अधिक स्रवित- होता है कि संसार के कुछ भूभाग में मूलबासी समुद्र काक को ही लैम्प सा प्रयुक्त करते हैं। उसके अज्ञः में केवल बत्ती प्रविष्ट कर उसे जल्लाकर प्रकाश प्राप्त करते हैं तेल तुरन्त ही बत्ती में चढ़ जाता है. और वह इसी प्रकार जलने लगता है जैसे किसी भी प्राचीन अलं- कृत दीपक में आदिस तथा भद्दे रूप में जल सकता हो क्‍

यथेष्ट आहार ग्रहण करने पर कितने ही अन्य तटीय पक्षियों को प्रचुर मात्रा में बसा प्रदान करते देखा गया है। ज्वार-सादा वाली नदियों के मटमैले तटों का भ्रमण करने बाले जलरंक पक्षी (चुपका) पंक में रहने वाले अनेक जन्तुओं का आहार करता है। वह अपने शरीर में इतनी प्रचुर बसा एकत्र कर लेता है कि उसकी

खाल उतारना असम्भव काये होता है। उँँगलियों की गर्मी सेही .

त्वचा तथा मांस के मध्य की वसा पिघल्ल उठती है और तेल की भाँति परों के ऊपर प्रवाहित होने लगती है। यद्‌ जलरंक के शरीर _ के बसा का इतना भंडार देखने का अवसर मिला हो तो समुद्र ...काक को दीपक बनाने की घटना पूर्णंत: कपोल-कल्पना ही ज्ञात

हो सकती है |

समुद्रकाक अपने शिशुओं को केवल रात को ही खिलाता है।

दिन भर वह उड़ता ही बिताता है और भूमि से बहुत अधिक दूर . तक उड़कर पहुँचता रहता है इस प्रवृत्ति तथा भारी समुद्री तृफानों . के समय भी समुद्र में ही पड़े रहने के स्वभाव के कारण यह . माँमियों के लिए भयानक रहता आया है। प्रवल इब््जिन-चालित

जलयानों के आबविष्कारों के पूर्व समुद्रयात्रा में संलम माँफी तृफानों

के उत्पन्न होने का कारण अपनी अआान्त धारण के फत्तस्वरूप समुद्र- . काकों को सममते रहें हैं उनका तो यह भी विश्वास था कि समुद्र -

_काक कभी भी स्थत्ञ भाग में नहीं जाते वे समुद्र में ही अण्डे देते

. विवर्वासी पक्षी... ८९

हैं और उन्हें अपने पंखों के नीचे ही दबाए रखते हैं | अन्यथा उन्हें यह कैसे विश्वास होता कि तूफान को माँकी जहाँ यम का कोप सममभते हैं उसी में समुद्रकाक खेच्छा से निवास करने वाला कोई साधारण पक्षी ही है जो केबल आहार के लिए उस विकराल वाता- बरण में दिन का समय व्यतीत करता है समुद्रकाक के लिए समुद्री तूफान ही प्राण है क्योंकि बह जिन समुद्री पदार्थों का भोजन करता है, वे तृफान के समय ही ऊपरी तल पर फेंक दिए जाते है उन्हें डूबने के पहले ही वह रपट लेता है। किसी अदृश्य शक्ति के कारण समुद्रकाक को तूफान के आग- मन का पहले ही पता चल जाता है अतएब समुद्र में उसके दिखाई पड़ते ही आगामी वातावरण को तुर्त ही अनुमान कर अपने पाल्नों की कम कर दिया करते थे साथ ही इसे अपशकुन या विपत्ति का संवाददाता मानकर अपंशब्द भी निकालते थे सन्तानोत्पादन काल में समुद्रकाक सतत आहार की खोज रहता है। यह जहाजों को देखकर उनके साथ-साथ इस लोभ से... चलता कि जो भी पदार्थ मामी समुद्र में फेक दें, उसे वह खा ले या... बच्चों को खिलाने के लिए ले जाय | वह रात भर अपने शिशुओं

. के साथ रहकर शब्द करता रहता तथा उन्हें खिलाता रहता है।

उसका विवर अत्यन्त बदबुदार होता है जिस तैज्ञ पदार्थ पर यह जीवित रहता तथा शिशुओं का पोषण करता है, वह भारी 'बदबू का कारण होता है | शिशु बड़ा दुबेल्ल तथा असहाय रूप में रहता . है। वह कई सप्ताह तक बिवर में ही रहता है।

काष्ठकूट ( कठफोरवा )

पत्तियों के भूस्थित विवर खय॑ निर्मित होते हैं, या दूसरों के . बनाए विवर ही अपनाए हो सकते हैं | किसी प्राकृतिक गड्ढे में भी

रे... अन्‍्तु बिल कैसे बनाते हैं !

मुधार और खुदाई कर वे अपना काम चलाने योग्य विवर बना लेते हैं| इस तरह का प्रयत्न काठ के अन्दर भी पक्षियों को करते पाया जाता है। वे कभी रवय॑ ही काठ खोदकर अपने लिए काष्ठ-विवर बना लेते हैं, या अन्य जन्तुओं द्वार बनाए काष्ठ-विवर का ही उपयोग

गलां भाग होने या कोई खोखला होने से उस्री में: काष्ठ-विवर निर्मित कर लेते हैं। काठ के अन्दर खुदा होने से इन विवरों को कोटर नाम दिया जाता है। ऐसे विवर बनाने वाले पत्तियों में काप्ठ- कूट ( कठफोरवा ) बहुत ही प्रसिद्ध हैं क्‍

काष्ठकूट की कितनी ही.

... कठफोरवा जातियाँ होती हैं। इनके उदा- ..._ हरण संसार के अधिकांश भभागों में पाए जा संकते हैं। चोंच, पैर और पूँछ की विचित्र रचना के कारण वे अन्य पक्षियों से विभिन्न पहचाने जा सकते हैं। उनकी चोंच छात्र तथा काठ के खोदने में समथ होती है। पैरों में ऐसी क्षमता होती है कि पेड़ के तने से चिपके रह सके अन्य पक्षी भी वृत्तारोहण करते हैं, परन्तु कठ- फोरवा की वृक्षारोहण विधि विचित्र ही होती है। वह ऊपर की

050 4:05: % 25% 0 “जा शी 45 7: ही जज

352 --3:2: 0 /9े,;रिटकश्रा्रक्मा॥४ तू >> नस्न् धाा णिषा के म्कः

विवरवासी पक्षी... को हे पे

ओर छोटी-छोटी कुदान या उचक रूप में चढ़ता है! उसकी तनी हुई पूछ तने से चिपक जाती है और तिपाई के पाए समान काम देती है जिसमें दो पाए उसके पैर होते हैं, ऐसे ढ्ग से वह तने पर भल्नी-भाँति ठहर सकता है। उसकी चोंच की छोर रुखानी समान पैत्ती होती है उसके द्वारा वह सड़ती लकड़ो का पता लगा लेता है ओर अन्दर सुरक्ष बनाकर रहने वाली इल्ली को टठोलकर खा.

ज्ञाता है।

शल्कोदर काष्ठकूट (स्केली-बेल्लीड वूडपेकर) का शरीर १४ इच्च क्‍

. ज्म्बा होता है। सिर के ऊपरी तन्न और चोटी का रह्गड लाल होता

है। शरीर के ऊपरी तल का रहज्ञः हरा होता है। पूँछ के आधार- स्थल्न के निकट पीला रक्ष भी प्रचुर मात्रा में मिश्रित होता है। मादा में सिर का रद्ग लाल के स्थान पर काला होता है। इस काष्ठकूट -

का डद्र हरा युक्त श्वेत होता है। उसमें काले शल्क (छिछड़े) बने होते हैं इसी कारण इसका नाम शल्कोद्र काष्ठकूट है। कंठ और वक्त फीका धूसर होता है

शल्कोदर काष्ठकूट के पैर की उंगलियों में एक जोड़ा आगे की.

. ओर तथा एक जोड़ा पीछे की ओर होती हैं | ऐसे रूप की एँगलियों

से ही वृक्त पर चढ़ना सम्भव हो सकता है। सभी काष्ठकूटों में ऐसे पैर ही होते हैं। इसका प्रसार ट्रांस-कारिपयंन प्रदेश, बिलो- चिस्तान, अफगानिस्तान और पश्चिमी हिमालय है ।यह नेपाल की घाटी तक पाया जाता है ५००० फुट से लेकर ११००० फुट की ऊँचाई तक रहता है।

शल्कोदर काष्ठकूट अपना काष्ठ-विवर किसी तने या शाखा

में बनाता है। उसकी लम्बाई २० से ३० इच्च तक होती है। अन्त

. में जनन-कोटर होता है जो प्राय: कोई स्वाभाविक खोखला ही होता है और भीतर लकड़ी के सड़ने गलने से बना होता है।

हा ..._ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

वश्र भाज्ञ कबु काष्ठकूट का शरीर आठ इच्च ही लम्बा होता है। भाल और शीर्ष का रह्ठ वश्च ( भरा ) होने से इसका नाम पड़ा है। शिखा का रह्ढ आगे के भाग में स्वर्णिम पीला तथा पीछे के भाग में लाल होता है। सिर, गदन और हनु के पाश्वें भाग सूद्ठम मात्रा में काले के मिश्रण युक्त श्वेत होते हैं, शरीर का ऊपरी तल काला होता है जिसमें अगम्न प्रष्ठ तथा स्कंध प्रदेश में श्वेत छोटी- छोटी आड़ी पट्टियाँ मरी होती हैं। पंख काले होते हैं जिन पर श्वेत. घब्बे होते है | पूछ काली होती है | बाहरी परों में पीत श्वेत कगर.. होती है | इन रंगों से इसका रूप कबुर ( चितकबरा ) होता है। अधोतल पिंगल श्बेंत होता है। उसमें भी रंगीन रेखएँ, धब्बे आदि होते हैं। मादा'में शिखा में सुनह्ला तथा लाल रंग नहीं होता

भाजल तथा शीषे से कुछ अधिक पीला सा होता है

. इसका प्रसार पश्चिसी हिमालय में नेपाल तक है। २००० से ७४५०० फुट तक मिलता है ६००० फुट तक भी इक्के-दुक्के मिलते हैं। इसका काष्ठ-विवर सुन्दर बना होता है.। उसमें ,घोंसला नहीं बना होता छेद में नंगी लकड़ी पर ही अंडे दिए जाते हैं। प्राकृ- तिक कोटर भी उपयोग में लाता है |

. पीतभाल कबुर काष्टक्ूट के शरोर की लम्बाई सात इच्च दी होती है | बुलबुल के बराबर आकार समभना चाहिए | इसका रह्क काले और श्वेत रक्न मिश्रित चितकबरा ( कब्र ) होता है, परन्तु शीर्षक का रह्ज भूरायुक्त पीला होता है। उदर और गुझह्मांग के समीष

.. _. लाल रहक् होता है सादा की शिखा का पिछला भाग लाल नहीं

. होता। इसका प्रसार सारे भारत, उत्तरी सीज्ञोन, ऊपरी बर्मा तथा कोचीन चीन ( हिंद चीन) में है। इसे मराठा कठफोरवा भी कहते

जे : हैं। हिमालय में २४५०० फुट की ऊँचाई से लेकर दक्षिणी भारत की

अन्तिम छोर तक यह पाया जा सकता है।

विवरवासी पक्षी. | पर

पीतभाल कबर काष्ठकूट का काष्ठ-विवर वृक्ष की किसी शाखा में बना होता है। लंबबत्‌ बाहर फैली शाखा के निचले तल में ही इसका कोटर होता. है। उस कापष्ठ-विवर का व्यास डेढ़ इब्ब होता है। वह १४ इश्व लम्बा होता है भीतर कोई घोंसला नहीं बनता | विवर के नंगे काठ पर ही अंडे दिये जाते हैं। भीतरी गड़ढा

.. अनियमित रूप का ही होता है | आरक्त काष्ठकूट विचित्र वृत्ति का पक्षी है। इसके शरीर की

_ ह्म्बाई १० इचञ्च होती है। इसका पूर्ण शरीर बादामी भूरा होता है। जहाँ-तहाँ कुछ विभिन्नता होती है | इसकी कई उपजातियाँ हमारे देश में पाई जाती हैं। यह कठफोरवा लाल चींटों से सम्बन्ध रखने के लिए प्रसिद्ध है। लाल चींटे (मठा) वृक्षों पर रहते हैं और अपने घोंसले या मोंमे पत्तियों को जुटाकर दृढ़ रूप का बनाते हैं | एक बार जिस जन्तु को ये पकड़ लेते है, उसे छोड़ नहीं सकते अतएब ऐसे भयानक जन्तुओं से सभी जनन्‍्तु दूर रहते हैं, परन्तु आरक्त काप्ठकूट नहीं डरता वह इनके संपके में रहता है। अपनी 'पूं के कठोर तल से दबाकर ल्ञाल चींटों को मार डाल्ता है। पेछ की रगड़ से उनकी धड़ अलग हो जाती है किन्तु उनका मुख पूछ से चिपका ही रह जाता है। इस तरह बहुसंख्यक लाल चींटों के मुख पूछ के निम्नतत्न में चिपटे पड़े रहते हैं | परन्तु इतना ही नहीं, ज्ञाल चीटों

के दृढ़ घोंसले के अन्दर ही यह कठफोरवा[ अपना घोंसला-सा बना .ज्ञेता है। भीतर अंडे देता है और शिशु उत्पन्न होते हैं। ज्ञाल चींटे

: इन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचाते | यह विचित्र घटना है।

स्वणप्ृष्ठ काष्ठकूट सेना के आकार का पक्षी है। शरीर की

लम्बाई ११ इच्च होती है इसके नर में शीर्ष तथा शिखा पूर्येत . ज्ञात होती है नर और मादा दोनों की पीठ सुनहली होती है . यह सारे भारत में पाया जाता है। _

८६... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

भारतीय काष्ठकूटों में यह प्रसिद्ध पक्ती है। शरीर के भव्य रहो तथा अधिक साहस के कारण इसकी जाति प्रसिद्ध है। यह जजों से दूर खुले मैदानों तथा खेतों, वाठिकाओं आदि में रहता है। वहाँ पुराने वृक्षों में इसे शिकार करने का अबसर प्राप्त होता है इन वृक्षों पर वह अकेले या जोड़े रूप में रहता है। वृक्ष के तने तथा डालों पर चढ़ने में व्यस्त रहता है। यह पैरों तथा पूछ की सहायता से चिपक कर अपना शरीर तने या शाखा से लंबवत्‌ खड़ा रखता है किन्तु सिर ऊपर किए रहता है। टहनियों की संधि में यह कभी नहीं बैठता | तने या डाल पर कुछ नीचे किसी दरार _ या गडढे में कीट का पता लगाने के लिए भी वह नीचे की ओर उचक कर ही उतरता है।...

स्वगाप्रष्ठ काष्ठकूट स्वयं ही काष्ठ-विवर खोदता है उसका द्वार प्राय: इध्च व्यास का होता है। वह कुछ दूर आड़े रूप में ही जाकर फिर नीचे जाता है.। नीचे अन्तिम भाग में इच्च व्यास का बड़ा कोटर होता है जिसमें लकड़ी के चूरे या कबाड़ पर अंडे . दिये जाते हैं किन्तु काष्ठ-विषर खोदने के पूर्बे यह छोटा या बड़ा . कैसा भी प्राकृतिक कोटर ढंढ़ने का प्रयत्न करता है. जिसे सुधार कर

विवर बनाया जा सके

........::>$ पिप्पल ( कठखोरा

... यह गेयैया से थोड़ां बड़ा पक्षी है। इसका रड्ः घास-सा हरा ... होता है। चोंच भारी होती है। उद्र पर हरे रज्न की रेखाओं युक्त ... पीला रंग होता है। वक्ष गहरा ल्ञाल होता है। पूछ छोटी और ... चौकोर होती है। यह ठठेरे की तरह दिन भर ठुक-ठुक शब्द करता ... रहता है। यह सड़ान-गलान वाली डालों में या इच्च गहरा ..... छेंदकर अपना काष्ठ-विवर बनाता है। उसे प्रतिवर्ष बढ़ा-बढ़ाकर

42% मत २:

पिप्पल (कठखोरा)

बड़ा करता है .इसलिए उसकी गहराई कई फुट हो गई होती है। गाड़ी डाल में काष्ठ-विवर बनाने पर नीचे की ओर ही द्वार रखता

है द्वार का व्यास दो इच्च होता है। वाधीणस ( पनेश )... धनेश या वाध्रीणस धोबिया चील के आकार का पक्षी है। इसकी चोंच उजले और काले रह्ञः की तथा मुड़ी हुईं होती है।

जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

हम

+ 2 कि

व््र 5 जज

वाध्लीणएस का को

* ५७ कं, 74 आंक मं पहला मिल्क काका ता पा काबुल क्वा एप 7काए। हक पटक ना पलटा करा

तु हि ९; हि 2 05280 के 4% 46880: कक डाक अफरटरहए लाना कलत पापशतलल्क ०-५ सह बुकदता एव “दा पक रत ता काधयए कद

पा | | हे ; “लत पफबापूट पका शरानक “मजबूर पा लय पाक पडा मरतत राहत उन एकर गए रवाना जातक "पा कण: कण ०० ५५४४७. हर ि हु ; के है हे बट कट (हक

विवरवासी पक्षी... ८&

रत उसके ऊपर विचित्र उभाड़ होता है। दक्षिण भारत के मतल्ावार तट पर पाये जाने वाले वाधीणसों में चोंच के ऊपर उभार नहीं होता | वे दूसरी जाति के होते हैं .... बाघीणस के शरीर का रक् उजलाः काला मिश्रित होता है। ... बसंत के आगमन पर मादा धनेश किसी वृत्ष-कोटर में बनन्‍्दी बन . जाती है। अपने बीट को सीमेंट की भाँति अपनी चोंच से कोटर- .... द्वार पर लिपटा लिपटा कर उसे छोटा कर देती है। अंडा देकर ४. भीतर सेती रहती है।इस अवधि में नर वाध्रीणस उसे बराबर .. चारा लाकर खाने को दिया करता है। इनका कोटदर आम, बरगद, पीपल आदि वृक्षों में बना होता है। कोटर का द्वार छोटा हो जाने _ से केवल्न चोंच ही भीतर जा सकती है अतएवं मादा को बराबर आहार प्राप्त होता रहता है, परन्तु कोई शत्र भीतर नहीं पहुँच सकता सर्प या अनेक अन्य जन्तु उसके श्र होते हैं। उनसे रक्षा पाने का यही साधन होता है

भ्रद्रृतम उलूक

नागफनी के काट में कोटर बनाने वाले जानबर की मू्खंता प्रकट करने के लिए उल्लू नाम से पुकारा जाय तो कोई अनुचित नहीं, परन्तु प्रत्यक्ष क्ुद्रतम उलूक को ही कोटर बनाकर नागफनी ... : में रहने का उदाहरण मिलता है तो कया आश्चर्य किया जाय।.. उल्लू को मु भले ही कहा जाय परन्तु यह घोंसला बनाने का श्रम | उठाए बिना ही काम निकालना जानता है | फठफोड़वा पक्ती कभी- ' | कभी अपने चंचु से नागफनी में छेद बनाये होते हैं छुद्वतम उलूक... डसे ग्रहण करता है। नागफनी का रस चूकर जम जाने से भीतरी... परत दृढ़ चाद्र-सी बन गई होती है | उसी में घुसकर छुद्वतम उलूक अपना घोंसला बनाता है यह गोौरैया के बराबर ही पक्षी है तथा 5

जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

बा

७००७ ७५ शा. ट्र . हज

ञ््‌ ++म्या का का...

*्च्व्वज्धस्स्ल

५:22 मल की “अल चल 3 बल “28 सतर डर २००३ 22० 7-० लक ५... कक 2 > ंंिचचछस 2 मल

कर पे है. 2), है -+5

च्क्

त्ज्क् ७: अआ

विवरवासी पक्षी कक 3 ऑल

शब्द किए बिना ही उड़ सकता है अतएव निश्शब्द' रात भर उड़ान कर शिकार किया करता है। कभी मनुष्य के हाथ पकड़ जाय तो मूर्ला का बहाना कर शिथिलांग पड़ जाता है | पकड़ ढीली होते ही लड़ भागता है। है 0 8 सारिक (मैना)

शीतोष्ण कटिबन्ध के सभी भूभागों में सारिक पाया जाता ... है। यह समाजग्रिय पत्ती है और कई सो की संख्यां में फुणड बना कर रहता है। झ्कुन्ड का नेता एक पक्षी ही होता है। इस पक्षी का... जनन-कक्ष या नीड़ अनेक रूप के स्थानों में बना पाया जाता है।. यह मामूली ढज्ञ का होता है इसका नीड़ कभी भूमि पर ही बना... .. होता है और कभी बिल्लस्थ शशकों के परित्यक्त विवर भी हो सकता _ है इसका विवर जितना ही गहरा होता है, उसका द्वार उतना ही कम पतला रखने से यह सन्‍्तुप्ट होता है। चौरिकाक पक्षी उल्लू

के काष्ठ-विवर पर अधिकार करने का प्रयत्न करता है, परन्तु चौरिकाक से भी सद्ठष कर सारिक अपना ही अधिकार उस पर

जमा लेता है

८)

चाष (नील कंठ) .._ चाष का आकार द्रोणकाक (डोस कौआ) के बराबर होता है इसका शब्द भी बैसा ही ककंश होता है किन्तु पर अवश्य सुन्द्र होते हैं। नीड़-निर्माण में यह बड़ा अव्यवस्थित है। कभी तो यह . वृक्ष के कोढरों में नीड़ बनाता है, कभी नग्न भूमि पर ही नीड़ू हक है कभी बलुहे कगारों में मीनरडू की भाँति विवर खोद त्ेता है

हो

घंटिका पक्षी (बेलबड) मत मी गाइना का घंटिका पक्षी (बेल बडे) अत्यन्त ही विचित्र पक्ती

ध्र जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

होता है। इसमें कई प्रकार की विचित्रताएँ होती हैं यह श्वेत रंग का पत्ती है जिथका आकार कबूतर के बराबर होता दे किन्तु इसका स्वभाव अत्यन्त ही विचित्र होता है। यह दक्षिणी अफ्रिका के सघनतम भागों में रहता है। प्रायः आद्र तथा अत्यन्त नि्जेन स्थानों में यह विशेष रूप में रहता पाया जाता है। वहाँ भूमि पर ही रहता है और कीटों का शिकार किया करता है। इसके मुख के ऊपर तीन इल्ब ऊंची एक सींग सी निकली होती है। यह सींग

पू्णंत: काली होती है उस पर नीचे विरल रूप की कुछ श्वेत चोटियाँ निकली होती हैं | इसकी सींग उत्तेजना के समय ही खड़ी

होती है अन्यथा वह मुख की ओर लटकी रहती है। सन्तानोत्पादन काल में घंटिका पक्षी ऊचे स्थानों को चला

जाता है। विशेषतः पहाड़ी स्थान पसन्द करता है। वहाँ किसी

दरार या दो चट्टानों के मध्य का स्थान ढंढ़ता है। वहाँ वह एक गडढा लगभग बारह इृच्च गहरा खोदता है। उसमें भद्दं ढंग से घास बिछा देता है। वह नीड़ इतना गुप्त बना होता है ।कि बहुत संयोग होने पर ही वह दिखाई पड़ सकता है।

साचिग्रीव (राई नेक)

बहुत से पक्षी अपने श्रम से नीड़ बना कर दूसरों के बनाए _ नीड़ ही उपयोग में ज्ञाने का प्रयत्न करते हैं। साचिग्रीव ऐसा ही . पक्षी है। यह काष्ठकूट के परित्यक्त काष्ठ-विवर को प्राप्त करने .. का सुअव॒सर पा सकता है तो उसका उपयोग करता है किन्तु किसी

5 : भी प्रकार के अन्य वृक्षकीटर को वह नीड़ बनाने के लिए भी

. प्रस्तुत रहता है। ऐसे कोटर की वह अधिक पसन्द करता है जहाँ

के . से कोई डाल टूट गई रहती है। उसके टूटने से संधि-स्थल का - . काठ गल्न-गल कर टूटता जाताहै। इसी कोटर में यह अपना नीड़ू...

है] है हे 3 23, 3 3०५. 3०२; -के सके पतले वर 2 एआ कल पी 2१5४ मटर मिकी 438. थे 22 222८3 उपचात के +ं++की + श्र २कमप 330 सी अपनाकर: दिकन०८कन फेक 7 “00 7 कप सत्र +क के %-+_ मा 5 अकाल की आम 80 आल

अमीज की एकल यम 3 +> 5] 22:20 02700622620 00030:

विवरवासी पक्षी ६३ बनाता है। यह सड़ती हुईं लकड़ी के टुकड़ों पर ही अंडों के देने के लिए उपयुक्त स्थान सममता है। इसे विवरबासी पत्तियों में निम्न श्रेणी का ही कहा जा सकता हैं जिसे अपना विषर रवय॑ अपने प्रयत्न से सुन्दर बनाने का ध्यान नहीं होता। यह सुस्त : पक्षी है, फिर भी अपने काष्ठ-विवर तथा शिशुओं की रक्षा करने से पीछे नहीं रहता इसकी छोटी चोंच तो भ्रहार करने के अयोग्य ही होती है, उससे किसी शत्र को आहत करना असम्भव ही होता है| फिर भी वह आगन्तुक शत्र की भयभीत कर भगाने के लिए गदन बढ़ाकर चोंच मारने का स्थॉग सा करता है। अपनी कल्षेंगी खड़ी कर लेता है तथा मुख से सिसकारी मारने लगता है उसकी गदन और सिर का रूप विवर के बाहर निकले होने और गदन लम्बी. करने से इसका रूप अवश्य डरावना लगता है।

शिलीन्ध्री (ज्ञुथेच)

शिल्ीन्धी पक्ती अद्ध विवर्वासी कहला सकता है। मुख नीचे _ .. कर वृक्ष के तने पर उठ्टे ही चढ़ने की क्रिया के लिए ही यह प्रसिद्ध . है। यह सदा किसी वृक्ष के सड़ने के कारण बने कोटर को चुनता है और उसे अपना नीड़ बनाता है। यह प्रायः ऐसे कोटर ही चुनता है जिसका मुख छोटा हो परन्तु यदि उसका द्वार बड़ा हो

तो मादा शिक्षीन्धी दीवालों में मिट्टी का लेप कर द्वार छोटा कर | हर लेती है। मादा साचिप्रीव तो शन्रुओं को केवल अपने उम्र रू... : दिखाने का स्वॉग कर ही भयभीय करने का प्रयत्न करती है परन्तु.

+ मादा शिलीन्मी दूसरा मागे प्रहण करती है। ज्योंही कोई शत्र॒.. -.. निकट आता है, वह प्रचंड उमप्रता के साथ उछल कर उस पर चोट...

कर देती है और अपने प्रबल चंचुओं से सचमुच मार करती है। साधारण शत्रु तो ऐसे आक्रमण के सामने अवश्य ही भाग जाता.

# है तह 2 हू

६४४... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

हहपटलम- आयकर कया पधालकाउनवे साफ तय हर कल लाडप धक्का पर वाद धवायाप बाधक मापा

मा

है शिलीस्धी के चंचु की चोट साधारण नहीं होती उसे तो कठोर

हा

2०३०: सहवाबरतपसतरेसहएपर ाध्याचसा

|! ॥।

शत .. शिलीन्प्री ऐड पे छिलके के फ़ल् को भी चोंच की मार से तोड़ सऋना सस्भव होता है। फिर नर्म वस्तु पर उसके प्रभाव की तो बात ही दूसरी है। क्‍

... हुदहुद ( हूपू हुदहुद पक्ती अद्ध विवरवासी है। यह किसी गलते हुए वृक्ष में अपना काष्ठ-विवर बनाता है। उसे वह प्रायः अनजाने ही बना लेता है। इसका मुख्य आहार कीट होते हैं जिन्हें इल्ली से लेकर प्रत्येक विकसित अवस्था तक के रूपों में भक्षण करता है। वे अधि-

रु

विवरवासी पक्षी ६४

कांश कीट इसकी लम्बी चोंच द्वारा गत्ते हुए काठ की खुदाई करने सेग्राप्त होते हैं। वे कीट गले काठों के अन्दर सुरंग बना कर. रहते हैं अनेक कोटों की इल्लियाँ ऐसे स्थानों में रहती हैं ये मोटे तथा पुष्ट शरीर की होती हैं अतएव हुदहुद को उनसे यथेष्ट आहार

प्राप्त होता है। इन इल्लियों को काठ के भीतरी भाग से निकालते...

रहने के कारण हुदहुद केवल उस काष्ठ-विवर को बड़ा ही नहीं करता, बल्कि उसके पेंदे में नर्म काष्ठीय गुदी के छोटे खण्ड सी फेंकता जाता है। उसी में घास, पर, या इसी प्रकार के अन्य पदार्थों का अस्तर देकर अपना नीड़ बनाता है। 3. . हुद॒हुद के नीड़ से बड़ी तीत्र बदबू आती है। इस पक्ती की पूछ में गंधम्नंथि होती है। उससे तीत्र गंधोत्पादक रस ख्रवित होता है। वह इसके लिए किसी प्रकार ऐसे ही विचित्र रूप में उपयोगी होगा जैसे कस्तूरी म्रृग की गन्धग्रन्थि से उत्पन्न गंपैला . द्वव उसके किसी काम आता होगा कम से कम इतना तो होता ही है कि बदबू के मारे कोई हुदहुद के नीड़ के निकट नहीं जाता

... दीषरख़ित चंचु (दौकन)..... टोकन पक्षी को कई जातियाँ होती हैं जो चोंच के रंग की विभिन्‍नता से पहचानी जा सकती हैं। सभी टोकन पत्तियों की

.. चोंच सुन्दर चटकीले रंगों से रप्चित होती हैं। एक जाति की चोंच ..

. नारंगी ओर काले रंग की होती है। दूसरी जाति की चोंच रक्त... तथा पीत वण की होती है। एक अन्य जाति में हरा तथा लाल... रंग होता है। इन सब जातियों में चंचु उसके शरार के आकार के .

(2 हर अनुपात में बहुत बड़ा और बलिष्ट होता है किन्तु उसका भार बहुत _ रे

कम होता है। यह श्रद्भीय पदाथ के कवच सा होता है | कहीं-कहीं

तो उसकी मुटाई लिखने के कागज की मुटाई के बराबर ही होती. हि क्‍

६६ . जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

हे | अन्तर्भाग की कुछ मिल्लियों द्वारा चंचु को रंग प्राप्त होता है जो अद्ध पारदर्शी चंचुतल से प्रतिविंबित होता रहता है

]

:६/ / «कक का+। (0५. ४३ ॥)/ 2 ॥(/ (पक पर २३५३ (02५20 020) एः री) भा! 4 0 ॥॥ 07 0) /22 (६४/८/72/7॥/ 7] /ती/व ) /2/6:7% /27// 7) 000000 (222 हि ला #(/ ५८27 / ८:१८“ ४९ %&22: (१ /4 42: ३4%

आल कई हा टौकन को कोटर. * यह बात बहुत दिनों से ज्ञात थी कि दीघेरक्लित चंचु (टैकन) पत्ती खोखले पेड़ों में नीड़ बनाता है तथा उन कोटरों को ही पसन्द

02228 वर्ड अतलिएर शा"

!

|;

६5

करता है जिसमें किसी छोटे छिंद्र .द्वारा ही प्रवेश हो सके। यह सोचा जाता था कि शिशु टोकन के अनेक शत्र बन्दर, बंडे पक्षी आदि होते है मादा टोकन उन शरत्रओं से शिशुओं की रक्षा के - लिए काष्ठ-बिवर के छोटे द्वार से अपना विशालकाय चंचु ही बाहर निकाल लेती है जिससे शत्र को यह प्रतिभासित हो कि अन्दर अवश्य ही उस चंचु के अनुपात का बड़ा जन्‍्तु है। इससे बह भयभीत होकर भाग जाय |

.. कुछ विद्वानों का कथन है कि टोकन अपने विशाल चंचु द्वारा ही अपना काष्ठ-विबर निर्मित करता है किन्तु यह संदिग्धात्मक बात ही है | बह स्वयं पूर्णो काष्ठ-विवर खोदकर किसी कोटर को ही अपनी आवश्यकतानुसार सुधार लिया करता होगा। यह

क्षजीवी पक्षी ही है। अतएवं जंगल से दूर नहीं जाता। यह दक्षिणी अमेरिका का पक्षी है। यह ऊँचे वृक्षों की गगनचुस्बी चोटी पर ही बिहार करता रहता है | इसकी भारी चोंच जड़ने में असुविधा ही उत्पन्न करती है। उसके भारी बोक के कारण इसका मुख उड़ान

के समय नीचे ही लटका रहता है

दुबल चटक या बतासी ( स्विफ़्ट ) क्‍

दुर्बेल चटक भी अद्ध विवरवासी पक्षी है। यह सदा गडहों में अपना सुन्दर नोड़ बनाता है। कभी-कभी यह जनन-कक्ष की _

आवश्यकता के लिए स्वयं भी सुरंग खोद लेते हैं। जब यह बस्तियों हर

से दूर अपना आवास बनाते हैं तो यह चट्टान की दरारों, वक्त के.

कोटरों या ऐसे अन्य स्थानों में ही नीड़ बनाता है किन्तु बस्तियों .. के निकट रहने पर छप्परों में स्थान बना लेता है। इस पत्ती के पैर... .. अ्रत्यन्त छोटे किन्तु बल्िष्ठ होते हैं। उनमें सभी पादांगुलियों में

: दृढ़ मुड़े चल्नुल होते हैं जो आगे की ओर निकले होते हैं। अतएब.....

यह कोई डाली पकड़ सकने में असमर्थ होता है छः.

'परकापाच०४० "3

ध्प जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

पैरों की विचित्र रचना के कारण दुर्बेल चटक अपने -विवर में बड़ी तीत्रता से चल सकता है। वायु में भी यह तीज्ता से प्रात सायं चक्कर मारता रहता है। विवर में प्रवेश करते समय यह पंख बन्द कर आँधी की तरह पहुँचता है। इसका विवर साधारण रचना होती है सूखे घास पात, ऊन के फाहे आदि का अस्तर देता है। विवर के द्वार से डेढ़ या दो फुट की दूरी पर उप्तके नोड़ की व्यवस्था दिखलाई पड़ सकती है। चूहों के बनाए विवर अधिकांशत: इन

पत्तियों के उपयोग में आते हैं। किन्तु यदि कोई बनान्‍नबनाया विवर

मित्र सके तो यह रबयं भी विवर खोद सकने में सर्वथा सम्थे होता है।

कण हे है.

८282 पट: उप तथ्य तथा तहत भला माया तरल

मन

विवर-निर्मायक सरीस्त॒प

बिल बनाकर रहने वाले जन्तुओं में सरीसपों का स्थान 'नहीं के बराबर है | उनमें से बहुत से जन्तु शीत देशों में कुछ समय तक भूमि में प्रविष्ट होकर दीघ निद्रा में पड़ते हैं और ऋतु की भीषणता एक प्रकार से मूछित या निष्क्रिय हकर ही बिवाते हैं अतएब उसे तो जीवन-क्रिया ही कही जा सकती है ओर इन/सरीसूपों को बिलस्थ जन्तु की श्रेणी में ही गिना जाता है। यथाथत: बिल्लस्थ जन्तु तो वे ही कहे जा सकते हैं जो भममि या काठ के अन्दर स्थान बनाकर उसमें अपना जीवन-व्यापार चला सकते हैं। केवल अप- बाद स्वरूप कुछ सरीस्प ही इस दृष्टि से बिलस्थ कहे जा सकते हैं। साँप भी शीतकाल में बिल दूं ढ़ते हैं किन्तु वें किसी अन्य जन्तु के बनाए विवर से ही सनन्‍्तोष करते हैं | केवल पीत सप॑ की जाति ही स्वयं अपना विवर बनाने की कुशलता दिखलाती है इसलिए इस जाति के सपपे को हम बिलस्थ कह सकते हैं - पीत से जमैका में पाया जाता है यह मनुष्य के लिए पूर्णतः निरापद होता है। इसमें विषदंतों का अभाव होता है। इसके शेरीर का आकार भी इतना बड़ा नहीं होता कि किसी अन्य प्रकार से क्षति पहुँचावे इसकी औसत लम्बाई आठ फुट होती है | चूहों का

.... संहार करने के कारण यह मनुष्य का हितेच्छु जन्तु ही है। चूहों की |

खोज में पीत सपप घरों में मी घुस आता है किन्तु .जिस प्रकार_.॥ : चीजेल (काष्ठनकुल) का मुख्य आहार चुहिया होने पर भी... |

१०० जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

गियाँ भी उसके द्वारा वध्य होती हैं, उसी प्रकार पीत सप भी चूहों का अधिकांशतः भसक्षक होने पर भी पालतू मुरगियों के अण्डे बच खा जाता है | एक पीत सप के पेट में तो सात अखर्ड अरडे पाए गए ज़िन्नमें कोई निगलने के बाद भी टूटा था | ...पीत सप॑ के बिल्ल का पता लगाकर देखा गया कि यह उसकी अपनी रचना होती है उसमें उसके अण्डे भी पाए गए जिसमें एक अण्डे में साँप का बच्चा पाया गया। एक टीज्े के किनारे पिल्ल बना था | बिल्ल के बीच में एक बड़ा कक्ष था जिसमें केले के अधलूखे पते बिछे थे। पीले साँप द्वारा विवर खोदने का कृत्य एक आश्चय की बात ज्ञात होती है, परन्तु खोदने का कार्य किसी प्रकार कर लेने पर भी बह सिद्ठो किस प्रकार बाहर फेंक सकता होगा, यह ओर भी कल्पनातीत बात समझ पड़ती है। किन्तु पीत सप॑ का जो विवर देखा गया, उसमें स्पष्टत: बाहर की ओर मिद्ठी फेंकी देखी गई थी

वैज्ञानिकों का विचार है कि साँप अपने थूथन से मिट्टी ढीली

करता है| फिर अपने शरीर के उदर के फंकों को सिकोड ओर फेला कर उस शिथिल मिट्टी को धीरे-धीरे बाहर खिसकाता है |

०५

विवरवासी ककोंगी

केकड़े के समान शरीर के ऊपर कड़ी खोल के रक्षा साधन . बाले जन्तुओं को केकड़ानुमा या ककोंगी जन्तु कहते हैं। इन जन्तुओं में बहुत सी जातियों में विवरवासी वृत्ति पाई जाती है। ये अल्पकालीन विवर बनाते हैं जो पंक या आद्र मिट्टी में मामूली गडढा होता है वर्षा या बाढ़ के आगमन पर बे स्थान जल्ञज्षावित . होने के कारण विवर नाम के उन अल्पकालीन आवासों का लोप . कर देते हैं। ऐसी अचस्था में उन्हें ककोंगी जन्तुओं का घर कहना .. जपंहास की सी बात है किन्तु कुछ ककोंगी ऐसे अवश्य. पाए जाते हैं ज्ञो गृह की रचना करते कहे जा सकते हैं। वे भूमि में नियमित रूप की खुदाई कर बिवर बना लेते हैं और उसी में. निद न्द निवास करते है उन्हें अपने इस निवास से बाहर आहार की खोज में ही . आते का अवसर होता है| शत्र से मुठभेड़ होने की आशंका में ये भागकर अपने इन विबरों का हो शरण लेते हैं। .._ भूकक या भूवासी केकड़े विवर बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। ये सारे संसार के देशों में पाए जाते हैं। उन सब के स्वभाव एक से

.. होते हैं। ये भूमि में बिल बनाते हैं बड़ी तीत्रता से दौड़ते हैं, काठते ...../..॥ शी बड़े जोर से है तथा यथेष्ट बड़ी संख्या में एकन्न रहते हैं। ल्‍

भूवासी केकड़ों में जमैका के विकट भूवासी केकड़े विशेष प्रसिद्ध हैँ

लड़ाकू केकड़ा लड़ाकू केकड़ा समुद्र तट के निकट जलसिंचित स्थलों में.

१०२. जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

अपना आवास बनाता है। वह गहरा विवर बनाता है किन्तु प्रायः ऊपरी तल्न पर ही रहता है। इसकी विशेषता यह होती है कि इसका एक चह्डढुल बहुत बड़े आकार का होता है। दूसरा चह्कु्न बहुत ही छोटा होता है। बह निरुपयोगी सा ही होता है. केवल चलते समय ही उसे कुछ अवलंब प्रदान करता है। दायाँ या बायाँ कोई एक चज्जुल् दीघाकार हो सकता है किन्तु दूसरा चन्नुल अवश्य छोटा होता है| यह बड़ा ही मगड़ालू होता है। लड़ने के लिए बराबर ही सन्नद्ध रहता है। दौड़ने के समय अपने भारी चलन्नुल॒ को यह ऊपर उठाए चलता है। उसे ऊँचाकर वह अन्य जन्तुओं को लत्नकारता सा है | एक अछ्ढछ का ही इतना अधिक बृहद्‌ रूप धारण करना उसके रूप को बड़ा ही उपहासारपद बना देता है। जब लड़ाई करनी होती है तो यह अपना चह्भुल शरीर के ऊपर इस श्रकार ही रखता है जैसे कोई मुक्केबाज या पहलवान अखाड़े में उत्तने पर अपने मुक्‍्के को वक्ष॒स्थंत्त के आगे रखता है। यह बिलों का रहने वाला जन्तु है जोड़े रूप में रहता है किन्तु मादा बिल"के अन्दर द्वी रहती है और नर बिल के द्वार पर प्रहरी रहता है। उसका वृहद चहुल बिल के मुख को ढके रहता है

डाकू केकड़ा (राबर क्रेब ).//

डाकू केकड़ा नारियज्ञ तोड़कर उसकी गरी खाने के लिए प्रसिद्ध . है। यह भारतीय महासागर तटीय भूभागों में उन स्थानों में पाया जाता है जहाँ नारियल के बगान हैं | इसके द्वारा नारियत्न तोड़ने की किंबदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। वैज्ञानिकों का भी कथन प्राप्त होता है कि

... बह नारियल की जटा को चहुलों से नोच-नोचकर प्रथक कर लेता - है तथा भीतरी कड़ी खोल या खोपड़ी में सिरे पर छिंद्र से दुबबंत स्थान में चल्लुल डाल-डालकर धीरे-धीरे गरी तक पहुँच कर लेता है।

:. विवरबासी ककोंगी . श्व्श

डाकू केकड़ा सबसे बड़े आकार का केकंड़ा होता है। उसकी

लम्बाई तीन फुट तक होती है इसी अनुपात में उसके “शरीर की

मुठाई होती है। यह समुद्र तट के निकटबर्ती स्थल्नों में रहता है। यह भूमि में अपने लिए बिल खोद लेता है। इसका बिल प्राय किसी वृक्ष की जड़ में होता है था समुद्र तल से कुछ निचाई पर ही वह बना होता है | वहाँ यह दिन को छिपा रहता है। केवल रात को ही आह्वार की खोज में बाहर निकलता है

डाकू केकड़ा के उदर पर कठोर रक्षक पट्टी मढ़ी होती है। यह आकार में योगी केकड़े सा होता है, परन्तु किसी घोंचे या कवचीय (कोशस्थ ) प्राणी के कोश का आश्रय नहीं प्राप्त करता यह पानी से दूर यथेष्ट समय तक रह सकता है। इसके गलफड़े विशेष रूप

की शारीरिक जलथैलियों से आदर बनते रहते हैं। चौबीस घन्टे में

एक बार ही इसे पानी पाने की आवश्यकता होती है ।..

डाकू केकड़ा तीत्रगामी होता है। चलते समग्र दो केन्द्रीय परों के ऊपर इसका शरीर भूमि से एक फुट ऊँचे उठे रहने से इसका विचित्र आकार दिखाई पड़ता है शत्र से मुठभेड़ होने पर यह अपना चज्जलुल रूपी शलत्र खड़खड़ाता है और मुख सदा शत्रु की ओर ही रखता है

डाकू केकड़ा अपना निवास नारियल वृक्ष की जड़ों के नीचे भमि ._ के अन्दर बनाता है। उस बिल में खाद्य संचित करता है | नारियल के जटाहीन गोले ही उसके खाद्य भण्डार बनते हैं। जब नारियल

के फलने का समय जाता रहता है तो यह अपने रक्षित भग्डार के नारियलों को खाकर जीवन व्यतीत करता है -

दौड़ाक केकड़ा

सीलोन में दोड़ाक केकड़ा होता है। उसकी इतनी भारी संख्या

१०४ जन्तु बिल कैंसे बनाते हैं

हो ज्ञाती है कि वह एक आपदा का ही रूप बन जाता है बलुही सड़कों के नीचे बिलों का जाल बिछाकर उन स्थानों को बिल्कुल

अरक्ित कर देता है। इसके बिल्लों को बन्द करते रहने के लिए

श्रमिक नियुक्त रकखे जाते हैं जिससे सड़क चलने योग्य रह सके। इसका बिल खोदने का ढंग विचित्र है। यह सूखी भमि में बिल खोदता है गहरे गडढ़े बनाकर यह चड़लों से मिट्टी भर कर लाता है ओर उसे हवा में ऊपर जोर से डछालकर उड़ा देता है। वह बलुही मिट्टी करों या रेतों रूप में एक वृत्त के आकार में बिल के चारों ओर फैल्न जाती है

कासनी भूकेकड़ा

कासनी रह् का होने से इसका नाम यह रखा गया है। परन्तु यथाथे में इसके कितने ही रह्ढड हो सकते हैं कभी उसका रंग काला होता है जिससे यह काला केकड़ा कहा जा सकता है। कभी नीला रंग होता है और कभी धब्बों युक्त या चित्रित होता है। परन्तु तीनों ही दशाओं में कासनी रंग की पुट अवश्य रहती है। इसलिए कासनी केकड़ा उपयुक्त नाम है। यह जमैका में पाया जाता है। यह जहाँ कहँ। भी अपने बिल बनाता है, सारी भमि उससे पटी

. रहती है। इन बिल्ों के उपनिवेश में ही दिन भर बिताकर रात को

आहार की खोज में बाहर निकलता है कासनी केकड़े की विचित्र रक्मा विधि होती है। शत्रु से मुठ-

- भेड़ होने पर यह लड़ने के लिए प्रस्तुत रहता है। यह अपने एक . बड़े चंगुल से शत्रु पकड़ लिया करता है फिर इस चंगुल को शरीर के साथ संधि-स्थत्न पर वेग से हिल्ाता है। शरीर से प्रथक हो जाने

पर भी चंगुल की पेशियों में तनाव बना ही रहता है अतएव शत्र

विशेष कष्ट अनुभव करता है. मानो केक यहाँ जीवित ही पड़ा

तले कद 2 जमकर फेल कह मद बह कक. लत के बट लक लक ला

विवरवासी ककागी .. शव

हो इस ज्षणिक द्विविधा काल में केकड़े को भगाकर सुरक्षित स्थान

में पहुँच जाने का अवसर होता है | चंगुल टूटकर प्रथक होने से

केकड़ों की कोई हानि नहीं हो सकती छिपकली की दुम की तरह

चह दुबारा शीघ्र ही निकल आता है। यह समुद्र से दो तीन मील दूर तक रहता है, अंडे समुद्र में ही जा गिराता है किन्तु वर्ष में दो बार खोल बदलता है। उस समय बिल में पड़ा रहता है। ऐसे समय के लिए घास-पात बिल में संचित रखता है। द्वार भी बन्द रखता है नई खोल दृढ़तर निकलती है

काप्ठछेदक कींगा ( तियक-विवर मींगा )

केकड़े की जाति का भींगा होता है। उसमें काठ को खोदकर बित्ञ बनाने वाला म्ींगा विचित्र जन्तु है | यह बहुत छोटे आकार

का होता है किन्तु भयानक नाशक होता है। समुद्र में गड़े हुए लड्ठों

की पंक्ति को भारी हानि पहुँचाता है। इसके शरीर में रेती समान काठ को काटने वाला विशेष अंग होता है। उसी से काठों में छेद कर लेता है काठ के उस विवबर में ही यह रहता है इसका काठ

के अन्दर बना बितल्न सदा तिरछा होता है उसमें खाद्य वस्तु संचित

कर रखता है। अनेक काइलेदक भींगे किसी एक लद्ठे में अपना

बिल्ल बनाने में संज्रग्न हों तो बह छिन्न-भिन्न हो जाता है

काप्ठछेदक मोंगे से भी अधिक प्रबल छेदन शक्ति का दूसरा जन्तु प्रिबिल (ऋजु विवर मोगा) नामक होता है किन्तु इसकी संहारक शक्ति कुछ कम होने का यह कारण हैं कि यह काठ में.

सीधा बिल ही खोदता है। यह दो इव्म्व गहराई तक काठ खोद

ले जाता है। कहीं कीला या गाँठ मिल जाय तभी इसका बिल कुछ... टेढ़ा हो जाता है अन्यथा वह सदा सीधा ही बना होता है।इस. | जन्तु का डील-डौल तो चावल के एक दाने से बड़ा नहीं दोता किंतु. ||

१०६ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

बहुसंख्यक रूप में काप्चछेदन कार्य करने से लट्टे का सत्यानाश हो जाता है। कभी-कभी टेढ़ा बिल बनाने वाले झींगे तथा सीधा बिल्न बनाने वाले प्रिबिल को एक ही लट्ठे में छेद करते पाया जाता है

उस दशा में तो लट्ट का सबसंहार ही हो जाता है | बिलनिमायक बिच्छू डे

बिच्छू को डंकधारी मकड़ा सा कहा जा सकता है। बिच्छू ढ़ संसार के उष्णुतर भागों में पाया जाता है। उष्ण कटिबन्ध . धे

में तो पटा पड़ा रहता है। इसकी अनेक जातियाँ होती हैं, परन्तु सब्र का आकार-पअकार, स्वभाव आदि प्राय: समान ही होता है। बिच्छुओं को प्रकाश सह्य नहीं है। अतएव सूर्य की किरणों से... बचने के लिए दिन को किसी वस्तु के नीचे दबे पड़े रहते हैं क्‍

बिच्छू का बिल उसके अडद्ध चन्द्राकार ( दूज के चाँद ) द्वार के- कारण तुरन्त पहचाना जा सकता है। उसका मुख इस जन्तु के. . आकार के ठीक उपयुक्त होता है। किसी स्टूल को उठाने के लिए. फः जड़े पटरे में हाथ लगाकर उठाने वे. लिए उसका जैसा छिद्र होता ना है उसी प्रकार बिल का द्वार होता है जहाँ पर मिट्टी उसके बिल के उपयुक्त होती है, बिच्छू उसका उपयोग करता है। अतएव बहुसंख्यक बिच्छू एक स्थल पर विवर बनाकर रहते हैं। एक ही स्थान .. या भींटें में रहने वाले चालीस-पचास बिच्छुओं को एक समय

मारा जा सका है।

बिल के मुख का आकार घोड़े की नाज्न या दूज के चाँद की तरह देखकर निश्चय रूप से कहा जा सकता है कि वह बिच्छू का - ही बिल है। उसमें बिच्छू की उपस्थिति ज्ञात करने के लिए एक. बालटी पानी बिल में गिरा दिया जाता है जल से बिच्छू घब़ाता.. है। जब वह अपने बिल में रहने पर ऊपर से बदन पर पानी: |

विवरवासी ककोंगी १०७

गिरना देखता है, वह बिल से बाहर चत्ष पड़ता है। उसका अग्न- भुज या पंजा बिल से बाहर शत्रु को लल्कारने के लिए निकल्नता है इतने में फावड़े की एक चोटकर नीचे से बिन्न का भाग खोद लिया जाता है जिससे बह अपने बिल में फिर भाग नहीं सकता | इस तरह वह मारा जाता है।

बिल के चारों ओर अँगारे रखने से भी बिच्छू मारा जाता है। ज्योंही बाहर आग सुलगती है, बिच्छू बाहर आकर भागने का उद्योग करता है | अँगारे बहुत अधिक दहकते होने पर भी बिच्छू घबड़ाकर अपने डंक को पीठ पर मोड़ लेता है शरीर के दो फाँकों के मध्य प्रविष्ट कर मृत हो जाता है| ऐसी स्थिति में सवय॑ ही डंक मार कर आत्मघात कर लेना बिच्छू के जीवन का निश्चित विधान ज्ञात होता है

बिलस्थ मकड़े

अनेक मकड़े विषरवासी होते हैं ये बलुहे तटों पर सैकड़ों की संख्या में विवर बताये मिल सकते हैं। जहाँ ये बिवर बनाते हैं, वह भूमि यदि बहुत ही भुरझ्ुरी हो तो बिल्न की दीवाल सँमल सकना कठिन हो सकता है। अतएव दीवाल को मकड़े अपने जाते से दृढ़ बना देते हैं | दीवालों पर मढ़ा जाला अधिक टिकाऊ, दृढ़, ज्चकीला तथा छननशील होता है किन्तु एक भी मत्तिकां कण बिल में नहीं गिर सकता प्रत्येक बिल के मुख पर एक जाता तना

होता है | उसके मध्य में एक छेद होता है। वहाँ से प्रथक-प्रथक

जाते भी भीतर दूर तक बिल्न में गए होते है

बिल के अन्तिम भाग में अपनी रेशमी तागे या जाले के इस गृह में मकड़ा छिपा बैठा पड़ा रहता है। उसका संवेदनशील पैर जाले पर लगा रहता है अतरब छोटे से छोटे कीट का ऊपरी भाग में आगमन उसे ज्ञात हो जाता है। मकड़े की विभिन्न जातियों द्वारा जितने विभिन्न प्रकार के कीट पकड़े जाते हैं उनका अवल्लोकन मनोरंजक होता है। उपबलनों के मकड़े तो विविध प्रकार का आहार

करते हैं, जल-मकड़ा भी अनेक प्रकार का आहार करता है, परन्तु _

विवरबासी मकड़ा अ्पन्नी आहार-विभिन्नता सीमित ही रखता है एराचनिडा या छुद्रकाय बिलस्थ मकड़ा आद्र स्थल्ञों में रहता

है। कगारों में बिल बनाता है। बिल पहले आड़े रूप का होता

है उसके बाद नीचे की ओर झुका होता है। उसमें रेशमी जाले

207 २४०४ २२% + >। 2 - 6 कि पा कु ड़ पर हक 5 2 28, कल 7 20 05:32 पक लक आम हल हे विन कली जम पलीकी जलन अर तब जम. ना ७७ ७-७ए

'.. बिलस्थ मेकढ़े 7 १०६

का सुन्दर श्वेत अस्तर बना होता है। इस जाले की नल्ली का व्यास आधा इृम् होता है नली का ऊपरी भाग अपेक्षाकृत तथा नीचे के भाग की अपेक्षा बड़ा होता है तथा बिल्ल के मुख से कुछ बाहर निकला होता है जिससे एक ढक्‍कन-सा बना होता है उससे विवर

का मुख सुरक्षित रहता है।

पक्नीभक्षक मकड़े के कारनामों के आँखों देखे बरणन प्राप्त है है के रै 5 होते हे इसका आकार गौरैया के बराबर होता है | सात-आउठ इच््

शरीर की लम्बाई होती होगी। यह आमेजन नदी के किनारे वृक्षों _ की जड़ में विबर बनाये मिल सकता है। यह मकड़ा रोमधारी होता

है| घड़ और सिर की लम्बाई लगभग दो इच्च होती होगी किन्तु पैर सात इच्य्व लम्बे होते हैं। वृक्ष के नीचे गहरे छिद्र के ऋषर

है जाल फेला देता मधुपक्षी (हमिंगबड) या अन्य छोटे पत्ती इसके जाल में फँसकर मर जाते हैं। यह उन्तको बन्दी रूप में पाकर

अपना आहार बनाता है। उनके ज्ञाल में एक बार फँस जाने पर

यह अपने विषेले थूक को पत्ती के शरीर पर गिराता और मूच्छित कर शीघ्र मार डालता है एक जाति का पक्षीभक्षक समकड़ा अपने शरीर पर पीली पट्)ियाँ

प्रद्शित करता है। यह गहरे बिल बनाने में कुशल होता है | यह

दो फुट तक गहरा बिल्न खोद लेता है | वह यथेष्ट चोड़ा भी होता

है तथा किनारों को गिरने से रोकने के लिए उसकी दीवालों पर जाला मढ़ लेता है। सन्ध्या समय यह मकड़ा अपने बिल के मुख पर बैठा दिखाई पड़ सकता है। वहाँ से वह चारों ओर शनिदृष्टि रखता है | जहाँ कोई आगंतुक आता जान पड़ता है, यह अपना

'मुख बिल में ठुबका लेता है। कुछ अधिक समय तक वह ऊपर

आने का साहस नहीं करता इसकी कुछ जांतियाँ पत्थरों के नीचे

११० .... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

है, वह स्पशे करने पर त्वचा में प्रविष्ट कर मनुष्य को बहुत कष्ट दे सकता है

एक दीघे आकार की जाति का मकड़ा प्राय: सभी भूभागों में पाया जाता है | यह प्राय: बिल्लस्थ वृत्ति रखता है। अपने बिल की दीवातल पर जाला मढ़ता है जिससे मिट्टी नीचे गिरे इनमें कुछ तो बाहर से शिकार कर कीट पकड़ते हैं किन्तु कुछ अपने बिल के द्वार पर बैठते हैं। कोई कीट निकट आते ही उसे वह जाल में फँसा लैता है बिल के अन्दर ही अंडे दिये जाते हैं। अंडे से उत्पन्न होने के बाद शिशु ज्यों ही चलने योग्य होते हैं, माता की पीठ पर

चढ़कर बैठ जाते हैं | वे बढ़े कुएड रूप में पीठ से चिपके रहते हैं

7. .. साश्बेरिया में एक मकड़े की जाति होती है। वह भूमि के हा अन्दर बिल बनाकर रहती है यह डरावना मकड़ा है। यदि इसके बिल में चाकू का फल्नक प्रविष्ट किया जाय तो यह उसको दौड़कर काटना चाहता है किन्तु यह यथार्थ में विषेज्ञा नहीं होता भेड़ें इसे घास के साथ निरापद रूप में खा जाती हैं

कपाटपाशीय

कृपाटपाशीय मकड़ा ( ट्रेपडोर स्पाइडर ) सभी बविल्स्थ मकड़ों से विल्क्षण होता है। यह जमैका में पाया जाता है। इसके समान बिल बनाने का कोशल अन्य कोई जन्‍्तु नहीं दिखलाता है इसके बिल दशनीय होते हैं| यदि बिल के अन्दर दीवालों में मढ़ी..* जाले की नत्नी को प्रथक कर देखा जाय तो वह दोहरी दीवाल की .... मिलती है। उसका बाहरी अंश मोटा होता है | वह लाल भूरे रघ्ढ ..._: के धब्बों युक्त होता है तथा अनेक टुकड़ों रूप में होता है जो एक ... दूसरे के ऊपर रखें से होते हैं ऊपरी परत इतनी मोटी, पुष्ट तथा ..._ खंडित होती है कि मकड़ी का जाला ज्ञात होकर किसी वृक्ष की

है + हि. 5 6 के + गत कप 0० पा का पा हु ल्क्ल मॉडल सनक तिदतल4 «मसल कल लत ०“

स्

. बिल्लस्थ मकड़े... १११ क्‍ पु

छाल जान पड़ती है। छूने पर भी उसका यथाथ रूप प्रतीत नहीं ही सकता बररें के घोंसले का-बाह्य रूपकुछ-कुछ इसके समान होता है। इस ऊपरी तह के नीचे दूसरी पतली तह होती है जो बिल्कुल : दूसरे रूप की होती है। यह देखने में सत्र चिकनी हो।ती है तथा

छूने पर रेशम की भाँति कोमल होती है। भीतरी तह ऊपरी तह

"से बिल्कुज्ष प्रथक की जा सकती है

जाले की नज्ञी का भीतरी तल बाहरी तथा भीतरी तह से विभिन्न रूप का रचित होता है वह प्रायः श्वेत ओर इतना चिकना होता है मानो कोई मोटा और बिना निश्चित नाप का हाथ का बना कागज ही हो | यह विचित्र रूप का कठोर भी होता है | यदि उसे कोई पहले-पहल देखे तो पहचान सकना बड़ा कठिन हो सूच्सद्शंक यन्त्र से ही उसका यथार्थ रूप ज्ञात हो पाता है सूक्षम- द्शेक से देखने पर वह तत्न बड़ा विषम मखमली दिखाई पड़ता है जिस पर छोटे छोटे उभाड़. भरे होते हैं तथा वह बिल्कुल अठ्यव- स्थित रूप से तागों के जोड़-तोड़ से बना होता है वे तागे साधारण जाले के सूत्र से बड़े मोटे होते हैं और ऐसे कड़े ज्ञात होते है मानों . उन पर माड़ी या गोंद चढ़ी हो |

इस मकड़े के बिल्ञ के ऊपर कपाटपाश या धोखे का किवाड़ होता है | इसव्यवस्था के ही कारण मकड़े का काकपाटपाशीय (ट्रे प-

डोर ) रखा गया है। जाले की नली के तनन्‍्तु से ही यह भी बना.

. होता है। इसका आकार गोल होता है, जिससे बिल के द्वार पर - बिल्कुल्ल ठीक बैठ सके | _

... यह कपाटपाश एक यशथेष्ट बड़े कब्जे से जाल की नत्ती से... _. - अँधा होता है अतएब जब कपाटपाश गिरता है तो इधर-उधर नहीं

जाता | बल्कि ठीक जगह पर ही आकर बैठता है। यह द्वार की

रक्षा करता है। कपाटपाश का निचला तल्न श्वेत मखमत्ती होता

११३ -अन्तु बिल्न कैसे बनाते हैं ?

है और जाले | की नली के भीतरी तल से ही समानता रखता है किन्तु इसका ऊपरी तत्ञ मिटटी से ढका होता है। इसके ल्लिए मिट्टी बिवर की खुदाई से हीं प्राप्त होती है। कपाटपाश का ऊपरी तल भूतल के रह्ु-रूप का ही होता है अतएब विवर के मुख पर उसके बन्द होने पर बविवर होने का तनिक भी कोई चिह्न नहीं प्रकट होता

कपाटपाशीय मकड़ा अपनी अन्‍्तर्ग्रेरणा से विवर के लिए कोई ढालू भूमि ही चुनता हे और कपाटपाश के कब्जे को सब॒से ऊपर रखता है जिससे मकड़े के विवर में प्रवेश कर जाने पर कपाटपाश स्वयं बन्द हो जाता है और विवर का चिह्न लुप्त कर देता है। जिन भूभागों में कपाटपाशीय भकड़ा रहता है वहाँ पर कोई नया आगंतुक व्यक्ति कोई बिवर तथा बड़ा कपाठ और विवर के मुख से मोँकता हुआ मकड़ा देखकर घोर आश्चर्य ही कर सकता है। तनिक भी खटका देखकर कपाटपाशीय मकड़ा भीतर घुस जाता है और कपाटपाश बन्द हो जाता है। भूतल पर तनिक भी दरार या विषमतता विवर का पता नहीं दे सकती

कपाटपाशीय. मकड़ा रात्रिचारी होता है.। रात को शिकार करता है | अनेक प्रकार के कीट इसका आहार .बनते हैं | इसके विवर के पेंदे में नाना प्रकार के कीटों के शेष अंश पड़े मिल सकते हैं बड़े भुनगें भी इसके आहार बन पाते है यदि इसके बिल के अन्द्र विद्यमान रहने पर इसके कपाटठपाश को धीरे से उठाने का प्रयत्न किया जाय तो यह विवर के निम्नभाग से तुरन्त ही कपाट तंक दौड़ आता है तथा ढकने ( कपाटपाश की निचली तह) के जाल्ने में अपना पैर फँसा लेता है तथा ढकने को भीतर खींचने का पूर्ण प्रयत्न करता है. बल लगाने के लिए यह पिछले पैरों को कपाटपाश के निम्नतत्ञ में तथा अगले .पैरों को बिल के अन्दर जाले की नली में लगा. लिए होता है पे का कट कम 2

बिल्कुल निरुद्देश्य

बिलस्थ मकड़े . शृ३

कपाटपाशीय मकेड़ा अपने विवर-दुर्ग की इतनी दृढ़ता से रक्षा करता है कि इसको ताइना दिये बिना विवर से दूर करना असम्भव होता है। फावड़े से खोदकर इसका सारा विवर उखाड़ कर भत्ते ही उठा लिया ज्ञाय किन्तु उस समय भी यह विवर के अन्द्र ही पड़ा रहता है किन्तु इसमें जो कुछ भी पराक्रम और साहस होता _ है, वह विवर-दु्गं के साथ ही होता है। एक बार उससे बाहर निकाल दिये जाने पर यह निष्क्रिय-सा ही हो जाता है। किसी एक स्थान पर यह मुर्दा-ला ही पड़ा रहता है यदि कुछ गति भी करता है तो

मियशाक मम सम कपल कि

_आनतयना। परदे

््ल्ल्ल्कल्स््ि्स्प्सटडडसिलिड टपटन्‍मा5

जल आय जे के

3 मु > 5 ये पजजनकसनानन->नवतण-लतपमटेस फल सिल्क लेरटतन- कट डर अल पड पद कल आह

बिल-निमाता कीट

कीट-जगत का अध्ययन करने पर ज्ञात हो सकता है कि प्राय:

सभी कीट अपने जीवन के आंशिक या पूर्ण भाग में प्रथ्वी या.

काठ के अन्दर विबरों में व्यतीत करते हैं परन्तु बहुत से ऐसे भी हैं जो विवर में इल्ली रूप में जन्म धारण कर तथा पोषित होकर शेष सारा जीवन आकाश में ही व्यतीत करते हैं उनके जड़ाकू जीवन की सुन्दरता देख कर हमें यह ख्वप्न में भी अनुमान नहीं

हो सकता कि मिट्टी के अन्दर बिल में इनका आदि काल व्यतीत

हुआ होगा इनके जीवन में कितना विरोधी भाव है यदि इनको

_गगनचारी रूप में हो जाने के पश्चात्‌ पुनः पानी के अन्द्र या मिट्टी के विवर में पहुँचाया जाय तो वह वातावरण उनका जन्मदाता

होकर भी उनका तुरन्त प्राणान्‍्त कर सकता है। यही बात उनके आदि जीवन के सम्बन्ध में भी है। इल्ली अवस्था में रहने पर

_ यदि उन्हें वायु में किया जाय तो उनका शरीर तुरन्त ही क्षत-विक्षत हो जाय।

विवर में आंशिक रूप में जिन जन्तुओं को रहते या केवल

जन्म लेते पाया जाता है उनकी बात हम छोड़ दें तो भी पूर्णतः

बिवरवासी विवरनिर्मायक कीटों की कमी नहीं चींटी, बिलस्थ बरें, भुनगे आदि कितने ही कीट आजीवन विवरवासी होते हैं जा सौबा चींटा

सच पूछा जाय तो सौबा चींटा शुद्ध विवरनिर्मायक कीट

सम 75 कि 6 कल 2 कक मल िलक किएग मिड 5 कट पल एस काद

! ] ्ं कु | ! ; ; [ ! | | है | | ' | ॥! ह/ |]

3४५४2:७#%0॥७॥४७४90७७७७४७४४७४४४७४४७४४७४४४४६:७७४७७४३४७०७७०४४४४००७० ८०२४३ कं कर उ#कख ३0 ५२40 कस ५० कक

बिल-निर्माता कीट... ११४

नहीं कहा जा सकता यह भूमि के अन्दर बड़ा गड़ढा तो बनाता है, परन्तु भूतल से ऊपर भी विवर के ऊपर भींटा सा बना लेता है। यह बात अवश्य है कि उसके इस पूर्ण ग्रह में भीटे का अंश भूमि में खुदे अंश से कम ही होता है अतएवं इसे विवरनिर्मायक

.. कहना अनुचित नहीं। इसके विपक्ष हम दीमक को देखते हैं जो

भूमि में गडढा बनाकर ऊपर भींटा बनाती है परन्तु उसके निमित भींटे का आकार भूमि में खुदे भाग से बड़ा होता है सोबा चींटा अमेरिका के उष्णु कटिबन्ध में रहता है| वहाँ यह इतनी भारी संख्या में रहता है कि यह कमी-कभी बलपूर्वक भूमि पर अंधिकार कर लेता है और वहाँ के खेतों के जोतनेवाले , खेतिहरों तथा निवासियों को भगा देता है। इसकी चोड़ी पंक्तियाँ . चलती दिखाई पड़ सकती हैं जिसमें प्रत्येक सौबा चींठा को . जबड़े में एक गोल कटी पत्ती का टकड़ा. खड़े रूप में पकड़े पाया जाता है। इस विचित्र बृत्ति के कारण इसे पत्रवाही पिपीजषिका भी कह सकते हैं। वैज्ञानिकों का विचार था कि पत्ती का यह कटा टुकड़ा वे धूप से बचने के लिए कदाचित्‌ पकड़े चलते हों परन्तु अब उसका ठीक उपयोग ज्ञात किया जा सका है | पत्तियों के बे गोल टुकड़े बिल के अन्दर मढ़ने में काम आते हैं सभी चीटों के प्राय: तीन स्पष्ट भेद होते हैं एक तो पक्षधारी होता है, दूसरा दीघंशीषं या सेनिक होता है तथा तीसरा श्रमिक . दल होता है। दीघेशीष चींटों के भी दो प्रकार होते है। एक तो _ .. झुविक्कण शीर्षीय होता है तथा दूसरा विषमतल शीषीय या खुर- दरे सिर का चींटा होता है | चिकने सिर वाले चींटे के सिर पर एक चिकनाया हुआ पारदर्शी शज्भीय टोप होता है, परन्तु खुरदरे

-... सिर के चींटे का सिर अपा रदशी तथा रोममय होता है

बड़े सिर वाला चींटा (दीघेशीर्षीय) दैनिक, श्रम कार्य में लिप्त

११६ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

नहीं होता | श्रम का साश कार्य साधारण श्रमिक चींटों पर ही पड़ता है। श्रमिक चींठे सदा वृत्तों पर आक्रमण करते हैं किस. | विशेषतया हाथ से लगाए फल्नदार वृक्षों, नारंगी, काफी आदि पर | ही इनका आक्रमण अधिक होता है। सौबा श्रमिक चींटे ने जहाँ. किसी वृक्ष पर आक्रमण आरम्भ किया कि उसका संहार ही हो जाता है। वह इतना शीघ्र-शीघ्र पत्तियाँ नोच ले जाता है कि वृक्ष की बाढ़ सवधा अवरुद्ध हो जाती है | कभी-कभी पूरा बृत्त ही सूख जाता | ...सोबा चींटों द्वारा पत्तियों के गोल कठे. भाग का उपयोग उन्तके विषर के विचित्र सुम्बज या भींटे की छत छाना होता है। पत्तियों के मढ़ने से ऊपर मिट्टी गिरने का डर नहीं रहता कुछ बुर्जों को . विशालकाय देखा जाता है। उनका आकार दो फुट ऊँचा और चालीस फुट व्यास का हो सकता है। इन चींटों की प्रबन्न निर्माण- शक्ति आपेक्षिक रूप में मनुष्य के प्रबल्तम उद्योग को भी नीचा दिखाने वाली है। इनमें श्रमविभाग अप्युत्तम पाया जाता है। श्रमिक चींटे वक्षों से गोल कटी पत्तियाँ ढो लाते हैं वे तो उन्हें भूमि पर केवल फेंक भर जाते हैं। उनके लिए निर्धारित श्रम केवल वक्ष से काट कर विबर तक पहुँचानां ही होता है। उन पत्रखण्डों को बुज में मढ़ने का कार्य अन्य श्रमिक दक्ष को मिला होता है। पत्तों के टुकड़े ब्योंही मढ़े जाते है उनके ऊपर मिट॒टी की गोलियों मढ़ दी जाती हैं। कुछ समय में ही वे पत्तियाँ मिटटी की गोलियों से सबंधा ढक जाती हैं दीघशीष चीटों का. काम स्पष्ट नहीं ज्ञात होंता। जो चिकने सिर के होते हैं, वे तो इधर-उधर घूमते ही ज्ञात होते हैं। वे सेनिक

.... दीमकों की भाँति युद्ध नहीं करते वे श्रमिक चीटों पर अनुशासन

भी नहीं करते उनमें डक्कू भी नहीं होता। आक्रमण होने पर वे

पल जिधवि कीट! ' 2. ११७

सामने टिकते नहीं दीख पड़ते | ,रोमशीषीय चींटे का कार्य तो और भी अधिक अज्ञात है।

यदि किसी नए बने भोंटे या बुजे की परीक्षा की जाय जिंसमें

बुज की छाजन हो रही हो तो डसका थोड़ा सा शीर्ष भाग हटा...

जेनें पर एक चौड़ी खड़ी नत्ली मिलेगी वह नत्नी ऊपरी शीष्षे से हल्गभग दो कुट नीचे होगी। यदि उसे छुड़ी से ठठोला जाय तो ततीन-चार फुट नीचे छड़ी ले जाने पर पेंदा नहीं मिलेगा कुछ पुष्ट चींटे धीरे-धीरे उस सुरंग की चिकनी दीवाल पर चढ़ते मिलेंगे उनका सिर द्वितीय श्रेणी के चींटों (दीघेशीषीय) समान ही होगा . किन्तु सामने का भाग चिकना होने के स्थान पर रोसाच्छादित

होगा उनमें माथे के मध्य में एक जोड़ी सादी आँखें होंगी परन्तु क्‍

अन्यों में शीष के पाश्वे भागों में सिश्चित रूप के नेन्न होते है माथे के सामने की आँख अन्य श्रमिक चींटों में नहीं प।ई जाती | वैसी आँख किसी भी अन्य जाति के चींटे में नहीं होती। इनके कार्यों का

.. भी ठीक पता नहीं |

भूगर्भीय सुरंगें बहुत दूर तक बनी होती है। बे इतनी बड़ी तथा पेचीदी होती हैं कि उनका ठीक प्रसार तथा रूप ज्ञात करना कठिन हो सकता है। एक विवर में जब गन्धक्र का घुआओं डाला ग़या तो एक छिद्र सत्तर गज की दूरी पर स्थित होने पर घुआँ . बाहर फेकता पाया गया ऐसे विस्तृत ज्षेत्र में विवर खोदने वाले सोबा चींटे द्वारा जितनी हानि हो सकती है उसकी कुछ कल्पना की जा सकती है। एक विशाल जल्लखण्ड के बाँध में सुरंग बना-बना कर इन्होंने उसे इतना जजेरित कर दिया था कि बाँध टूट गया. ओर सारा पानी बह कर बाहर चला गया | . : पक्तुधारी सोबा में पूर्ण नर मादा की व्यवस्था होती है वे

जनवरी फरवरी में बाहर श्रस्थान कर जाते हैं। वे अन्य श्रमिक

| ॥! | ] 8 |] ||

श्श्प जन्तु बिल कैसे बनाते हैं !

सौबा चींटों तथा सेनिक चींटों से सबंधा प्रथक रूप के होते हैं

थे बड़े आकार के तथा गहरे रंग के होते हैं। शरीर विशेष गोला

होता है। बे मधुमक्खी से अधिक मिलते-जुलते रूप के होते है

मादा एक यथाथ बढ़ा कीठ होती है जिसके पड्ढीं का फैल्लाबं दो

इब्ब्र होता है तथा शरीर का आकार धधुमक्खी के बराबर होता है किन्तु नर का आकार छोटा होता है। सभी कीटों में नर-मादा की अपेक्षा छोटा होने का ही नियम है। विवर के बाहर निकले पत्त॒

धारी सौबा कीटों में से कुछ ही जीवित बच पाते हैं। अधिकांश को

पक्षी तथा अन्य कीटभक्तक जनन्‍्तु खा जाते हैं। संयोग से जो इने- गिने पक्षधारी सौबा बिल के बाहर होने पर बच रहते हैं, वे कहीं अन्यत्र नया उपनिवेश बसाते हैं। इनकी इतनी अधिक संख्या होती है कि बहुसंख्यक मत होने पर भी अपनी जाति के लिए पुन: उपनिवेश बना सकते हैं। सन्तानोत्पादन का कार्य पक्षघारी सौबा चींटों का ही होता है |

धूसर चींटा

धूसर चींटे को चतुर शिल्पी या अप्टालिका-निर्मायक चींटा _

कह सकते हैं | यह भूमि में विस्तृत सुरंग खोद लेता है। उन सुरंगों

. का निर्माण पेचीदे नमूने का होता है। यह प्रायः कगारों को पसन्द

करता है। यह अपने गृह को अनेक कोठों की अट्टालिका समान रूप दे सकता है। एक कोठा बना कर उस पर दूसरा-तीसरा कोठा खड़ा कर लेता है सुरंग के नीचे सुरंगें खोदने के अतिरिक्त ऊपर

भी कोठे बना लेना इसकी कुशलता होती है। ऊपर कोठे बनाने के - लिए एक कोठे की छत पर नई तथा गीली मिट्टी की दूसरी तह... बिछा कर उसे दूसरे कोठे के लिए फशे बना लेता है। सूखे मौसम. में उसका निर्माण-कार्य ठीक नहीं चल्नता क्योंकि मिट्टी में यथेष्ट आद्र ता उसे श्राप्त नहीं हो पाती

हक 7 कमल 5 8 आप पक पक ंम्पयह गज पढ़ती अना2 कुक प+ 5० पय& अकाल्पट८ारिकान कं पुपानना- कप कब बई..7-बह:2 “८: (आम 0७. आओ परम 35-30 6-55 हम 5 3 ५६-०५ ५००८-८०“ पात् नीला पर पका था

_ बिल-निर्माता कीट... ' ११६

धूसर चींटे का पराक्रम तथा कष्टसहिष्युता आश्चयेजनक . होती है मनुष्य यदि उपकरण से सज्जित होकर भी उतना कार्ये आपेक्षिक रूप में कर ले जितना एक चींटा कर. दिखाता है तो वह संसार का एक आश्चयेजनक व्यक्ति माना जाय वैज्ञानिकों ने धूसर चींटे के निर्माण-कार्य का वर्षा के समय दिन भर अवलोकन करने का प्रयत्न किया है। एक बार एक चींठे का कारय देखा गया। उसने भूमि में एक चौथाई इश््ब् गहरी नाली... बनाना प्रारम्भ किया | वह उस नाली से निकाली मिंद्री को लोदे के रूप में बनाता और नाली के किनारों पर रखता जाता जिससे . दीवाल-सी बनती जाती हा .... नाली का भीतरी तल अत्यन्त चिकना तथा व्यवस्थित था। पूर्ण होने पर वह ऐसा ज्ञात होता जैसे मानव श्रमिकों ने रेलवे लाइन के बगल की भूमि से मिट्टी खोदकर नपा तुला गडढा बनाया हो इस काये को पूर्ण कर उसने विवर-छिंद्र तक सड़क बनानें . का निश्चय किया | इस पूर्व नाली के ठीक समानान्तर ही दूसरी

खाई बनाना प्रारम्भ किया जो पहली खाई' से एक तिहाई इच्ध ऊची दीवाल द्वारा ही प्रथक थी .. थदि इस धूसर चींटे के आकार की मनुष्य के आकार से तुलना की जाय तो उसने जितना श्रम अपने शरीर के अनुपात में किया ओर उस अनुपात में मनुष्य द्वारा काये किए जाने का अनुमान किया जाय तो मनुष्य श्रमिक को एक चींटे के श्रम की तुलना में निम्न काये करना पड़ेगा उसे दो समानान्तर खाइयाँ खोदनी पड़ेंगी जिनमें से प्रत्येक ७० फुट लम्बी तथा साढ़े चार फुट गहरी हो।. इसमें से खुदी मिट्टी को उसे कच्ची ई'टों के रूप में ढालना पड़ेगा। उन इंटों से उसे खाइयों के दोनों क्रिनारों पर दो या तीन फुट ऊँची और चौदह या पन्द्रह इब्च मोटी-दीवालें बनानी पढड़ेंगी।

| शरू जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

.. अन्त में अपने सब कार्य को पुनः सँवारने के लिए उसे इतनी दूरी

तक दुबारा जाना पड़ेगा तथा भीतरी तल्ञ को बिल्कुल सीधा, चिकना ओर बराबर करना पड़ेगा इतने कार्य में उसे तनिक भी सहायता दूसरे से मित्नी होगी | अन्य बाधाएँ भी होंगी भूरा चींठा भूरा चींटा कुछ विशेष भूभागों में ही पाया जाता है। यह

रात्रिचारी कीट है। दिन को ओस के समय हल्की वर्षा होते रहने पर भी यह क्रियाशील रहता है धूप से बहुत घबड़ाता है। भारी वर्षा में भी काम बन्द' रखता है इसका भूगर्भीय नीड़ू बड़ी ही विचित्र रचना है। वह कई कोठों का बना होता है। प्राय: तीस- चालीस कोठे तक होते हैं। बे ढाल की दिशा में होते है.। इन कोठों का रूप नियमित कोष्ठकों के रूप में शहद की मक्खी, बरें या हड्डा के बिवर की तरह नहीं होता बल्कि बहुत अनियमित रूप और आकार की कोठरियों और दालानों के रूप में होता है। भीतर की ओर वह अत्यन्त चिकनाया होता है और उसकी ऊँचाई एक पंच- मांश इच्न्च होती है। दीवालों की मुटाई एक इब्च के चोबीसतें भाग के बराबर होती है। इतने अधिक कोठों की उपयोगिता अपने आवास-स्थल में ताप तथा आद्र ता के नियन्त्रण करने में होती है। उदाहरणार्थ यदि सूर्य की धूप तीत्र नहीं है और इन कीटों की अन्त- प्रेरणा इन्हें इंगित करे कि इनकी इल्लियों को विकसित होने के .... लिए अधिक धूप आवश्यक है तो ये अपनी इल्लियों या प्यूपा को

. ऊपरी कोठों में ले जाते हैं। ऊँचाई की ओर होने से उन कोठों में : .. धूप का अधिक प्रभाव होता है अतएव वहाँ प्यूपा को आवश्यक . मात्रा में ताप प्राप्त होता है। . यदि वर्षो अधिक हो तो निचले कोठों में पानी भर जाने का

बिल-निर्माता कीट... १२१

अवसर हो सकता है अतएवं वे अपने अरंडों बच्चों के साथ

.. ऊपरी कोठों में सहज ही स्थानान्तरित हो जाते हैं। वहाँ बाढ़ से

उनकी रक्षा हो जाती है | यदि कभी सूर्य की किरणों प्रखर हों तो धूप के प्रभाव से बचने के लिए ये मध्यवर्ती कोठों में अण्डे बच्चे पहुँचा सकते हैं वे स्वयं निम्नवर्ती कोठों में चले जा सकते हैं. . जहाँ सूर्य की किरणों की गर्मी नहीं पहुँचती | इस तरह अग्नसोची . की भाँति ये अन्तः वृत्तियों या जन्तु-बुद्धि के प्रभाव से ही विभिन्न . अवस्थाओं में जीवन-निवोाह हो सकने के लिए ग्रह की ऐसी विचित्र व्यवस्था रखते है। ... एक वैज्ञानिक ने कृत्रिम कीटशाला में इन चींटों को पाकर उनके ग्ृह-निर्मांण के लिए सिद्टी, रेत तथा अन्य उपकरण पहुँचाए ये भीतर ही ग्रह बनाकर अपना रचना-कौशल दिखाते। मिट्टी सूखी हो जाने पर इनकी क्रिया बन्द हो जाती, परन्तु फौवारे से तनिक आद्र ता पहुँचाई जाती तो बे तुरन्त ग्रह-निर्माण में लिप्त 'हो जाते ये मिट्टी के पहले लोंदे बनाते हैं जिन्हें हम अपनी दीवालों में उपयुक्त कच्ची ईटों के समतुल्य “कह सकते हैं। ऐसे नन्‍्हे-नन्हे लोंदे ढालकर बे ग्रह-निर्माण प्रारम्भ करते। उनका उप- योग करने दे पूव वे अपनी मू के लम्बे रोमों से उनकी दृढ़ता -की जाँच कर लेते जहाँ कुछ चींटे कच्ची इं'टों के नमूने पर लोंदे ढालते रहते,

वहाँ अन्य चींटे भूमि को खोदकर खाइयाँ सी बनाते उन छिछले

गडढों या खाइयों के मध्य जो उभाड़ रह जाता वह इनके ग्रह की नींव का काम करता। उसी के ऊपर मिट्टी के लोंदे रखकर “दीवाल उठाई जाती अपने जबड़े या. अगले पैरों से ये उन लोदों को इस नींव के ऊपर दबाकर बैठाते | इस प्रकार सुडोलता तथा हढ़ता होती | सब से कठिन कार्य छत या छाजन बनाना है परन्तु

5 हि 9. 7 हे. जल] ते (2 ' ा, , ीमिक, -गड

श्श्रः .... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

ये चींटे उसमें तनिक भी घटड़ाहट का अनुभव नहीं करते। दो इंच व्यास की छत ये बड़ी ही सुविधा से बना लेते है | छत बनाने की विधि लोंदों को दीवालों के कोनों में रखना है। खंभों के सिरे पर भी लोंदे रखे जाते है | लोंदों की एक पंक्ति ज्यों ही सूखती है, दूसरी पंक्ति तुरन्त रक्‍्खी जाती है कार्य इतनी तीत्रता तथा कुश- लता से होता है कि कई केन्द्रों से कार्य प्रारभ्भ होने पर भी सभी खण्ड ठीक जगह पर पररपर मिल जाते हैं लोंदे इतने सुडौल रूप से काटकर एक दूसरे के साथ बैठाए जाते है कि परस्पर चिपककर टढ़ रचना बनाते है | एक बार बन जाने पर ये दीवालें बड़ी पुष्ट हो जाती हैं। धूप और वर्षा उन्हें और भी दृदू करती हैं। बहुत अधिक सूखा या धूप भारी विप्न होता है। उस दशा में वे रचना को तोड़कर टुकड़े अलग-अलग कर देते हैं

यह उल्लेखनीय बात है कि किसी संयोगवशात्‌ प्राप्त अवस्था का पूर्ण उपयोग भूरे चींटे द्वारा गृह-निर्माण में होता है एक स्थान पर भरे चींटों द्वारा गृह-निर्माण कार्य संचालित रहने पर दो तिनके एक दूसरे को बीच में काटने से मिले उनका धन्नी की तरह उप- योग कर चींटों ने छत बनाना प्रारम्भ किया। पहले इन तिनकों : द्वारा बनाए कोणों पर लोंदे रकखे गए। फिर प्रत्येक तिनके के पाश्वो' में ज्ञोंदे बैठाए गए। भरे चींटे के जबड़े तथा पैरों की क्रिया- शीलता से छत शीघ्र बन गई वह साधारण रूप की निरवलम्ब बनी छत से अधिक पुष्ठ भी थी। . . पीला चींटा आदर भमभागों और उपबनों में पाया जाता है.

4... यह कुशल बविवर-निर्मायक होता है। इसका गृह भूरे चींटे समान... |... विशाल तथा भव्य नहीं होता, यह पत्थरों के नीचे बिल बनाने को

अधिक उत्सुक होता है। चौड़े पथरीले खपरेत्ञों के नीचे सैकड़ों

_ चींटों के विव२ बने मिल सकते हैं। यह विचित्र रूप का समाज-

2226 52% /045/ 46670 46800 ४70 /0030/6 43220:

बिल-निर्माता कीट 5१२३ ..

प्रिय कीट है एक टीले के एक ओर यह अपने विबरों का उप-

निवेश स्थापित. रख सकता है. जिसके दूसरी ओर दूसरी जाति के

चींटे के ग्रह बने हों

.. «“चींटे के पर जमना” एक लोकोक्ति ही है जिसका भाव यह

. है कि विनाश काल निकट आने के पूर्व कुछ सफलता या शक्तिकी

. वृद्धि होती पाई जा सकती है। यह चींटे के जीवन में अवश्य सत्य /..... घटित होता है इनके पड्ढ अल्पकालीन ही होते है जो आधार के /.. निकट एक द्रार से कट.गिसते हैं किन्तु-ऐसे भी बहुत कीट हैं जिनमें... पर पा स्थायी होती है इनमें | विवरवासी ज्ञातियाँ भी पाई जाती

भूछेदक मधुमक्खी क्‍ ..... भूछेदक मधुमक्खी कुशल विवर-निर्मायक है। छोटा आकार | होने पर भी यह भूमि के अन्दर बड़ी सरलता से गहरा खोद डालती है ये पथरीले मार्ग को छेदकर भी अपने बिवर खोद लेती है। ये बिबर के द्वारों से निकल्षती तथा फूलों को सेचित करती हैं, साथ ही पराग का .भण्डार ढोकर खाने के लिए बिवर में भी संचित करती है | ' एक स्थान पर इन्हें ऐसी पथरीली भमि में विवर खोदते देखा गया है जिसमें छोटा मोटा चाकू नहीं धँसाया जा सकता था। . पत्थर मिश्रित होने, नित्य लोगों के चलने से दबाव पड़ने तथा शीष्म की तीत्र धूप द्वारा छुलस सा जाने से वह भूमि पको हुई... ईट से भी अधिक कड़ी हो गई थी .... इस कड़ी भूमि को खोदने के लिए मोटे फल्चक वाले चाकू... को उपयोग में लाना पड़ा। बड़े परिश्रम के पश्चात्‌ कितने ही विवरों का पता.चला | इसके विवर औसत रूप में आठ इच्म्च गहरे.

१२४... जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

खुदे थे | अन्त में वे सहसा टेढ़े हो जाते थे। अन्तिम भाग एक हे गोल कक्ष रूप में होता था उसी में परागों के भंडार रूप में मटर है के बराबर एक गोला पड़ा रहता था | विवर खोदने ओर परिवार के पोषण का सारा भार मादा पर ही होता है। नर के अगले पैर खुदाई कर सकने में असमथे होते हैं। उसके पिछले पैर पराग वहन कर सकने में भी असमर्थ

होते हैं भूछेदक मधुमक्खी की. ही एक जाति लम्बपुच्छीय कही जाती है | उसके मुख के आगे संवेदनशील मुच्छीय रोम बड़े आकार का होता है। इसके अगले पैर के अथम जोड़ पर एक दाता भी होता है। भूछेदक मधुमक्खी,की ही तरह यह भी प्रृथ्वी में विचर खोदती है किन्तु इसका विवर अधिक गहरा होता है और चिकनी मिट॒टी के स्थल को अधिक पसंद करती है विवर का अन्तिम गअंडाकार रूप में परिवर्तित होता है।डउस कक्ष की दीवालों को दबा और पीटकर यह, यथेष्ट कड़ी बना देती है इस सावधानी का यह कारण है कि उस कक्ष में मधु ओर पराग का मिश्रित भंडार संचित किया जाता है। वह अद्ध द्रव रूप में रहता है यदि कक्ष की दीवाल कड़ी हो तो इस खाद्य-पदार्थ को सोख ले कक्ष के अन्दर अंडे दिये जाते हैं। समय आने पर उसी से है लावा ( इज्ली ) उत्पन्न होता है मीठे मधु तथा पराग का भंडार उसके आहार के काम आता है। यह चारों ओर से उसे आवेष्ठित... ..._ रक्खे होता है। इल्ली विकसित होकर प्यूपा अवस्था में पहुँचती . है जो अंडे से नवजात इल्ली तथा पूर्ण कीट का रूप बनने के मध्य... की अवस्था होती है| प्यूपा के शरीर पर साँप की केंचुल समान .. आवरण होता है। मुच्छीय रोम भी निकले होते हैं। इस आवरण _ से निकलने में नर को कठिनाई होती है-परन्तु पैर की प्रथम संधि

बिल-निर्माता कीट... शरश के दांते से सहायता प्राप्त होती है। ज्योंही यह आंशिक रूप में

मूछ को दांते में फैसा देता है। उसी पर पाद-संधि भी दबा देता

है। मंछ को दांते के मार्ग बाहर निकल जाने का अवसर होता

इसके बाद केचुल को बिल्कुल हटा देना सरत कार्य होता है।... इन जन्तुओं की मादाएँ निरन्तर कार्यसंल्ग्म रहती हैं। नर

ओर संचित करने के लिए खाद्य-भंडार बाहर से ढो लाती है प्रकृति हनमें ऐसे ही रूप की अन्तर्प्ररशा किसी प्रकार दी है जिससे इनका जीवन-काये चलता रहता है

ट्वियुग्मांकी भधुमक्षिका - शरीर पर दो जोड़े (ह्वियुग्म) धब्बे होने से इस पक्षधारी कीट |. को व्वियुग्मांकी नाम दे सकते हैं। इल्ली अवस्था में यह हिंसक होता | है और मादा इसे बिवर में उस अन्तु को प्रदान करती है जिसे यह | भक्षण करता है। विवरवासिनी मधुमज्षिका की रकोलिया प्रजाति की यह एक जाति है। कुछ विवरवासी मधुमज्षिकाएँ यां सकोलिया . की कुछ जातियाँ दूसरे कीटों की इल्ली से ही अपनी इल्ली का पोषण कराती हैं | कुछ अन्य जातियों की विवरवासी मधुमज्षिकाओं की. इल्नियाँ भुनगे खाती है, कुछ मधुमक्खी ही खाती है, कुछ मकड़ा पसंद करती है तथा कुछ की मक्खियाँ या अन्य कीटों के कैटर- पिज्ञार खाते पाया जाता है द्वियुग्मांकी सधुभक्षिका अपनी इल्ली के आहार के लिए भुनगे की इक्ली या नवजात शिशु प्रदान करती है ।विवर के अन्दर कई पड़ी मिल सकती 'ैं। उनमें बड़ी इल्ली ही खाई जाने वाली होती . है जो भुनगे की इंल्ली होती है। छोटी इल्ली इस मंघुमक्षिका की

बा

का

केंचुल से बाहर निकला होता है, अपने सिर को झ्ुकाकर प्रत्येक . 6

तो सैर-सपाटे में ही समय व्यतीत करते हैं मादा ही विल खोदंती...

१२६ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

होती है जो उस बड़ी इल्ली को खाकर अपना पोषण करती है| इस जाति की मधुमक्खियों की पीठ पर चार स्पष्ट धब्बे इनकी निश्चित पहचान है। एक दूसरी विवरवासी मधुमक्खी तेलचट्टा को अपने बिल में अपनी इल्ली के आहार के लिए पहुँचाती है। यह बड़ी कुशलता से पीछे की ओर चलकर तेलचद्गा विज्ञ में घसीट ले जाती है|. क्‍ मकरीभक्षक कीट

.... कुछ विवर वासी मक्षिकाओं की जातियाँ .अपनी इल्लियों के आहार के लिए मकड़ी उपयुक्त समझती हैं। अतएव इन सब जातियों को मकरीभक्षक मधुमजछिका प्रजाति कह सकते हैं। इन सब के बिबवर में मकड़ी संचित पाई जाती हैं। इन मक्खियों को बलुही भूमि पसन्द पड़ती है। कुछ तो सूखे कठोर बलुह्े कगारे पसन्द करती हैं, परन्तु कुछ शिथिल बालू की भूमि ही अपने विवर के लिए पसन्द करती हैं बलुहे स्थल की निवासिनी बंरें या ततैया भी मकरी-भक्षण . द्वारा अपनी इल्लियों का पोषण करती है। यह बड़ी प्रबल विवर- - निर्मायक होती है। यह बड़े विकट उत्साह से अपना कार्य प्रारम्भ “करती है। उसके मुच्छीय बाल सदा कम्पित रहते हैं, पंख भी उत्तेजना के साथ गतिशील पाए जाते हैं। जब विवर पूर्ण बन जाता है तो मादा ततैया अपनी जाति-बृत्ति 'के अनुसार कैटरपिलार या मकड़ी की खोज में बाहर निकल जाती है। विवर के अन्त में एक छोटा कक्ष खुदा होता है, उसी में उसे पहुँचाती बरें या ततैया सदा अपना शिकार जबड़ों में दबाकर उल्टे ही भीतर बिवर में प्रवेश करती है। उसका शिकार इतना बड़ा होता है कि उसे .कठिनाई से ही भीतर घसीट ले जाती है। यदि विवर

' बिज्न-निर्मोता कीट. १२७ यथेष्ट चौड़ा होता तो उसका फिर बाहर निकल “सकना बिल्कुल कठिन ही होता जब शिकार को वह विवर के कक्ष में ठीक तरह

संभाल लेती है तो उसी के ऊपर अपना “अंडा दे देती है। फिर. विवरसे बाहर आकर उसका मुख कंकड़ी से बन्द कर नए शिकार

बा 24

का 0४ 5 का ही

ब् 6 4 4 रे जा / (| भी | | (॥ ८/ ७०५१ (॥ 2 8०2

474 (622८

क्‍ मकरीभक्षक ततेया का बिल की खोज में चली जाती है | दुबारा-तिबारा शिकार ला-लाकर वह. . विवर के कक्ष में रखती ओर उत्त पर अंडे देती जाती है जब चार पाँच अंडे दे दिए जाते हैं जिनके लिए आहार की व्यवस्था पहले... ही कर चुकी होती है तो अंडा देने का कारये समाप्त कर वह बाहर. आती है ओर विवर का मुख भलीभाँति बन्द कर देती है। यह

श्र्८ ..जन्तु बिल कैसे बनाते है ? उसके जीवन का अन्तिम कृत्य ही होता है | अंडों को विवर में सुरक्षित रख लेने के बाद बह बाहर उड़ कर मत हो जाती है। भारत में एक मकरी-मक्षक पक्षधारी कीट (स्फेक्स सकुटिजेश) होता है | उसका शरीर तीन चौथाई इच्च लम्बा होता है। उसका रंग चमकीला हरा होता है। अपने नवजात शिशुओं (इल्लियों) के आहार के लिए यह बड़े मकड़ों तथा तेल्नचट्टा का शिकार करता है इन्हें पकड़ने में बह बड़ा कोशल दिखलाता है। एक बार एक मकरीभक्षक ने एक मकरा पक्रड्ा। वह इतना भारी था कि जड़ कर ढोना कठिन था इसलिए उसने एक तट तक घसीट कर पानी में डाल दिया और उस पर बैठ कर उसे दूर तक बहते जाने दिया। कुछ ड्ूबता सा देख वह दूसरे तिनके पर बैठ कर साथ बहता रहा। अन्त में किनारे लगने पर उसे फिर घसीटने की उसने कोशिश की. किन्तु निष्फल रहा अन्त में छोड़ कर जाना पड़ा। | एक पक्षीभक्षक पक्षघारी कीट (मेलिनस अरबेंसिस) होता है विस्मय की बात है कि मक्षीमक्षक स्त्रयं तो मनन्‍्द गति का होता है ओर जिन मक्खियों को पकड़ता है, वे उससे 'तीत्रगामी होती हैं, . फिर भी कौशल से उन्हें पकड़ लेने का प्रयास करता है। इसके लिए वह धीरे धीरे ऐसे स्थानों के निकट रेंगता रहता है जहाँ . मक्खियों के भारी कुण्ड एकत्र रहते हैं किसी मकखी के निकट आकर उस पर अचानक आक्रमण कर पक्रड लेता है। इस तरह कितनी ही मक्खियों को पकड़ कर अपने विवर में पहुँचाता है

- छः या सात मक्खियाँ बिल में पहुँचाई जाती हैं। अंडे से उत्पन्न...| .. होते ही इल्ली एक-एक कर मक्खियों को खाना प्रांरम्भ करती है।.. | . कोमल अंग खाकर कठोर भाग छोड़ देती है। दस दिन तक |

.. इन्हें खाकर इल्ली भोजन-कार्य पूण करती है। फिर अपने शरीर पंर एक हंढ़ू गहरे रद्न का कोष चढ़ा लेती है। शीतकाल उसी रूप

आधा 7ाइन्याापवाा्षातालाातककतपकापतनक्कापममातमतब9्पशलमानभापम्फापलपअर५्न»थ मम स_कलात पतन कन्न>ननभ»« यऊस्‍उ बम भ्पत्उपपघथ तमाम पर ॥/ ९१० सन्त व2ए ५५ का मकर ातर पाते सा दथ 4 तक बाक कक चकिक 3232 3302223/220/6 2 22222 22%: रल 22232 225 428 42कीवपहअक 226 77 20022 85 अक05५० 22275 20020 2 5:22.50::05:02//22 220 2000 02:24:

बिल-निर्माता कीट १२६

में व्यतीत कर भ्रोष्म में प्यूपा बनती है। इसके पश्चात पूर्ण पक्ष-

धारी कीट रूप वर्षा के अन्त में प्राप्त करती है।

एक बिलस्थ पक्षेधारी कीट फाइबेथस ट्रेंगुलम नाम का होता

है। यह छत्ते बनानेबाली मधुमक्खियों को पकड़ कर अपने विवर में ले जाता है। यह भयानक रूप का जन्‍्तु है। सिर बड़ा और

जबड़ा चौड़ा होता है पीले उदर तथा काले धब्बों के कारण बरें

समान ही जान पड़ता है | छत्ते वाली मधुमक्ख़ियों को छोड़ कर अन्य कीटों को भी पकड़ता है।

अट्टालिका-निर्माता मधुमक्षिका बिल में रहने वाली मधुमक्खी (बाम्बस टेरेस्टरिस) को अट्ठा-

लिका-निर्माता मधुमतज्षिका कह सकते हे | यह यथेष्ठ गहरा बिवर

बना लेती है। किसी कगारे के किनारे इसकी कुछ जाति के विबर बने मिल सकते हैं। प्रायः एक फुट या डेढ़ फुट की गहराई में इसका जनन-कक्ष बना हो सकता है। जहाँ मिट्टी झुरभ्षुरी-हो वहाँ जनन-कत्न बहुत अधिक गहराई में पाया जाता है। अन्तिम छोर . तक पहुँचने के लिए एक बिवर में ऊपरी छेद से एक लम्बबत पाँच फुट लम्बा डन्‍्डा ग्रविष्ट किया जा सकता है। कदाचित किसी ' चूहे के विवर द्वारा ही इतना विवर बन सकने में उसे सहायता मिली होगी

इस मधुमक्षिका के विवर-निर्माण की कथा बड़ी विचित्र ही है | वर्षा ऋतु बीत चुकने पर शरद के आगमन पर इन जातियों की सभी मधुमक्खियाँ मर चुकी होती है। नर तो अवश्य ही मर चुके होते हैं, परन्तु इक्का-दुक्का मादाएँ कहीं जीवित रह सकी होती हैं और वे शीतकालीन दीघ निद्रा में पड़ी जीवन-यापन करती हैं। वे अपनी शीतकालीन दी निद्रा के लिए अपने विवर को नहीं

&

१३०: जन्तु बिंल कैसे बनाते हैं ?

चुनतीं बल्कि इक्के-दुक्के कहीं छिपे स्थानों में पड़ी रहती हैं छुप्परों, वृक्ष-कोटरों, पुआल की ढेरियों या खंडहरों में उनके छिपने का स्थान मित्र जाता है |

बसनन्‍्त के आगमन पर सूर्य की किरणों तीत्र हो चलती हैं, . शीत देशों के जन्तु अपनी शीतकालीन दीघ-निद्राएँ भम्त करते हैं। उन्हें नया आवास ढंढ़ने की चिन्ता होने लगती है। बाम्बस टेरेस्ट्रिस नामक जाति की भूजोवी मधुमक्खी की बची-खुची मादाएँ बसनन्‍्त ऋतु में इधर-उघर उड़ती दिखाई पड़ सकती हैं। वे सत्र भूमि की परख सी करती जान पड़ती हैं। कदाचित अपने बंश- वृद्धि की अत्यधिक चिन्ता में ही उनका हृदय इतना अधिक शंकित रहता है कि कहीं भी किसी दशंक की आहट पाने पर वे अन्यत्र भाग जाती है | कुछ समय बाद बिल्कुल निश्चित अनुभव करने पर ही कहीं हरियाल्ञी की ओट के स्थान में विवर खोदना प्रारम्भ करती हैं।

एक बार स्थान निश्चय कर लेने पर यह जल्दी-जल्दी भूमि खोदती है यथेष्ट गहराई तक विवर खोद चुकने पर वह अन्त में जनन-कक्ष निर्मित करती है प्रारम्भ वर्ष में कुछ ही कोष्ठक बनते हैं जिनमें मादा अंडे देती है। इनमें श्रमिक मधुमक्षिकाएँ उत्पन्न . होती हैं जो विवर को विस्तृत बनाने में संलम होती हैं इनकी इल्लियाँ बड़ी, मोटी, श्वेत तथा गोल शरीर की होती हैं उनमें छोटे शृक्बीय शीर्ष होते हैं। पोषण प्राप्त कर ये अपने शरीर के चारों ओर कड़ी खोल. चढ़ा लेती हैं और कुछ समय में पूर्ण आकार प्राप्त करती है। उस समय खोल में छोटा छेद कर वे बाहर निकल आती हैं। हा प्रारम्म सें ये कीट कुछ समय तक बाहर उड़ने का साहस नहीं

करते। उनके शरीर पर के मोटे रोम परस्पर गँये पड़े होते हैं।

बिल निर्माता कीह.. १३५

-पड्छ लचीले तथा भद्गर होते है, पैर दुर्बेल होते हैं| ये सब कुछ दिन

में बल पाकर पुष्ठ हो जाते हैं और उन्हें उड़ने का अबसर देते है वर्षा के प्रथम भाग में केवल श्रमिकों का उद्य हुआ रहता है। नर आादा प्रीष्म के आगमन पर ही दिखाई पड़ सकते हैं

भूजीबवी मधुमज्िका के कोष्ठक किसी नियभित पंक्ति में छत्ते

की भाँति नहीं बने होते। वे छोटे या बड़े रूप में एक जगह बने होते हैं'। कहीं दो तीम का गुद्द होता है, एकाकी कोष्ठक भी पाए जाते है। इन मधुमक्खियों की संख्या बहुत ही अधिक .होती है एक विवर में एक वैज्ञानिक ने १०७ नर, ४६ भसादाएँ तथा १८० श्रमिकों को देखा इन सब का योग ३४३ था। छत्ते में रहने वाली मधुमक्खियाँ एक छुत्ते में इससे अधिक संख्या मैं अवश्य पाई जाती हैं, परन्तु भूजीवी मधुमज्षिकाओं का आकार बड़ा होता है, अतएवं इतनी संख्या का एक विवर में होना भी आश्चर्य की बात ही है। इनके रहने के कोष्ठक भी बड़े होने से स्थान अधिक घेरते है

इन मधुमक्खियों का संचित मधु मनुष्य के लिए खाद्य नहीं होता उसमें कुछ मादकता या विष का समावेश होता है।

भूजीवी मधुमज्षिका की मादा एक इच्च लम्बी होती है। उसका

रंग काला होता है। गले में नारंगी पीली पढ़ी होती है। उदर की. दूसरी फाँक के निकट भी इसी रंग की पढ़टी होती है। चौथी फाँक

का सिर तथा पूण पाँचवाँ फंक मठमैला पीता होता है। उद्र की कोर नम्म होती है। श्रमिक का ,आकार रानी का आधा ही होता है | रंग वैसा ही होता है परन्तु पीले रोमों में श्वेत रोम मिश्रित होते हैं। श्रमिक ओर मादा के मध्य का आकार नर का होता है |

इसंकी लम्बाई तीन चौथाई इच्च होती है मादा की अपेक्षा पीला.

११२ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

रंग चमकीला होता है। उदर की छोर पर हल्के पीले लाल रंग के रोम उगे होते है

भूजीवी मधुमज्षिका के समान एक मधुमज्षिका की दूसरी जाति प्रस्तरजीबी (बाम्बस लेपिडारियस) कहलाती है। यह पत्थर के ढोंकों के सध्य बिवर बनाती है। इसके उदर के अन्तिम तीन छोरों का रंग चमकीला नारंगी ल्ञाल होता है। श्रमिक और मादा के रंग समान होते हैं, केवल आकार में भेद होता है। मादा की लस्बाई सिर से लेकर दुम की छोर तक एक इब्च होती है। श्रमिक इसके आधे लम्बे होते हैं नर के विभिन्न रंग होते हैं परन्तु प्रायः काला रंग होता “है, मुख, वक्षस्थल् के अग्न भाग तथा उदर के प्रथम . काँक पर मोटे पीले बाल निकले होते हैं।

यह मधुमक्खी अधिक डरावनी होती है। इसका विषेत्ा डब्डू प्रबल अख होता है। उसके मारने से कई दिन तक दर्द रहता है। पथरीले ढोंकों की ढेरी में यह विबर बनाती है। चूने के पत्थरों के भग्न अंश में भी रह जादी है या भूजीवी मधुमक्खी की तरह भूमि पर विवर खोदती है

बर्रे साधारण बरें मधु, पके फल्न॒ तथा शक्कर का प्रेमी होती है इसके शरीर में डंक एक प्रबल अख्न होता है। बगीचों में यह पके फल्नों में छेद कर खाती है, परन्तु यह कितनी मक्खियों को भी मारती है जिनकी इल्लियाँ बाग के पौधों की जड़ें ही खाकर उन्हें खुखा सकती हैं अतएब इसके द्वारा हानि के साथ कुछ लाभ भी

.. कृषकों को पहुँच सकता है यह बड़ा साहसी कीट है. तथा भोजन

: आप्त करने के लिए विचित्र युक्ति करता है एक वैज्ञानिक ने एक सूअर धूप में बैठे देखा जिसके शरीर

.. बिल-निर्माता कीट... १३३ पर मक्खियाँ भारी संख्या में बैठी पड़ी थीं। उस सूअर के शरीर . पर पीले रह्ड का जन्तु उड़कर कोई मकखी रपट ले जाता | सूअर को उससे कुछ असुविधा नहीं होती मक्खियाँ भारी संख्या में बहाँ बैठी ही रहती और एक-एक कर कितनी डस पीत रंग के आक्रामक द्वारा पकड़ ली जातीं। वह बरे ही थी जिसे सहज रूप में भारी

- संख्या में एक स्थान पर पढ़ा शिकार प्राप्त ही जाता। प्रति दस . सेकेण्ड पर एक बंरें आकर सूअर के शरीर पर से एक मकखी पकड़ त्षेजाती।

बरें का निवासस्थान भूमि के अन्दर पाया जा सकता है उसका

गृह एक अद्भुत कौशलपूर «कार्य होता है। उसका आकार प्राय गोल होता है। उसमें उपयुक्त सामग्री मोटे भूरे कागज्न-सी होती है किन्तु उतनी दृढ़ नहीं होती |... .... थदि उसके विवर को खोदा जाय तो विचित्र दृश्य दिखाई पड़

सकता है। पंक्ति रूप में बने षट्भुजीय कोष्ठकों के टीले के टीले मिल सकते हैं। ये कागज की तरह पतले आच्छादन से ढके होते हैं जिससे मिट॒टी ऊपर से नगिर सके। एक-एक पंक्ति को कोष्ठक- अट्टालिका कह सकते हैं

वसंत के आरसभ्म काल में बरे किसी ऐसे स्थान से बाहर होती

है जहाँ उसने शीतकाल व्यतीत किया होता है। वह चारों ओर भूमि का ध्यान से :निरीक्षण करती है| वह तो उँचे छड़ती है ओर तींत्रगति से ही उड़ती है। भूतल के निकट ही धीरे-धीरे छड़ती जाती है | प्रत्येक भींटे, दरार आदि को पारकर उसका भल्ली-

भाँति निरीक्षण करती है कहीं किसी चूहे के परित्यक्त विबर या किसी . कीट की प्रत्यक्ष सुरज्ञ को पसन्द कर लेती है| उसमें बारबार प्रवेश कर ठीक तरह निरीक्षण कर लेती है। यह उसके गृह-निर्माण के लिए उपयुक्त स्थल ढू ढ़ने का प्रयास होता है

१३७ जन्तु-बिल कैसे बनाते हैं ?

एक बार एक उपयुक्त स्थान चुनकर वह एक कक्ष धरातल से कुछ गहरे तल्न पर बनाती है। मिद्‌टी के खण्ड तोड़-तोड़ कर वह बाहर प्रंकती जाती है अपनी इच्छातुसार कक्ष बना चुकने पर उड़ जाती है और ,किसी पुराने सड़े-गले ल्ढे पर जा बैठती है वहाँ से बह काठ के नर्म भाग को काटकर प्रथक करती है। काएछ तन्‍्तु .को गुद्दी-ल बनाकर वह पुनः अपने निमित कक्ष में पहँँचाती है | काठ की गुद्दी उसके कक्ष में प्रयुक्त होती है

बिवर के अंदर खुले कक्ष की छत में पिछले पैर के जोड़े से चिपक जाती है तथा अंतिम अगले पैर के जोड़े तथा जबड़े से वह काठ की गुद्दी छत में स्थित करती है। वह छत से ज्ञटकता हुआ संभ-सा बनकर ऐसा ही रूप धारण करता है जैसे बरगद की शाखाओं से जड़ें नीचे निकलती होती हैं उसमें काठ की गुद्दी बार-बार लाकर वह संयुक्त करती जाती है जिससे अंत में वह एक छोटा स्तंभपूर्ण बन जाता है। अब बह कोष्ठक-ज्ञाल बनाने लगती है। स्तंभ के अंत में तीन छिछले कोष्ठक बनाती है। वे कोष्ठक ( कोठरियाँ ) प्यात्नी- नुमा होते है। अन्य-कोष्ठकों की भाँति छः पहल ( षट्भुज ) नहीं होते इन छिछले प्यात्ों में से प्रत्येक में वह एक-एक अंडे देती है। . फिर उसके ऊपर छत बनाती है। कोष्ठक बनाने के पदार्थ का ही उसमें भी उपयोग होता है किन्तु (वह अन्य रूप में रकखा होता है. काठ के रेशों की लंबाई उस नियोजित कोष्ठक के केन्द्र से समकोण बनाती है। अन्य कोष्ठक बनाए जाते हैं उनमें अंडे दिए जाते हैं

तथा उन पर छत बिठाई जाती है।

प्रथम तीन कोष्ठकों में दिए अंडों से कुछ समय में इल्नियाँ निकलती हैं वे शुक्खड़ और छुद्रकाय होती हैं | उनकी सतत चिन्ता.

रखनी पड़ती है। वे वड़ी शीघ्र विकसित होने लगती हैं। उनकी. /

| बिल-निर्माता क्रीट .:- ... १३४

आकारवृद्धि के ही अनुसार बर उन्तके कोष्ठक को दीवाल को बड़ा करती जाती है। कोष्ठकों की दीवाल इल्लियों की आकार-बृद्धि के अनुसार बढ़ाते जाने का यह परिणाम होता है कि इल्लियाँ ल्टकी-सी रहती है और . उनका मुख नीचे की ओर रहता है। ऐसे कीटों में प्रायः ऐसी व्यवस्था ही होती है मादा को ही सारे कार्यों की चिन्ता करनी पड़ती है! कक्ष विस्तृत करना, अंडे देने के कोष्ूक बनाना, बाहर से सामग्री लाना, अंडे देना तथा झुक्खड़ इल्लियों को भोजन पहुँचाना उसके अनवरत काये होते हैं

दिनों के बाद इल्नियों का भोजन-कार्य समाप्त हो जाता है।

वे कोश (खोल) निर्माण कर उसके अन्दर दीघ निद्रा में पड़ जाती हैं। यह कायापलट के लिए कीटजगत की सावेभौम व्यवस्था-सी ही . है। इसलिए उनकी चिन्ता से सादा मुक्त हो जाती है | समय पूर्ण

' होने पर वे पूर्णो अवस्था प्राप्त कर अपना कोश (खोल) काटकर...

बाहर निकल आती हैं। उनके पुष्ठट हो जाने पर मादा को केवल अंडे देने का काये रह जाता है कुछ समय में कोष्ठकों की पहली अट्टालिका पूर्ण हो जाती है

फिर भी स्थान की आवश्यकता रहती है | अतएव दूसरी अट्टालिका

का सूत्रपात करना पड़ता है इन कोष्ठकों के संधिस्थल पर लटकते हुए कई स्तम्भ पहली अदटालिका के प्रारम्भ के समान बनाये जाते

हैं। इनमें कोछ्ठकों को जोडुने से पहली अदूटालिका के नीचे कोष्ठको.| की दूसरी अदृटांलिका बन जाती है। इन दोनों के मध्य इतना हो... |

स्थान रहता है कि मादा चलकर इस पार से उस पार तक जा

.. सके। इन सबमें कोछ्ठकों का मुख अधोवर्ती ही होता है तथा उनके... आधार ऊपर की आर होते हैं। अतएवं दूसरी कोष्ठक अट्टालिका... के आधार-स्थल एक मंच बनाते है जिस पर मादा बरें चलकर

१३६ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

ऊपरी कोष्ठकों की इल्लियों को आहार प्रदान कर सके इसी प्रकार कोष्ठकों के नए निर्माण द्वारा तीसरी, चौथी, पाँचवीं आदि अट्टा-

बर की भूगर्भीय अट्टालिका लिकाएँ बनती हैं। वे सब एक दूसरे के समान ही होती हैं। कोघ्चक

बिलन-निर्माता कीट. १३७

इतने छोटे होते हैं कि उनके द्वार में मादा बरें अपना सिर भी नहीं डाल सकती एक बार पूर्ण रूप प्राप्त होने के बाद कीटों की. वृद्धि नहीं होती अतएव इन कोष्ठकों में उत्पन्न इल्लियों के पूरा रूप प्राप्त होने . पर सादा बरें से अवश्य ही बहुत छोटा आकार ही होता है। -यथाथे में वे श्रमिक बरें ही होती हैं। उन्हें कभी-कभी नपुंसक बेरें भी कहा जाता है उसका साश जीवन श्रम करने के लिए ही होता है। इन्हें यथार्थत: अद्ध विकसित मादा कहा जा सकता है बरें के निर्माण-कार्य में परिवतेन उपस्थित होने का भी एक “समय आता है बाद में जो थोड़ी सी अटद्टालिकाएँ निर्मित होती हैं जनमें कोष्ठक बहुत बड़े आकार के होते हैं। वे उन इल्लियों के खजन के लिए होते हैं जिनसे पूण आकार के नर और मादा बरें का जन्म होता है अतएवं यह देखा जा सकता है कि वर्ष के प्रारम्भ में श्रमिक बरें का ही जन्म होता है। नर ओर मादा नहीं उत्पन्न होते जनन ऋतु के अन्तिम भाग में ही नर मादा उत्पन्न होते हैं ््ि च् चोथी, पाँचबीं अट्टालिका बन जाने के बाद ही बड़े कोष्ठकों की अट्टालिकाएँ निर्मित होती हैं। अट्टालिकाओं का व्यास पहले बढ़ता जाता है किन्तु बड़े कोष्ठक बनाना प्रारम्भ होने पर अद्गा- ल्िकाओं का व्यास कुछ छोटा होने लगता है बरें के बड़े ग्रह में कुल सात या आठ हजार कोष्ठक हो सकते

हैं। प्राय: प्रत्येक कोष्ठक में तीन पीढ़ियों का जन्म होने का अवसर.

होता है इन सब की इल्लियों को यथेष्ट आहार आवश्यक होता

.... है जो जान्तव पदार्थ ही हो सकता है | अतएवं इतनी अधिक संख्या...

की इल्लियों द्वारा कितने अधिक कीड़े-मकोड़े आदि भक्षण किए... जाते होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है नर ओर मादाओं के

शहद. ... अन्तु बिल कैसे बनाते हैं

उत्पन्न होने वाले कोड्कों में एक स्तर से अधिक नहीं पाया जाता इसल्लिए उनकी एक पीढ़ी ही उत्पन्न होने का आभास मिलता है ... इल्लियों का रेशमी आवरण सदा जन्नतोदर होता है ओर वह कोष्ठक के मुख को एक गोल रूप में बनाती है अतएब कोष्ठक को भीतर प्यूपा के रहते हुए ही अद्टाल्िका से प्रथक किया जाय तो उसके -: दोनों छोर समान मिल सकते है | इन आवरणों या कोशों से कभी

मध्य का स्राग फाइडकर कभी गोल छेद काटकर प्यूपा बाहर होते हैं

अट्टालिका को प्रचंड प्रकाश में देखने पर कोष्ठकों की दीवालें स्पष्ट दिखाई पड़ सकती हैं | कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि काठ की लुगदी से दीवाल बनाने के स्थान पर कागज के टुकड़ों को अपने नीड़ के निकट पाकर बरें अपने कोष्ठकों की दीवाल रूप में प्रयुक्त कर लेती है उसे बनी-बनाई चौड़ी वस्तु दीवाल के योग्य मिल जाती है, इसलिए काठ की लुगदी से वैसा रूप बनाने का श्रम बच जाता है इन कोष्ठकों की छत दीवालों की अपेक्षा अधिक पुष्ट होती है। वह रेशेदार लुगदी को नीड़ के ऊपर लेपने से बनी होती है उसे चपटा करने के लिए आगे पीछे की ओर मर्दित सा किया जाता है। यह क्रिया राज द्वारा कन्नी से ईटें जोड़ने के गारे या मसाले को दबाकर चिकनाने समान होती है

काठ की लुगदी से बनी रचना द्वारा इतने अधिक जन्‍्तुओं का बोक संभाला जा सकना आश्चयें की बात ही जान पड़ती है। हजारों अंडों ओर इल्लियों का भार तो और भी अधिक होता है, परन्तु बरे की इस रचना द्वारा उनका बोझ भ्नी-भाँति संभाला जा . सकता है दीवालें देखने में दुर्बेत लगने पर भी यथेष्ट पुष्ट होती _ हैं। कोष्ठकों का छपहंल रूप ऐसा पारस्परिक अवल्ञम्ब उत्पन्न करता है कि दीवालें केवल अपने अन्द्र अंडों बच्चों का ही भार नहीं:

* 'बिल्ल निर्माता क्लीट - ३६

संभाल संकती बल्कि नीचे लटकी सभी अद्वालिकाओं का भार भी सेभालने में पूर्ण समर्थ होती हैं क्‍ क्‍ बे के विशाल गृह में जब जनन-ऋतु के अन्त में श्रमिक श्रेणी की तीन पीढ़ियों का तथा पूर्ण आकार प्राप्त नर सादा की एक पीढ़ी का जन्म हो चुका होता है ओर वे प्रौढ़ हो चुके होते है. तो उस गृह में विघटन का वातावरण उत्पन्न होता है। यदि कुछ इल्लियाँ उस समय तक कोष्ठक्रों में विद्यमान रह गई होती हैं तो श्रमिक बरें उनकी भावी विपत्ति का अनुमान कर विवर से बाहर फेंक आती हैं जिससे अन्य जन्तु शीघ्र खाकर उनका अन्त कर देँ। यदि वे विवर की अट्टालिका में ही कोष्ठकों में पड़ी रह जायें तो उन्हें कोई आहार देने वाला रहने से धीरे-धीरे अधिक समय तक _निराहार रहकर दम घुटकर मरना पड़ें। यह विवर के समस्त प्राणियों के स्त होने की घड़ी होती है जिसकी भूमि का स्वरूप वहाँ विद्यमान इल्लियों को लम्बी मौत की यातना के स्थान पर शीघ्र मौत का ही दुख सहन कर लेने के लिए बाहर फेंक दिया ज्ञाता है। . विवर से सारा प्राणि-समूह प्रथक हो जाता है। श्रमिक सतत हो जाते हैं | नर बंरें भी इसी गति को प्राप्त होते हैं। मादाओं *की भी अधिकांश रूप में यही अवस्था होती है वे मत हो जाती हैं . परन्तु शीत के प्रकोप या भयानक मृत्यु प्राप्त होने से कुछ मादाएँ भी रह जाती हैं कहीं दरारों में पड़ी वे शीतकाज्न काट ले जाती हैं

शीतकालीन दीघ निद्रा के बाद वसंत के आगमन पर वे पुनः बाहर...

आती हैं। वे नया संसार बसाती हैं

यही इक्की-दुक्की बची मादाएँ नए बिवर का निर्माण कर हजारों बरें उत्पन्न करने में सफल होती हैं। भावी उप- निवेश के लिए ये ही रानी बनती हैं | यह एक आश्चरयजनक बात

है कि बंरें अपने विवर में शीतकाल कभी भी व्यतीत नहीं...

१8० . जन्तु बिल कैसे बनाते हैं :

करती बहाँ सुगस आश्रय अवश्य रहता है। किन्तु उसका लाभ उठाकर, उस पुरातन रचना को सवबंधा उजाड़कर बाहर ही कहीं

आश्रय प्राप्त करती है | बसंत में जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ने वाली मादा

सहस्रों बरें की जननी बनने वाली होती है | यदि बरें के प्रसार से बचना ही हो तो माली इनको वसंत में मारकर इनका उपनिवेश स्थापित होने का अवसर नहीं दे सकते |

. वैज्ञानिकों ने अपनी आँखों से इस बात की परीक्षा की है कि श्रमिक बरें अपने उपनिवेश या अन्त समय जानकर बची-खुची इल्लियों को बाहर फेंक आती हैं एक वैज्ञानिक ने कई उपनिवेशों का निरीक्षण किया | एक में तो सभी प्राणी बाहर हो चुके थे। उसने उस उपनिवेश से बरें को बाहर आते देखा किन्तु खुदाई करने पर वह उपनिवेश पूर्ण उजाड़ मिला दूसरे उपनिवेश में कुछ बरें बाहर रही थीं | उनमें से प्रत्येक कोई वस्तु ढो रही थी, एक को उसने पकड़कर देखा तो वह उपनिवेश से इल्ली लेकर बाहर रही थी |

कभी-कभी बरें बिबवर बनाकर किसी धन्नी पर या छुप्पर के नीचे अपना नीड़ बनाती है। ऐसी अबस्था में उसके नीड़ या गृह का बाह्य तज्न अधिक सुन्दर होता है। भगर्भीय गृह की अपेक्षा इसके निर्मायक खण्ड अधिक सूक्म छिद्रमय या प्रवेश्य होते है

बरे के सम्बन्ध में डंक मारने का स्वाभाविक गुण मानकर उसे आततायी सममा जाता है। परन्तु वैज्ञानिकों की धारणा दूसरी ही है। उनका निष्कष यह है कियह अकारण डंक नहीं मार . सकतीं | विवश होने पर ही यह डंक मारती है | एक बार डंक मार लेने पर उसके डंक का काँटा आक्रान्त जीव के अंग में फँसा रह

जाता है | कभी-कभी बरें की विष-थैज्ञी पूणंतया डंक के साथ ही. नुचकर प्रथक हो जाती है अतएव ऐसे अज्भ-भज्ज के काये का आभास _

बिल-निर्माता कीट. १४१

कोई जीव अनायास कैसे कर सकता है | अपने गृह की रक्षा के लिए यह अवश्य ही अपने प्राणों की चिन्ता भी छोड़कर शत्रु पर डंक का प्रहार अवश्य करती है क्‍

वैज्ञानिकों का तो यह भी कथन है कि बरें को मधुमक्खी की भाँति पाज्ञा जा सकता है| बल्कि वह उससे अधिक निरापद होती है प्रत्यक्षदशी बैज्ञानिकों का कथन है कि तुरन्त ही सिगरेट पीकर

.. या कोई भी गंध प्रयोग कर मधुमक्खी के छत्ते के निकट होकर.

जाने से वह आक्रमण करती है | रूमाल में इन्र लगाकर जेब में रखे होने पर भी उनका आक्रमण हो सकता है। परन्तु बंरें ऐसा

नहीं करतीं मोनेडुल्ञा सिगनाटा नाम का एक सुन्दर पक्षघारी कीट होता

है, जिसका आकार बरें समान .ही होता है। उसी के समान इसके बक्षस्थत्त तथा उद्र पर मोटे काले धब्बे होते हैं। इसका मुच्छवत्‌ बाल ऐंठनयुक्त होता है इससे प्रमाणित होता है कि यह बरें का. दूर का सम्बन्धी है। इसके विवर बलुहे कगारे में बने होते है जो नदी के ऊपर बढ़े होते हैं। अतएब साधारण यात्री को बे नहीं दिखाई पड़ सकते। यह सोभाग्य की ही बात है कि मोनेडुला सिगनाटा एक ऐसे भयानक आततायी कीट को अपने विवर में सम्वित करता है जिनसे आमेजन के निकटवर्ती निवासियों को महान क्लेश पहुँच सकता है। यह आतर्तायी कीट मोटका मकखी है

मोटुका मकखी एक मामूली आकार का तुच्छ कीट है | हमारी घरेलू मक्खियों से भी छोटा ही आकार होता है। उसका रंग भूरा काला होता है तथा पह् भस्मीय भूरे रंग के होते हैं। केबल उनके छोरों पर श्वेत धब्बे होते है इस मकखी के पास एक बड़ा प्रबत्न अख् होता है. जिससे यह आहार ग्राप्त करती है। जब कभी यह

१४२ _ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

नुष्य पर आक्रमण कर सकती है, यह उस पर जोर से. टूट पड़ती है और त्वचा पर बैठ जाती है तथा पलमात्र में एक तीच्ूण धार की नन्‍हीं वल्ली भोंक देती है। त्वचा कट कर रक्तस्राव होने ज्गता | कुशल्ञ यह है कि रक्तस्नाव कष्ठप्रद॒ नहीं होता कदाचित रक्त

_ चहने के साथ मकखी का विष भी बाहर हो जाता हो

मोटका मकखी बड़ी भद्दड़ होती है। उसे उंगलियों द्वारा सहज पकड़ा जा सकता है। पैर से गुल्फ (टखनों) के पास दर्जनों मोंडुका को बैठे पाया जा सकता है।

मोनेडुला कीट इस मकखी का बहुसंख्यक संहार करता है। अपना शिकार प्राप्त करने के लिए वह आधे मील की दोड़ लगा सकता है किन्तु उस अभियान के पूर्व वह अपने बिवर का मुँह बन्द कर जाना नहीं भमलता लौटने पर विवर का मुँह फिर खोल लेता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि मोटुका मकखी मलुष्य के शरीर पर बैठ कर काटने ही वाली है कि उधर मोनेडुला कीट उड़ता धमकता है और मकखी को ले भागता है। यह मकखी को मुख हे नहीं पकड़ता बल्कि पहले और दूसरे जोड़े परों से पक- ड़्ता है

वेम्बेक्स सिलिमाटा नामक कीट बड़े ही मनोयोग से अपना _विवर बनाने के लिए प्रसिद्ध है। यह हरे रंग का कीट है। चिवर बनाने के लिए उपयुक्त स्थान चुन कर यह बलुही मिट्टी इस प्रकार तीत्रता से खुरचने लगता है कि उसके पीछे धूल का फोवारा उठने लगता है दो या तीन इच्च गहराई में विवर खोदते रहने पर भी ऊपर चारों ओर मिट्टी के कण उड़ कर गिरते रहते हैं। ऐसा ज्ञात. होता है मानों कोई इश्चिन भीतर काम कर मिट्टी ऊपर फेंकता जा रहा है। बेस्वेक्स सिलिपाटा का विवर सदा तिरछा खुदा होता है। जब

.. बिल-निर्माता कीट... १४३

विवर की इच्च तक गहरी पूरा खुदाई हो जाती है तो यह उससे बाहर निकल आता है, इधर-उधर घूमकर स्थान का अवलोकन सा करता है। फिर उड़ कर लुप्त हो जाता है। कुछ समय बाद कोई मक्खी पकड़ कर वह लौटता-है जो उसके नवजात शिशु का आहार हो सकती है। प्रत्येक विवर में एक सकक्‍खी रखता है तथा उसमें अंडे देकर उसका मुख बन्द कर देता है जिससे वह विवर आस- पास की भूमि से भिन्न जान पड़े यह उल्लेखनीय बात है कि विवर चाहे जितने खुदे हों तथा वे चाहे जितने निकठ-निकट हों, परन्तु जिस कीट का जो बिवर उसका खोदा होता है, उसी में मक्खी रखता है दूसरे विबवर को अपना समझने की भूल कभी नहीं कर सकता वह मकखी लेकर सदा उसी स्थल्न पर आता है जहाँ वह . अपनी भावी संतान के लिए बिवर खोदे होता है

चींटा

भारत की फोमिका कम्प्रेस्सा नामक चींटा कभी-कभी धरातल से ऊपर पत्तियों ओर वृक्षों में आबद्ध मिट्टी का गृह बनाता है, परंतु अधिकांशतः भूमि में ही विवर बनाता है इसके विवर में पॉच-छ: द्वार हो सकते हैं जो किसी पत्थर, मिट्टी के ढेले या किसी अन्य वस्तु के नीचे ऐसे छिपे होते हैं कि उनका पता नहीं चल पाता | बिवर में ऊपर की ओर अनेक सुरंगें या दालानें अव्यवस्थित रूप की _ होती हैं वे प्रायः टेढ़ी-मेढ़ं होती हैं वे अधिक लम्बी नहीं होतीं।

अधिक नीचाई की सुरंगें अधिक , व्यवस्थित होती हैं | धरातल से...

तीन-चार फुट नीचे उनका व्यास बड़ा होता है। वे नलिकाकार ' होती हैं तथा बहुत दूर तक फैली होती हैं। चींटे का इतना छोटा

आकार होने पर भी इसके विवर का व्यास कभी-कमी एक इच्च

होता है तथा पाँच फुट से अधिक लम्बाई होती है। इन्हीं गहरी

१४४ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

सरंगों में उष्णदेशीय चींटा वर्षा काल में विश्राम करता है। शीत-

देशों में यह चींटा शीतकाल में अपने विवर में विश्राम करता है।

भूतल्न के निकट सुरंगों का प्रसार होकर बड़े कक्ष का रूप बना

देखा जा सकता है। उन्हीं कक्षों में चींटा अपने श्वेत अंडे देती है

जिससे बे सूर्य की उचित गर्मी पा सकें और बहुत अधिक उष्णता

का भी सामना करना पड़े। यदि रात को वर्षों होने लगे तो चींटियाँ अपने अंडे-बच्चों को उठाकर निम्नतर विवरों में ले जाकर सुरक्षित रखती पाया जाता है।

चींटे के बिवर में कुछ भुनगे पाए जाते हैं जो अन्यत्र कहीं नहीं पाये जाते। उनका चींटों के विवर सें निवास विचित्र सह- योग शभ्रकट करता है। यदि विवर खोदा जाय तो बे झुनगे भाग कर सबसे दूर ही सुरक्ष में पहुँचने का उद्योग करते हैं क्िंतु चींटे

उनका निरीक्षण करते रहते हैं और उन्हें ठीक स्थान पर ही पुनः

पहुँचाते हैं

विवर-निर्मायक गुबरेला

गुबरैले की अनेक जातियाँ होती हैं। इनमें प्राय: अधि- कांश कीटों में विवर खोदने की जो बृत्ति होती है उसके द्वारा निर्मित विवर का उपयोग उनके अपने जीवन के लिए कदाचित ही होता है उसका मुख्य उपयोग शिशु-उत्पादन और पोषण के लिए ही होता है | ऐसे गृह या तो माता-पिता द्वारा शिशुओं के लिए निर्मित . होते हैं या शिशु स्वयं ही अपनी प्रौढ्ावस्था आने के पूव की अबस्थाएँ पार करने और अपना कायापतल्नट करते रहने के लिए बना लेते है। यदि माता-पिता ने ही विवर बनाकर उसमें अंडे के

साथ खाद्य रख दिया तो उससे उत्पन्न शिशु भीतर ही बन्द रह-कर

अपना>पोषण करता रहता है. किंतु उसको इन व्यवस्थाओं के करने

८०4 दानलाती तर पथ किलर कस कहर

धवलसयधस करंट रस

शी अल जम

(0५7५5 30 3 का ५२३४४ ४०,४६७: (४/४बं ४) ४४)४४४४४४७७४७७७७/७४७/४एआ 36७८ 98% ७०४४७७४७७७॥७७॥७४७७४७७७७४७४७४७७७४४४४४७४४॥४७४४४४४७४४७७७४४॥७॥७७४४४७७७॥७७४४४७७४४४७७४७७॥७७७४७७७७७७७एेोेए७४७॥७७एं७७०७४७७७७७४७/७७७:७४७७०छ७छ#ं४७७७७७४४७७७७७७७४७४ ७४७७॥७७७७:६ /#७:

बिल-निर्माता कीट. ...... १४४५

वाले माता-पिता के दर्शन कभी नहीं हो सकते। अंडे से नवजात शिशु इल्ली अवस्था में हं।ते हैं जो कभी स्वयं भी अपने लिए विवर बना लेते हैं तथा स्वयं ही आहार प्राप्त कर प्यूपा अवस्था तक पहुँचते है उस अबस्था में दोघे शयन कर खाल उतार कर बे प्रोढावस्था का नवजीवन प्राप्त करते है क्‍

गुबरेला की जातियों में इल्ली के लिए माता-पिता हारा ही विवर वथा खाद्य की व्यवस्था होते पाया जाता है

: व्यात्न गुबरैला छोटे आकार का होकर भी बड़ा सुन्दर रूप रखता है। यह बड़ा भयानक भी होता है। अपने पैर तथा पंखों का बड़ी तीत्रता से प्रयोग कर सकता है। दौड़ने या उड़ने में यह इतना बेगगामी होता है कि पहचाना भी नहीं जा सकता। भूमि पर उतरते ओर फिर डड़ जाते देर नहीं लगती धूप में उड़ते रहने . पर इसके डदर का रघ्ज हीरे की भाँति जगमगाता रहता है। यह विकट विवरनिर्मायक शक्ति रखता है। यह अपनी प्रौढ़ावस्था की विकट क्रियाशीलता का कुछ आभास इल्ली स्थिति में भीदे देता है

व्याप्त गुबरैला रेतीले तटों पर पाया जाता है। योरोपीय देशों में यह कभी वृक्षों पर नहीं देखा जाता। भूतल पर ही जीवन व्यतीत करता है, परन्तु अमेरिका में इसकी जाति वृक्षचारी ही होती - है। योरोपीय जाति के गुबरैले तो भूमि का सी वह भाग पसन्द नहीं करते जहाँ घास या छोटे पोधे डगे हों। साए की इसे तनिक भी आवश्यकता नहीं होती धूप में क्ुज़्सती भूमि पर यह दौड़ता रहता है कि अर

व्यात्न गुबरेला की इल्लियाँ विचित्र जंतु हैं। रंग श्वेत-सा होता है, विचित्र रूप होता है। सिर बड़ा होता है ओर शव गीय रूप का होता है। शरीर के आठ फंक कूचड़ की भाँति उठे से होते हैं यह

१० क्‍ क्‍ बा

कैसे बनाते हैं ?

तु बिल

करके: का

जे

१४१३

! तथा लम्बबत्‌ बिवर में

ने

ड़

ती, केवल जब यह नी

ड़े |

दिखाई सकता है

+५

ग्क

पड़

2

वा ट॒ गहर

प्र जा

प्र वि

के ऊपर नहीं ब्शे

धरातल लिर

री यई

प्र्गं

भी र्भ

कक हि

ऊपर तीम् चल्न

*ड

उसमें

कण. [ह।

उसकी केवल

| हाॉत

है

क्र्फ

छ्‌

जी

भे यह

ट्पो

रहता

की

छा

ए्‌ः

डाई होती

[ही चौो

हतर्न

छ्‌

ती्‌

समथ ही

हा

श््छ

क्र

की के

सकने

हे | उसका मुख्य आहार

की वि

सके सक होती

हरी हे

ल्ज्ञी हि

5, स्क्र

ता थक

ज्ञाका

हसका शरीर ऊपर-तीचे

थक छा

हैँ कि

५: द्य

याघ्र गुतरे

शेष अपछुविधा में पड़े

से

वधा सा रह

धन के

है

पान से

| एक

&0//

८८

छा

ल्‍्प

( (22) हु

.

कक,

का

“4

!॒

है!

|] लहर

अफि:टक्‍ पाक +++

* हर

की इसका ढज्ञ विचित्र है। अपने विवर के कर यह अपने शरीर के ऊपर स्थित अंकुशों से.

आहार श्राप्त करने का

प्ररी भाग में चढ़

छा कि अल

४४ कह

बिल-निर्माता कीट को

अवलस्‍स्ब लेकर रुकी पड़ी रहती है और अपना बबड़ा घशात के बराबर कर लेती है| इस स्थिति में रहने पर यह अहः् रहती है। ज्योंही कोई कीट उधर से जाता है, उसे यह अप

सियानुमा जबड़े से तुरन्त पकड़ लेती है और उसे घसीटका निचले तत्न में ले जाती है | बहाँ उसे खा डालती है यह केवल हिसक ही नहीं होती, बल्कि अपनी शक्ति के अनुसार संबप थी कर सकती है। यदि इसके बिवर में कोई तिनका डाला ज्ञाय तो उस पर मकपटकर ऐसे जोर से पकड़ लेती है कि तिनका बाहर खींचने पर वह रवयं भी लटकी चत्ली सकती है। परन्तु छोड़कर . अपनी प्राणरक्षा का प्रयास नहीं करती |

. व्याघ्र गुबरैले की इल्ली का विवर स्वयं उसी का बनाया होता. है, माता पिता उसके विवर की व्यवस्था नहीं करते | इसके बनाने में कुछ समय लगा होता है | पेर तथा जबड़े से यह मिट्टी शिथित्

कर लेती है ओर उसे अपने चौड़े सिर से बाहर फेंकती है ...._ गुबरैले की एक जाति भूतल्गर्भी होती है जो अपनी भावी सन्तान के लिए विवर बनाती है। यह गुबरैलां किसी मृत जन्तु को पाकर भूतल में समाधिस्थ करने का प्रयत्न करता है जिसके पूर्व अपने अंडे देकर ऊपर से भत्नी-भाँति ढक देता है। म्रत चूहा, मृत पक्ती आदि कहीं नरम भूतल पर पड़ा रहने पर इन गुबरेलों की क्रियाशीलता देखी जा सकती है। शिकार को पाकर कभी द्नि को ही ये गुबरेले घमकते हैं। किन्तु रात ही इनक्री विशेष क्रियाशीज़ता का समय है दूर से जड़ते हुए म्नत जन्तु के स्थल पर इनका आगमन हो जाता है। यदि कोई मत चिड़िया वड़के ही मित्र जाय तो कुछ समय में बह आधी समाधिस्थ हुई देखी जा सकती है मानो भूमि ही दबकर उसे नीचे धसाती जा रही हो कभी-कभी यह स्थानान्तरित भी कर ली जाती है जो एक था दो

८707 हि छत

श््८ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

भ्ुनगों के प्रयत्त का फल हो सकता है यदि मृत चिड़िया को

कौशल्न से भूमि से गड़ी एक नन्‍हीं ठेलागाड़ी से खिलोने पर

धरातल के बराबर तल्न पर रखा जाय जिससे गुबरैले भी साथ ही साथ हटाकर शीशे के बतेन में रख दिए जायें तो उनका कृत्य देखा जा सकता है।

दिन को अधिकांशत: शुबरैज्ञों को ।नष्क्रिय ही पाया जायगा।

किन्तु सन्ध्या होते ही वे क्रियाशील हो उठेंगे। एक विवर खोदना

ओर फिर उससें मृत चिड़िया को घसीट लेना तो उनकी शक्ति के बाहर की बात होगी अत्व वे दूसरी युक्ति करते है। वे पक्षी के नीचे खुदाई कर पहुँच जाते हैं ओर जब तब मिट्टी हटाते रहते हैं। पक्षी के चारों ओर घूम लेते हैं उसके ऊपर भी चढ़कर अपने कार्य का अबलोकन सा कर लेते हैं। फिर लुप्त होकर अपने कार्य में संत्रम हो जाते है | कभी बे एक पाश्वें में बहुत अधिक खुदाई कर लेते है| फिर घबड़ा कर चारों ओर दौड़कर प्ञी के ऊपर चढ़कर उसे नीचे दबाते से.ह | इधर-उधर खींचते भी हैं। फिर पत्नी के नीचे जाकर खुदाई कर बड़ा छेद बना लेते हैं. जिसमें पत्ती धस जा सके |

ऐसे कार्यों में क्गाने का समय पक्षी या गाड़ी जाने वाली वस्तु पर निर्भर करता है किन्तु साधारणतया एक छोटे पक्ती या चूहे को मिट्टी में गाड़ने में एक दिन की खुदाई आवश्यक होती है। कार्य पूरे हो जाने पर गुबरैज्ञा उस मृत जन्तु के ऊपर कई अंडे देकर उसे ऊपर से मिट्टी डाज्चकर समाधिस्थ .कर देता है ओर जड़ जाता है। कहीं-कहीं मत जन्तु एकत्र समाधिस्थ किए जाते हैं | एक . श्रयोग में थोड़ी जगह में ही चार मेढक, तीन पक्षी, दो मछलियों एक छछ्ून्दर तथा दो टि्ट समाधिस्थ किए पाए गए। इसके अध्यवसाय का नमूना ऐसा मित्रता है जिसमें गुबरैले द्वारा एक

है

हि

््ड

बिल-निर्माता कीट १४६

छछ्ून्दर को दो दिन में समाधिस्थ करते पाया गया। छछून्दर का आकार गुबरैले का चालीसशुना होता है अतएव इतने बड़े जन्तु के समाधिसथ करने में कितना श्रम करना पड़ा होगा, इसका सहज अनुमान किया जा सकता है।

बलुही मिट्टी में गुबरेले द्वारा मत जंतुओं को धँसाने की उपमा कुए की दीवात्न या पुत्न का पाया भूमि में धँसाने से दी जा सकती है इंटे का कुछ स्तम्भ या नींव निर्माणकर नीचे से मिद्दी खोदी जाती रहती है जिससे वह भूमि में धीरे-धीरे नीचे धँसती जाती है इसी तरह हम गुबरैले को नीचें की मिट्टी खिसकाकर

बड़े आकार केभी मत जंतु धँसाते पाते हैं जिसे वे अपनी

इल्ली का सुरक्षित रूप में आहार बनाने की योजना करते हैं

एक दीघकाय गुबरेला चमकीले लोहे के कवच समान चमकीला शरीर रखता है। उसे गोबर का गुबरैला कहते हैं| वास्तव में यही जन्तु शुद्ध गुबरैज्ञा नाम से पुकारा जाना चाहिए क्योंकि गोबर या अन्य जंतुओं के मत्न को यह गोली रूप में बनाकर अपनी इल्त्ी के लिए विबर में बंद करता है | उसी के अंदर अंडे देकर विवर का मुख ऊपर से बन्द कर देता है। यह बड़ा ही स्वच्छ शरीर रखता है इसके द्वारा मल और गोबर स्पर्श किए जाने पर भी उन वस्तुओं की मलिनता या गंध इसमें नहीं पाई जा सकती। एक कण मल भी कभी इसके शरीर में चिपका पा सकना कठिन है।

.. धब्बे का तो नाम ही नहीं रहता | केवल गोल आकार और पीले

रक़्ु का एक परोपजीबी कोट विज्ञातीय रक् रूप में इसके शरीर में चिपका मिलता है

कहीं भी गोबर या मानव उत्सजित प्रत्न की उपस्थिति पाकर यह पता नहीं क्रिस भाँति आकाश में उड़ते पहुँचता है मानों इसे इन वस्तुओं का ज्ञान कराने वाली कोई छुठीं ज्ञानेन्द्रिय है

१४५० जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

है

जिसका मनुष्यों में सबथा अभाव पाया जा सकता है।कोईन कोई अदूभुत शक्ति इसमें अवश्य ही है जिससे वह बहुत दूर से भी अपने शिशु के भोजन की बस्तु का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। सू घने की शक्ति या अन्य प्रभाव से यह कोई वस्तु, गोबर, मल आदि को . कहीं पढ़ा जानकर चक्कर मारता पहुँचता है उड़ान का चक्कर छोड़कर तुरन्त उस स्थल पर जाता है जहाँ वांछित वस्तु है भूमि पर बैठते ही गुबरैला भूमि के अन्दर भ्रविष्ट होने लगता है इस प्रकार बह आदमी की डेँगली घुसने योग्य चौड़ा छेद बना

लेता है इस लम्बबत छेद की गहराई आठ हचत्ब होती है। मल या

गोबर के'ऊपरी तत्न पर चढ़कर यह गोबर या मल का एक भाग . हठाता है और अपने विबर में पहुँचाता है तथा उस पर अंडे दे देता है। ऐसी क्रिया वह अपनी शक्ति रहने तक बार-बार करता रहता है

साधारण गुबरैले द्वारा अपने अंडे देने के लिए एक मामूली

छेद बना लेना और उसमें गोबर या मल की गोली रख आना कोई बहुत कोशल का कार्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु एक कुशलता का कार्य कर दिखाने वाला भी गुबरैला होता है। इसे मिस्र का स्कैटेबियस गुबरेला कहा जाता है

वांछित खाद्य-पदार्थ का पता लगते ही मादा स्कैटेबियस गुब- . रैज्ञा वहाँ उड़कर पहुँचती है और कार्यरत हो जाती है यह पहले

भूमि में एक यथेष्ट गहरा लम्बबत विबर बनाती है। फिर गोबर पर

वापस आकर यह अपने काये के लिए यथेष्ट मात्रा प्रथक करती हे। उसी के अन्द्र अंडे दे देती है ओर उसे एक मामूली गेंद रूप का बनाती है। यह मादा का ही काय होता है। गोली बनाकर सादा एक विचित्र कार्य प्रारम्भ करती है। गोली को अपने पिछले पैरों में पकड़ कर यह उसे धूप में ढकेल ले जाना प्रारम्भ करती

_ बिल-निर्माता कीट... (१४१

है यह उसे अपने खोदे हुए विवर के अन्दर नहीं ले जाती, बल्कि उसी स्थान पर पड़ा रहने देती है। यदि वर्षा का आगमन हो जाय या संध्या को गोली बनी हो तो वह उसे ढकेलना बन्द कर देती है ओर दूसरे दिन प्रातः उसे ढकेलने का कार्य प्रारम्भ करती है। कभी कभी दो गुबरेले भी उसे साथ ही ढकलते हैं। ऐसे रूप में ढकलने से दो ल्ञाभ होते हैं। सूर्य की किरणों के कारण अंडे का विकास . शीघ्र होता है | दूसरे गोली के ऊपर एक सूखी तह पड़ जाती है जिसके अन्दर अंडा विश्राम करता है। गोबर की गोली यथेष्ट दूरी तक ढकेले जाने के बाद बिल में पहुँचाई जाती है ओर ऊपर से मिट्टी छोड़ दी जाती है। कुछ ही समय में अंडे से श्वेत शिशु इल्ली रूप में निकलता है ओर इस नन्‍्हीं दुनिया के अन्दर ही खाद्य पा जाता है। उसकी पूर्ण मात्रा समाप्त कर वह विकसित होता है सिटारिस न्यूरालिस नाम का भ्ुनगा अपनी इल्ली के लिए

0 0 ॥॥॥ || ०! शा "हे हे ब्् | | हे गा! ॥॥॥॥॥ के] ! | |

भुनगे की पोषण-व्यवस्था खाद्य वस्तु की व्यवस्था करने में सबसे चतुर कहा जा सकता है

श्श्२ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

यह आहार प्राप्त करने के लिए एक दूसरे कीट ऐँथोफोरा पिलिफेरा

के भंडार पर डाका डालता है | यह कीट तो अपनी इल्ली के लिए . खाद्य संचित किये होता है किन्तु सिटारिस भुनगा उसकी ताक में . रहता है। किसी कृत्रिम या प्राकृतिक खड़ी दीवाल या कगारे, ढूहे,

खड्ड या गुफा में छिद्र कर लेता है जिसमें कई कोष्ठक बना लेता

है प्रत्येक कोष्ठकों को मधु से भर देता है और उसमें एक-एक अंडा दे देता है। वह अंडा मधु के उस भण्डार में तैरता रहता है फिर कोष्ठकों को ऊपर से बन्द कर देता है

सिटारिस न्यूराज्तिस इस बने-बनाये खेल द्वारा अपनी इल्ली

का पोषण कराने के लिए लालायित रहता है। सिटारिस न्यूरालिस _

भुनगे की मादा ऐंथोफेरा के कोष्ठों में अंडे दिये होती है। उनसे इल्ली उत्पन्न होती है। ऐंथोफोर का संतानोत्पादन काल होने पर दो इल्लियाँ पहले नर ऐंथोफेरा के पड्ढों से चिपक जाती हैं। उनके शरीर से गिरकर मादा ऐंथोफेरा के शरीर पर आती हैं। फिर उसके कोष्ठक में जाकर अंडा देने के ठीक समय ही अन्दर गिर जाती हैं

इस तरह कोष्ठक के अन्दर मधु पूर्ण तथा सुरक्षित स्थान उन्‍हें प्राप्त.

हो जाता है। वह मधु में गिरकर सिटारिस के अंडे के ठीक ऊपर

ही गिरती है जिससे डूबने से बच जाती है। उस समय तो वह मधु खाने में भी असमथे होती है। इसलिए पहले सिटारिस के अंडे को ही निद्व न्द होकर खाती और पुष्ठ होती है। बाद में सारा मधु-भंडार उसी के आहार के लिए सुलभ होता है। आठ दिन में केंचुल उतारने पर वह मधु खाने योग्य हो जाती है

क्‍ छछून्दर-भिल्ली विचित्र .मंकार शब्द करने के कारण छछून्दर-मिल्ली या . मभींगुर नाम का कीट प्रसिद्ध है। यह विचित्र कीट है | यह छ्चून्दर

कक

बिल-निर्माता कीट

की तरह सारा जीवन भूमि के नीचे ही व्यतीत करता है। अपने 'फावड़ानुसा पैर से यह लंबा विवर खोद लेता है। उसके अंदर यह तीत्र गति से चलता फिरता है। यह छुछून्दर के ही समान 'ह्ड़ाकू और भयानक होता है | यह अपने सजातीय कीट से भी संघर्ष कर बैठता है यदि प्रतिदन्दी पराजित हो जाय तो उसका शरीर चीर-फाड़ डालता है। छछून्‍्दर की तरह यह इतना भारी भुक्खड़ भी होता है कि यदि एक ही पिंजड़े में कई एक निराहार बंद 'कर दिये जाय तो अपेक्षाकृत बलवान मिल्ली दुबेलतम मिल्लियों 'पर आघात कर उन्‍हें खा जायगा | छुछून्‍दर के विबर की तरह इसके _'बिबर भी निचले तल्न की मिट्टी में बने होने से उसमें जलन के प्रवेश का अवसर देते हैं। किन्तु बाटिकाओं में पेड़-पीधों की जड़ें काट कर उसको भारी हानि भी पहुँचाते हैं। जमैका में रहने वाली एक जाति का मिल्ली ईख के पौधों को भारी हानि पहुँचाता है मिल्ली का सारे संसार में प्रसार है तथा प्रत्येक भूभाग में इसे पाया जा सकता है। यह कहीं शिथित्न बलुही मिट्टी में पाया जाता है तो कहीं घास-पात उगे स्थानों में स्थान बनाए होता .. है। घास की जड़ों से जो मिट्टी बँघी होती है उसी के मध्य यह अप्रना विवर बनाना चाहता है। मिट्टी अधिक शिथित्न होने पर यह इतनी गहराई में विवर बनाता है कि उसे फावड़े द्वारा खोद कर पा सकना कठिं+ हो इसे पकड़ने की सहज विधि यह होती है कि दिन को उसके विवर को चिह्ित कर लिया जाय और संध्या को वहाँ पहुँचा जाय, जब यह रात्रिजीबी वृत्ति के कारण क्रियाशील हो उठता है उस समय एक लम्बी घास का डुकड़ा उसके विवर में डाला जाता है। उसके सिरे को मिल्‍्ली इतनी जोर से पकड़ लेता है कि घास को .बाहर खोंचते ही। उसके साथ बहू -भी बाहर घसिट आता है।

श्श्षः न्तु बिल कैसे बनाते हैं ?

मिलली मांस, कीट, वनस्पति आदि सभी पदार्थों की आहार बना सकता है। इसके विवर में छुछून्दर की तरह साधारण सुरंगों

से पृथक निवास-विवर होता है। साधारण विवर अनेक दिशाओं

में चारों ओर भूलभझुलैयां सा फैला होता है। धरातल के निकट एक बड़ा कक्ष बना होता है। उसका व्यास तीन इच्च ओर ऊँचाई

इंच होती होगी। यह कक्ष बड़ा स्वच्छ बना होता है | दीवालें..

भी बहुत चिकनाई होती हैं। इसी कक्ष में मादा भिलली अंडे देती है, जिनकी संख्या दो से तीन सौ तक होती है यह कक्ष धरातल के बहुत निकट होता है। इस कारण उसमें सूय की यथेष्ट किरणखों पहुँचती हैं जिससे अंडे सेए जा सकें। उन अंडों से मिल्ली की आकृति के किन्तु छोटे-छोटे श्वेत शिशु उत्पन्न होते हैं। केवल पंखों का उनमें अभाव होता है तीसरे बष तक वे प्रोढ़ावस्था नहों प्राप्त: करते |

काष्ठछेदक भिल्‍ली

एक भिल्ली काष्ठछेदक होता है। इसका रूप काष्ठलेद्क भुनगे समान होता है शरीर लम्बा और बेलनाकार होता है, पैर

बहुत छोटा होता है, उसके शरीर के पाश्व भाग के आखात में- पैर _

सटे होते हैं यह बड़ा ही बेडौल दिखाई पड़ने वाज्ला कीट है। . इसका काला शरीर तीन इंच लंबी काले सीसे की पेंसिल बराबर होता है ..... एक काला मैदानी मिल्ली होता है जो मैदानों में यथेष्ठ लम्बे . विवर बनाकर रात को उसी में पडा रहता है। रात को वह विवर से निकल्न कर उसके मुख पर बेठा रहता है और घंटों मंकार .. करता है। सड़क के किनारे के बाँध इसके प्रिय निवास स्थल हैं ... यह भी छछुन्द्रमिल्ली की तरह बड़ी लड़ाकू वृत्ति का होता है।

: बिल्न-निर्माता कीट

विवर के अंदर एक घास का डंठल डालने पर यहं उसे पकड़ लेता

है और उसी के साथ बाहर खींच लिया जा सकता है। कहा जाता. है कि फ्रांस में एक तागे में चींटा बाँध कर इसके बिवर में लटका

दिया जाता है। यह उसे जोर से पकड़ लेता है, अतएब तागा ऊपर खींच लेने से यह भी ऊपर सहज ही खिंच आता है |

मस्सा-मर्दक ( वार्ट-बाइटर )

वाटे-बाइटर या मस्सा-मदक नाम का एक कीट इस लिए कहा :

' ज्ञावा है कि उसके काटने से मस्सा नष्ट हो जाने का विश्वास किया

जाता है इसके शरीर के अंत में एक दुहरे फल्क का उपकरण होता.

है जिसे अंडस्थापक कहते हैं। यह विचित्र उपकरण मादा में ही पाया आता है। यह अपेक्षाकृत अधिक लंबाई का होता है और अंडे को उपयु क्त स्थल में रखने के लिए उपयुक्त होता है इस अंग के

दोनों फल्क संयुक्त किए जाने पर खुदाई का अच्छा अख्न बनते

हैं किन्तु जब वांछित विवर खुद जाता है तो इसके फल्लक प्रथक-

प्रथक हो जाते हैं जिससे एक अंडा उनके मध्य होकर गिरने लगता...

है ओर उपयुक्त स्थान पर रक्‍खा जा सकता है यह कीट एक ही

स्थान पर अनेक अंडे नहीं रखता है बल्कि दस या बारह अंडे एक

जगह जमा कर दूसरे स्थान पर चल्ला जाता है और बहाँ नया विवर उसी अंग से खोद कर फिर दस बारह अंडे उसमें डाल देता

_ है। अंडे का सारा भंडार समाप्त होने तक वह ऐसाही करता... जाता है। इस तरह वह अपने शिशुओं के उत्पन्न होने का स्थान विस्तृत क्षेत्रों में प्रसारित कर देता है। उन्हें किसी एक दुघटना से

ही नष्ट होने की संभावना नहीं आने देता

नवजात शिशु श्रायः श्वेत रंग के और बहुत छोटे आकार के... दा, द्वोते हैं। टिट्डा भी इसी तरह का जंतु है जिसे अकस्मात कूदते रहने से...

१५६ . जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

आँख में लग जाने का भय

ता है अतए उन कहा जाता है रीता है अतएब उसे ऑँखफोड़वा भी

शलभ या टिड्डी के अंक टि नहुसंख्यक दल के आगमन से कृषि को भयानक हातन्ति होने के कारण इसे देवी विपत्ति कहा जाग हि

छः 4 का 3 ४८५५८ 4 ५२६ हैंड अर 2 लि जा पे +47 2 /0%# हाई:

८607 7 फपडन2 लिजफक 85

5 प्रा ६७४४ हक

79 ९५६ " सक4 6 ०३५ ढ़ ४3 अक | 22% 64. ४-६ | रस ््ै- 3.5 “4] ह्ड ७“ जम | हि मेँ ॥। है 03 रे

(00

' (2 | ॥|

कं |. १44

हर /! ; है ! | ४) || | है हा | | 4१ / 7४ है ॥/ ! ४० | (0 १६ के 5 है पा ५50: (९ हि दा कई //

8 (०४९,

20000 पी, 00, हि / ॥/॥ (/ | | ' हे 7! 400 हि |, ! | #! | ॥! | ; |] 80 ॥( रा 22 !' री ; (॥॥॥ | /( | | हि '

(२) ॥। |

! ॥| कप ! ५४% गा

4 0 ल्‍ (// री ॥। !

॥/ ।0॥ 6 ॥0 ॥/ (४ (00६

| भू बहा 0 है 0 पु 4 हे ।!: ०६

॥॥॥॥/

| /। |

0

ही |

ड्ै

. कहा जा सकता है। इसके समान अन्य जन्तु का विचित्र निवास

. करता | केवल इसके रूप की सुन्दरता तथा चोड़े मिल्लीमय पंख

बिल-निर्मायक कीट श्र...

भी आंशिक विवरवासी होता है। यह अपने अंडे भूमि के नीचे देता है इसके अंडे मिली की तरह विवरों में दिए जाते हैं। ये विवर डेढ़ इंच गहरे होते हैं। इसका द्वार प्राय: आड़ी नत्नी होती है जिसमें एक चिपकन रस लेप किया होता है। कभी-कभी अंडे भी इस तरह के चिपकन पदाथ से आवेष्ठित होते हैं और एक साथ जुटे पड़े होते हैं | दक्षिणी अमेरिका में अंडों की ऐसी चिपकी ढेरियां बहुतायत से मिलती हैं। तीन वर्षो' तक शिशु के पंख नहीं निकलते उस समय तक इन्हें भूतलगामी कहा जाता है।

पंक-विष्रवासी

मेफ्लाई नामक कीट की इल्ली कभी पत्थरों के नीचे रहती है परन्तु प्राय: पंक में विवर बना कर भी रहती है। पंकिल तट पर इसके विचित्र विवर बने मित्न सकते है

यदि पंक का कुछ भाग सावधानी से हटाया जाय तो उसके अन्दर बहुत से छिद्र मिलेंगे | उनमें कुछ गोल होगी, किंतु अधिकांश अंडाकार होगी। ये मेफ्लाई या यूफीमैरा कीट की इल्ली के विवर होंगे यदि पंक्र का भाग कर विवरों की लम्बी काट ल्ी जाय तो ज्ञात होगा कि प्रत्येक विवर दुहरी नलियों का है जो एक दूसरे से समानान्तर हैं। यथार्थ में एक ही नल्ली को उसके ऊपर उल्लटने से दुहरे बने हैं क्‍ सिंहपिपीलिका

विवरनिर्मायकों में यथार्थतः: विचित्र कीद घिहपिपीलिका

पाया जाना कठिन है। इसकी जीवन-कथा पर सहसा विश्वासभी नहीं होता। प्राकृतिक रूप में यह कुछ विचित्रता प्रदर्शित नहीं

श्ध््८ जन्तु बिल कैसे बनाते हैं

दर्शनीय होते हैं | इसका रूप दानव-मक्खी सा मिलता है, किंतु यह इज्ली स्थिति सें बहुत ही विचित्र होता है। यह हिंसक वथा चपलतम कीटों का भक्षक होता है, किन्तु स्वयं आतल्सी और उनका पीछा करने में स्वथा असमथथथ होता है। यदि गति की इस अस- सथता के स्थान पर इसे आखेट करने का दूसरा उपकरण प्राप्त हुआ रहता तो यह भूखों ही मर जाता इसका बाह्य रूप देख कर | ही इसकी आखेट-शक्ति की प्रबल्ता पर विस्मय होता है कम ...._ इसका स्थूत्र, छोटा, कोमल, मांसल शरीर, छ: दुर्बेन्न पैरों पर आधारित होता है | उनमें केवल पिछले पेर ही चलने के काम आते. : है। ये इसे केवल पीछे ही धीरे-धीरे घसीट सकते हैं। इसका साधारण आकार मोटे शरीर के वाटिका-मकड़े से मिलता-जुलता है इसके पेर इतने कशकाय होते हें कि चलने में वे व्यथ होते हैं वें यदि कट कर प्रथक हो जायें तब भी यह कीट उसी तरह रेंग सकता है जैसा उन पेरों के रहने पर रेंगता है। सिर के सामने से लम्बे, पतले तथा मुड़े हुए एक जोड़े जबड़े निकले होते हैं। उनसे पहला संकेत मिज्ञता है कि इस कीट के पास कोई प्रबल्न उपकरण है। ये जबड़े विचित्र रूप के बने होते हैं| पूरी लम्बाई में उनमें... दाँते से बने होते हैं। उनके भीतरी जबड़े उनके नीचे-ऊपर हो सकते हैं | क्‍ .... निकम्मा-सा दिखाई पड़ने पर भी यह इल्ली अधिक क्रिया शीत्ष कीटों का ध्वंसक है। बल्कि प्रबलतम क्रियाशील. कीटों को छोड़ अन्य को कदाचित ही कभी पकड़ती हो पत्थरों से शून्य बलुहे स्थल में यह गडढे बनाती है जिनमें यह कीटों तथा चींटों को फूसा लेती है। अपने उदर के छोर को चिपका कर ओर गोलाई में ... पीछे की ओर रेंग कर यह एक छिछला गड॒ढा बनाती है | गोलाई एक से तीन इंच . व्यास तक की होती है। इसी बृत्त के अन्दर वह

; [2] | 4 री | ! | | || .

!

५४77 आओ सम जी कि. 5 जलनानी,

पर वह जन्तु किनारे गिय कर ढाल कम कर भागने का उद्योग

बिल-निर्माता कीट

दूसरा-तीसरा छोटा गोला बनाकर शंकु से आकार का गड़हा बना ज्ैती है | उसके पेंदे में छिपकर धैंस जाती है और मुख खोले रहती है। निकट से जाने वाला कोई कीट या चींटा गड्ढे के किनारे .. आते ही नीचे गिर जाता है। उधर वह तुरन्त उन्हें मुख के चपेट में «ते लेती है। उनका रस चूस कर खोखला बाहर फेंक देती है। फिर $# दूसरे शिक्नार की टोह में बैठ जाती है। बड़ा जन्तु भीतर गिर जाने

करता है, परन्तु सिंहपिपीलिका शीघ्रातिशीत्र मिट्टी बाहर फेंक कर ढाल बैसा ही बना रहने देने का उद्योग करती है जिससे शिकार ; भाग सके |

किक 2: 000

अच्छी पुस्तकें अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं

ओर हे हम आपको आपके व्यक्तित्व के निर्माण-कार्य में यथाशक्ति- सहायता प्रदान करने के लिए उत्सुक हैं। यदि आपका नाम अन्य हजारों आ्राहकों की भाँति हमारी उस सूची पर लिखा हुआ नहीं है, जिन्हें हम बराबर अपने नये प्रकाशनों की सूचना देते रहते हैं तो. + आज ही एक काड अपने नाम पते सहित हमारे पास लिख भेजें एक बार आपका कार्ड मिल जाने पर हम आपको नियमित रूप से विविध प्रकार के मनोरंजक साहित्य के--जिनमें उपन्यास, (जासूसी और सामाजिक) कहानी संग्रह तथा अन्य साहित्य आदि भी सम्मिलित हैं--नये प्रकाशनों की खबरें भेजते रहेंगे। अपने यहाँ के किसी भी पुस्तक-विक्रेता से हमारी पुस्तकें माँगें। अगर. कोई दिक्कत हो तो सीधे हमें लिखें आर

(१ एक ओर परामश

(१) आप आजकल के बढ़े हुए. डाकखचे से परिचित ही होंगे स्थिति यह है कि एक रुपये की पुस्तक डाक द्वारा मँगाने पर लगभग एक रुपया ही व्यय पड़ जाता है| इसलिए अपने यहाँ के पुरुतक-विक्रेता से अनुरोध कीजिये कि वह आपकी रुचि की पुस्तकें हमसे मँगाये। हम पुस्तक- विक्रेता को मी सुविधाएँ देंगे ओर आपकी मी बचत में सहायक होंगे (२) यदि कोई पुस्तक-विक्रेता आपके अ्रनुरोध पर विचार करै तो * .. ग्राप उसका नाम-पता हमें लिख भेजिये | आपकी सुविधा के लिए हम उनसे आग्रह करेंगे कि वे आप द्वारा माँगी गयी पुस्तकें अपने यहाँ रखें |

किताब महल प्रकाशक इलाहाबाद